Book Title: Sansar aur Samadhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 118
________________ भी हो, तो हार का शिकवा कैसा? हाथ में प्राप्त हो या अप्राप्त, पैसा तो पर्स में ही है। आखिर है तो वही व्यष्टि बनाम समष्टि का व्यक्तित्व। एक व्यक्ति की घड़ी खो गई थी, सो वह उसे ढूंढने लगा। पड़ौसी भी उसकी मदद करने लगे। सारी गली छान ली, पर घड़ी की छांह भी हाथ न लगी। ढूंढते ढूंढते पड़ौसी पूछा- 'घड़ी खोयी कहां थी ? कहा - 'घर में । ने पड़ौसी सकते में आ गया। कहने लगा- 'यह कैसी मूर्खता, घर में खोयी घड़ी को ढूंढ रहे हो गली में? व्यक्ति ने कहा- बात तेरी पत्ते की है, पर घर में अंधेरा जो ठहरा। गली में तो रोशनी बह रही है। घर में खोयी वस्तु घर में ही ढूंढनी पड़ती है, फिर चाहे घर में अंधेरा हो, या उजाला। भीतर में पाये गये तनाव के अंधेरे से बिदक कर कहीं और आंख फैलाना सत्य की खोज नहीं, मात्र क्षितिजों में आकाश की सीमा ढूंढना है, कोरा भटकाव है। आठों पहर चलने वाले इन्सान को भी यह खबर नहीं है कि वह कहां जा रहा है, उसका लक्ष्य क्या है, वह लक्ष्यपूर्ति के लिए कितना समर्पित है? सुबह से शाम की यात्रा में जिन्दगी यूं ही तमाम होती है। मेहनत की कुल्हाड़ी से खाई खूब खोदता है, पर स्वयं की राख से ही उसे पाट डालता है। हाथ सिर्फ माटी लगती है, रत्नों का संभार नहीं । मनुष्य स्वयं चेतना की विराटता का सूत्र है। उसे अपनी गतिमान चेतना का समन्वय स्थापित कर स्वयं के आनन्द का उत्सव मनाना चाहिए। उसका उत्सव महोत्सव की रंगीनियां पाये, इसकी बजाय उसने स्वयं को दलदल के कगार पर ला खड़ा किया है। इससे उसकी घुटन घटी नहीं है, बल्कि सौ गुना बढ़ी है। कहते हैं, आर्य विकसित सभ्यता के प्रवर्तक हैं। आज आर्यता स्वयं प्रश्नचिह्न बन कर उपस्थित है स्वयं आर्य के समक्ष । गुण का पुजारी कहलाने वाला आर्य भी बेइमानी और बलात्कार पर उतर आये, तो अनार्य की परिभाषा क्या होगी? आने वाले आर्यों की आर्यता किसी समय इतनी छिछली होगी, यह कभी पूर्वज अनार्यों ने सोचा भी न होगा। अनार्यों खुद को मांजने के लिए आर्यों की संस्कृति अपनायी । परिस्थितियां चेहरे बदलती हैं। अनार्य कदम बढ़ा रहा है आर्यता की देहरी की ओर, और आर्य आंखें गड़ा रहा है अनार्यता के अन्धकूप की ओर। ने युगों-युगों से अमृतवाही कही जाने वाली गंगा में भी आज अमृत की खोज करनी पड़ रही है । जिस गंगा के दो चुल्लू पानी से सरोवर पवित्र हो जाते थे, आज वही गंगा मैली हो संसार और समाधि 107 - चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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