Book Title: Sansar aur Samadhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 138
________________ कई बार जब मेरे सामने बड़े टेढ़े-मेढ़े प्रश्न आ जाते हैं या लोगों द्वारा हाथों-हाथ चाहे गये विषय पर मुझे घंटो प्रवचन देना पड़ता है तब अकस्मात् जैसे शिव के सिर पर गंगा उतर आये, मुझमें नये-नये तर्को/विचारों की बाढ़ आती हुई लगती है। मैं स्वयं दंग रह जाता हूं उस पर जो मैं कहता हूं। मैं यह तो स्पष्ट नहीं कह सकता कि कोई अज्ञात शक्ति मुझमें प्रवेश कर लेती हो, पर एक बात तो पक्की है कि अतिरिक्त शक्ति अवश्य प्रकट होती है। मैं इसे चमत्कार नहीं, वरन् मनोव्यक्तित्व की एकाग्रता कहूंगा। यदि हम अपने एकाकी क्षणों में एकाग्र मन रहें तो हमें आश्चर्य में डालने वाली कई ध्वनि-प्रतिध्वनियां, कहां-कहां की छाया-प्रतिच्छाया मानस-पटल पर आती-जाती लगेंगी। दूसरों के मन की पर्यायें यों हमारे मन के आईने में उभरती लगेंगी। वास्तव में अलौकिक चीजों का साक्षात्कार व्यक्ति द्वारा चेतन मन पर विजय प्राप्त करने के बाद अचेतन मन की आंख खुलने से ही संभव हो सकता है; वे मरीचिकाओं पर लुभा कर मूल तत्त्व से दूर खिसकते हैं। स्वयं के सम्पूर्ण अन्तर-व्यक्तित्व का निखार तो तब होता है, जब कामना की सौ फीसदी कटौती हो जाती है। परसों (आबू) की बात है। मैं ध्यान से उठा ही था। साधक लोग मेरी अगल-बगल उपस्थित हुए अध्यात्म-चर्चा के लिए। सबकी अपनी-अपनी साधना-परक दिक्कतें थीं। चर्चा गहरी और अध्यात्म-एकाग्र हो गयी। अकस्मात् एक साधिका विशारदा (मूल नाम 'विनोद' ध्यान-दीक्षित नाम 'विशारदा') की देह में किसी अन्य व्यक्तित्व ने प्रवेश कर लिया। विशारदा की स्थिति तत्क्षण बदल गयी, बड़ी अजीबोगरीब। मैंने दो साधिकाओं-पारदर्शिनी और योगमुद्रा को संकेत किया। उन्होंने विशारदा को संभाला। उसने थोड़ी देर में आंखें खोली उसमें अन्तर-प्रविष्ट व्यक्तित्व ने मुझसे बातचीत की। अन्त में वह उस शरीर से तभी बाहर निकला, जब उसकी मुक्ति के लिए सहयोगी बनने हेतु मैं वचनबद्ध हुआ। वह व्यक्तित्व वास्तव में उसके मृत भाई चन्द्रसेन का प्राणतत्त्व था। मरते समय उसके मन में साधना के प्रति बेहद लगाव जगा था। बारीकियों को छूने के बाद मैंन पाया कि मनोव्यक्तित्व की एकाग्रता व्यक्ति के साथ किस प्रकार संबद्ध रहती है। ___ साधना की शुरुआत में शक्तिपात भी उपयोगी है; किन्तु मन से मुक्त होकर निर्विकल्प होने के लिए शक्तिपात की बजाय स्वयं का शक्ति-जागरण अधिक श्रेयस्कर है। शक्तिपात पर चलने की मैंने भी कोशिश की, पर मैने स्वयं को उससे अतिशीघ्र मुक्त भी कर लिया। प्राप्त अनुभव यही बतलाता है कि शक्तिपात से मन केवल उसी को देखना संसार और समाधि 127 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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