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दस्तक शून्य के द्वार पर
जीवन भाषा में नहीं, भाव में जीवित है। भाव हृदय की धड़कन है। जीवन गूंगे का भी हो सकता है, किन्तु हृदय-विहीन जीवन मात्र चलता-फिरता शव है। जहां हृदय नहीं, वहां ली/दी जाने वाली आमंत्रण-पत्रिका निरी व्यावहारिकता है, कोरी औपचारिकता है।
हृदय भाव-भरा है। शब्द ओछे हो सकते हैं। भाषा बौनी जो ठहरी। हृदय बौने शरीर में रहने वाला विराट है। आंसू हृदय से आते हैं। आंसुओं को देखा तो आंखो से जाता है, किन्तु पहचाना हृदय से जाता है। यदि कुछ हृदय से कहा जाये तो वह जीवन की बोलती गाथा होगी।
जीवन के शिलालेख पर दोनों तरह की रेखाएं खिंची मिलती हैं-उत्थान की भी. पतन की भी। जीवन उत्थान-पतन, मीठे-तीखे अनुभवों का लम्बा-चौड़ा इतिहास है। जीवन के इस इतिहास को पढ़ने-निरखने का नाम ही स्वाध्याय है।
आओ, बैठे तरु के नीचे, कहने को गाथा जीवन की, जीवन के उत्थान-पतन की, अपना मुंह खोलें, जब सारा जग है अपनी आंखें मींचे। अर्घ्य बने थे ये देवल के, अंक चढ़े थे ये अंचल के, आओ, भूल इसे आंसू से, अब निर्जीव जड़ों से सींचें। भाव-भरा उर, शब्द न आते, पहुंच न इन तक आंसू पाते, आओ, तृण से शुष्क धरा पर, अर्थ सहित रेखाएं खींचे।
आओ, बैठे तरु के नीचे। संसार और समाधि
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--चन्द्रप्रभ
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