Book Title: Sansar aur Samadhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 135
________________ में है। मन-रिक्त व्यक्ति अनिवार्यतः मुक्तपुरुष हो जाता है। चित्त-शून्यता से ही मन-मुक्तता की अनुभूति होती है; इसलिए मन-की-शुद्धि और चित्त-की-शुद्धि दोनों आवश्यक हैं समाधि और कैवल्य के द्वार पर दस्तक के लिए। ध्यान के क्षणों में जो मन की छितराहट दिखाई देती है। उससे व्यक्ति को न तो घबराना चाहिये और न ही उखड़ना चाहिये। उसे तो उससे जागना चाहिये। परम जागरण ही ध्यानसिद्धि की आधार-शिला है। ध्यान की घटिकाओं में होने वाली चंचलता व्यक्ति की ध्यानदशा नहीं, अपितु स्वप्न-दशा है। चंचलता चाहे ध्यान में हो, या स्वप्न के रूप में नींद में हो, वह फंतासी मन का ही फितूर है। __ मन द्वारा किया जाने वाला पर्यटन स्वप्न-दशा का ही रूपान्तरण है। फर्कमात्र इतना है कि पहले में शरीर और मन दोनों जाग्रत रहते हैं और दूसरे में शरीर सोया रहता है, जबकि मन जाग्रत। अकेलापन तो दोनों में रहता है। रात को सोते समय भी व्यक्ति नींद में निपट अकेल होता है और ध्यान में भी वह कोरा अकेला रहता है। चाहे शयन-कक्ष में दसों लोग साथ सोये हों और ध्यान-कक्ष में सैकड़ों लोग बैठे हों, तो भी उसका एकाकीपन तो एकान्तवासी ही होता है। __ ध्यान मन की चंचलता में नहीं, उसकी एकाग्रता या शून्यता में है। जैसे स्वप्न में हुई विचार-यात्रा मन की भगदड़ है, वैसे ही पद्मासन में हुई मन की हवाई उड़ान स्वयं की बैठक से च्युति को चुनौती है। जैसे स्वप्न के साथ रात-भर सोना, सोना नहीं है, वैसे ही मन की भगदड़ के साथ ध्यान करना ध्यान नहीं है। वास्तव में व्यक्ति को ध्यान की घड़ियों में मन से जुड़ना नहीं चाहिये, बल्कि मन को परखना चाहिये। निर्विचार/निर्विकल्प स्थिति बनाने के लिए मक में उभरने वाले विचारों/विकल्पों को तटस्थ होकर देखना अचूक फायदेमन्द है। ध्यान की एकाग्रता अक्षुण्ण बनाये रखने का मूल मन्त्र है जो होता है, सो होने दो' तुम केवल उसके द्रष्टा बनकर होनहार का निरीक्षण करते चले जाओ। यदि मन ध्यान में नहीं टिका है, तो एक बात दुपट्टे के पल्ले बांध लो कि वह ध्यान के समय ध्यान से हटकर जहां भी पाएगा, वहां भी नहीं टिकेगा। वह टिकाऊ माल है भी नहीं। अध्यात्म में जीने के लिए मन का अलगाव सौ टक्के स्वीकार्य है। ___ मन में जो कुछ आता है, आने दें। मात्र स्वयं की दोस्ती उससे न जोड़ें। मन के कहे मुताबिक जीवन की गतिविधियों को ढाल लेना ही अध्यात्म-च्यति है। जिन लोगों ने संसार और समाधि 124 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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