Book Title: Sansar aur Samadhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 133
________________ चार जने मिलि खाट उठाये. रोवत ले चले डगर डगरिया। कहे 'कबीर' सुनो भई साधो, संग चली वह सूखीलकरिया।। जीवन में घटित होने वाली यह मृत्यु हकीकत नहीं, मात्र मन की आपा-धापी का विराम है, उसकी व्यर्थता का बोध है। अगर किसी एक जन्म में आत्मा, परमात्मा या अध्यात्म को पहचान न पाया; परन्तु निरे मन का परिचय-पत्र भी बारीकी से पढ़ जांच लिया, तो भी यह कहा जा सकेगा कि उसने मंजिल की ओर जाने वाली राह का एक बड़ा हिस्सा पार कर लिया। ___ व्यक्ति को शरीर और विचार की समझ तो पल्ले पड़ जाती है, पर वह मन-की-पंछ को थाम नहीं पाता। दौड़ते चोर की चोटी पकड़नी भी फायदेमन्द होती है, पर पहले चोर की पदचाप तो सुनायी दे। ओर-छोर का पता नहीं और नापने बैठे हैं आसमान? __ मन तो चपल है पल-पल। यदि मन स्वयं ही जीवन हो, तो उसके पालन के लिए घरबार और दुकानदारी की व्यवस्था की जानी चाहिये। अगर मन मुर्दा हो, तो उसे दफनाने के लिए सूखी लकड़ियां बीनने में संकोच कैसा? चाहे पालना हो या दफनाना उसकी वास्तविकता क बोध होना स्वय के प्रति सजगता है। मन की उपज शारीरिक रचना की अनोखी प्रस्तुति है। कई परमाणुओं के सहयोग और सहकार से शरीर का ढांचा बनता है। मन उसमें ठीक वैसे ही मुखर होता है, जैसे शराब की निर्मित से मदहोशी/नशा। जिन चिन्तकों ने जमीन-जल, पावक-पवन के समीकरण से उपजने वाले तत्त्व को जीवन-तत्त्व, आत्म-तत्त्व स्वीकार किया, वह वास्तव में जीवन या आत्मतत्त्व नहीं, वरन् मनोतत्त्व है। मन का अपना मौखिक/मौलिक अस्तित्व नहीं है। वह बेसिर-पांव का तत्त्व है। मनुष्य ने मन एवं मन-के साथ नाना मुसीबतें पाल रखी हैं। वह दुनिया से अपना कोई पाप छिपा भी ले, पर मन से छिपाना उसके वश के बाहर है। वह दूसरों की, किसी तरह अपनी आंखों में भी धूल झोंक सकता है, पर मन सहस्राक्षी है। मन की हजारों आंखें हैं। उसमें कुछ भी गोपनीय नहीं रखा जा सकता। जगत् की आपाधापी से तंग आकर मनुष्य चाहे जहां पलायन कर जाए, पर मन से बच कर कहां भागेगा? बाहर की घुटन से मुक्त होने के लिए बातों-ही-बातों में प्रयास हो जाते हैं, पर भीतर की घुटन से छुटकारा पाने के लिए वह कोई भी मोर्चा तैयार नहीं कर पाता। संसार और समाधि 122 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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