Book Title: Sansar aur Samadhi Author(s): Chandraprabhsagar Publisher: Jityasha FoundationPage 41
________________ का कारण बन जाता है। कपड़ा नंगे बदन को ढ़कने का चोला नहीं, अपितु दूसरों को अपनी तरफ आकर्षित करने का शो-रुम बन जाता है। भोजन उनके लिए जीने का साधन नहीं, अपितु भोजन के लिए जीवन बन जाता है। इसलिए जागो, चेतो, अपने होश को सम्भालो । कहीं ऐसा न हो कि एक जादूगर की तरह, आप भी अपने आपको पुरुष होते हुए भी स्त्री मान लो और स्त्री होते हुए भी पुरुष मान लो। कहीं ऐसा न हो कि मेज के पाये को इस तरह निचोड़ने लगो जैसे ग्वाला गाय के स्तनों को दुहता है। अगर ऐसा हो गया, सम्मोहन की बेड़ियों से बंध गये तो संसार हमारे लिए एक जेलखाना होगा और हम उस जेल के शिकंजों में जकड़े हुए एक उम्र कैदी होंगे। यह कैसा जाल होगा, जिसकी रचना हमने ही की । की तो दूसरों को फंसाने के लिए, मगर फंस गये स्वयं ही। ठीक वैसे ही, जैसे मकड़ी। एक बड़ा प्रसिद्ध सन्त हुआ आर्द्रक। ऐसे सन्त कभी-कभी हुआ करते हैं। जैसे समन्दर में उतार-चढ़ाव आते हैं। ज्वार भाटे उठते हैं वैसा ही उसका भी जीवन था। जिस समय आर्द्रक साधु बना, उस समय लोगों ने उसे बहुत मना किया कि तुम साधु मत बनो। पर पता नहीं उसे क्या सूझी कि उसने साधु का बाना पहन ही लिया। एक दिन आर्द्रक एक बगीचे में बैठा ध्यानमग्न था। उसी बगीचे में कुछ लड़कियां खेलने आयीं। खेल था जिसे जो पसंद आये, वह उसी को वरण करे। किसी ने गुलाब के फूल को वरण किया तो किसी ने आम की मंजरी को। एक लड़की को क्या जची कि उसने ध्यानमग्न साधु आर्द्रक को चुन लिया। आर्द्रक तो वहां से रवाना हो गया, किन्तु उस लड़की ने आर्द्रक को अपना पति मान लिया। लड़की ने सन्त आर्द्रक को बहुत ढुंढाया, पर रमता जोगी कैसे मिले। आखिर एक दिन उसकी साध पूरी हुई। उसकी अतिथिशाला में एक दिन अनचाहे ही आर्द्रक आ पहुंचा। उस लड़की के आंसुओं से उसका दिल पसीज उठा। उसका धर्म का मोह टूट गया। आर्द्रक इतना सम्मोहित हो चुका कि उसने उसके साथ अपना घर बसा लिया। जब आर्द्रक का लड़का कुछ बड़ा हो गया तो आर्द्रक ने अपने पिछले जीवन में वापस लौटने की सोची। आर्द्रक की पत्नी को मालूम पड़ा कि उसका पति चला जायेगा, तो वह चरखे से सूत कातने लगी। बेटे ने मां से पूछा मां! यह तुम क्या रही हो? मां बोली, बेटे ! तुम्हारा निर्वाह करने के लिए सूत कात रही हूं। तुम्हारे पिता तो घर छोड़कर जा रहे है। संसार और समाधि Jain Education International 30 For Personal & Private Use Only - चन्द्रप्रभ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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