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तरु के नीचे बैठने का मतलब है जीवन के इतिहास को शान्त चित्त से पढ़ना। पढ़ लिया हो तो सोचना और सोच लिया हो तो सम्बोधि आत्मसात् करना। समाधि के शिखर पर आरोहरण करने के लिए इस सारी प्रक्रिया को अनुभूतिजन्य अनिवार्यता मानें।
साधक की बैठक होती है शिखर पर। शान्त चित्त ही उसकी समाधि का अपर नाम है। प्रज्ञा की आंख सोयी नहीं रहनी चाहिए। वह निष्पटल रहे, तो ही कैवल्य-दर्शन पास फटकता है। बाहर के लिए उत्सुकताएं कम रहनी चाहिए। उसके आचरण में उदासी मुखर होनी चाहिए। उदासीनता वीतरागी चेहरे पर झलके, तो ही अन्तर की माधुरी का आस्वाद किया जा सकता है। स्वयं के ध्रुव रूप को उजागर करने के लिए यही स्वस्तिकर है।
उदासीनता का मतलब है-निर्लिप्तता। उदासीनता की बारीकियों को अपनाएं तो साधना के द्वार पर सहज दस्तक बनेगी। उदासीनता ‘छोड़ने से नहीं आती, ‘छूटने से आती है। 'छोड़ने' का संबंध बाहर से है और 'छूटने' का संबंध मन से है। छोड़ना छूटना नहीं है। पर हां, छूट जाये तो छोड़ने की माथाकूट नहीं करनी पड़ती। उदासीनता छूट जाने का नाम है। ‘देहानुभूति शून्य हूँ-ऐसा कहने से देह-भाव नहीं छूटेगा। देह-भाव छूटने से देहानुभूति-शून्य स्वयं बन जाएंगे। ध्यान जितना प्रगाढ़ होगा, उदासीनता उतनी ही जीवन्त होगी।
स्वयं का होश और बाहर से बेहोश-यही उदासीनता की मूल गहराई है। मुंह लटकाना उदासीनता नहीं है, वरन शून्य के द्वार पर दस्तक है।
साधना का प्रथम चरण उदासीनता में प्रवेश है तो अन्तिम चरण उदासीनता की उपलब्धि है। यह सच है कि वही साधक आसन पर शासन कर पाता है, जिसने असत्य के प्रति उदासीनता को आत्मसात कर लिया है। आसन का मतलब है बिछावट और उदासीनता का अर्थ है ऐसी बिछावट जो संसार से ऊपर हो, अडोल हो, कमल हो! जिसका आसन संसार से उपरत है, वही साधना की सीढ़ी पर चढ़ रहा है। उदासीन होना यानी ऊंचा आसन करना-उत् + आसन। उदास होना यानी आशा-अभिलाषा के ऊपर उठना। आखिर उदासीनता ही तो मायाजाल से मुक्ति का अभियान है।
जीवन में संन्यास अंगीकार करने का मतलब है स्वयं के आसन को मायाजाल से मुक्त करना, संसार के दावानल से ऊपर करना। संन्यास है ममत्व-की-मृत्यु। माता, पिता, भाई, पत्नी, बच्चे-ये सब ममत्व के ही पारिवारिक सदस्य हैं। संन्यास परिवार से दूरी है। इसलिए एक व्यक्ति का संन्यास उससे संबंधित परिवार के बीच रेशम-डोर से बंधे रिश्तों संसार और समाधि 130
-चन्द्रप्रभ
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