Book Title: Sansar aur Samadhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 136
________________ इस आत्म-च्युति को हू-ब-हू स्वीकार किया है, वे नश्वर के नाम पर अनश्वर को दांव पर लगा रहे हैं। मन की संलग्नता आकर्षण और विकर्षण दोनों में है। दोनों मन के ही पालतू हैं। आकर्षण राग है, विकर्षण द्वेष है। मन चाहे राग से भरा हो या द्वेष से, है तो भरा हुआ ही। पात्र में पानी धौला हो या मटमैला, वह खाली तो कहलायेगा नहीं। पात्र की स्वच्छता पानी-मात्र से शून्य हो जाने में है। भरा मन व्यक्ति का शत्रु है और खाली मन अमृत-मित्र। स्वयं को प्रकृति का सिर्फ उपकरण मानने वाला साधक अहिस्ता-अहिस्ता मन-मुक्त होता जाता है। वह हर उल्टी-सीधी परिस्थिति में भी तटस्थ और जागरूक रहता है। वीतरागता का घर मन-के पार है। अध्यात्म मन की प्रत्येक सीमा-रेखा के पार है। मन के साथ जुदाई जरूरी है, पर यह बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं है कि मैं मन नहीं हूं; मैं मन नहीं हं.-- यह भी मन को ही खटपट है। यह भी एक सोच ही है। समाधि निर्विकल्प दशा में है। मैं मन नहीं हूं'- यह तो स्वयं मन का ही एक विकल्प है। ध्यान में हुई मन की हर सोच विकल्प को ही निमंत्रण है। मैं मनुष्य हूं' यह कहां कहना/जपना पड़ता है। मैं देह नहीं हूं' यह भी बार-बार दोहराना देह का भुलावा नहीं, अतु देह की स्मृति को तरो-ताजा करना है। साधकों ने मैं देह नहीं हूं' इसे भी किसी मंत्र की तरह अपना लिया है। मैं ऐसे सैकड़ों साधकों के सम्पर्क में आया हूं, जो ‘देह नहीं हूं' 'देह नहीं हूं' कहते-कहते जीवन के सान्ध्य में प्रवेश कर गये हैं, फिर भी उनके देह-लगाव का तापमान घटा नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि ध्यान गहरा हो जाने पर देहाध्यास स्वयमेव न्यूनतर हो जाता है। खरगोश पर करुणा करने वाला हाथी तीन-तीन दिन तक एक टांग पर खड़ा रह जाता है। उसे कहां अपनेआप से बार-बार बोलना पड़ा कि 'मैं देह नहीं हूं, मन नहीं हूं।' लक्ष्य को जीवन का सर्वस्व मानने वाला अपने आप मुक्त हो जाता है स्वयं-के-लक्ष्य-से-भित्र-लक्ष्यों-से। 'मैं देह नहीं हूं' को हजारों बार बोल चुकने के बाद भी ध्यान में बैठा आदमी अपने शरीर पर मच्छर की काट भी सहन नहीं कर पाता। एक मच्छर की काट से बौखलाने वाले साधक की क्या कोई सहिष्णु-अस्मिता हो सकती है? उपसर्गजयी/कष्टजयी कहलाने वाला साधक मच्छर से भी बिदक जाए, यह देहानुभूति-शून्यता नहीं है। जरा देखो, घर में खेल रहे उस बच्चे को। उसके हाथ पर पट्टी बंधी है। हाथ पर कोई घाव है, घाव से दर्द है, पर उसके चेहरे पर उभरती मुस्कराहट को देख कर क्या हम यह संसार और समाधि -चन्द्रप्रम 125 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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