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स्वयं की पहचान कैसे हो, अपने व्यक्तित्व का विकास कैसे करें, इसीलिए सत्संग है; ताकि जिन्दगी में कोई-न-कोई ऐसा संग मिल जाये, जिससे सत का सर्वोदय हो सके। कोई-न-कोई ऐसा झरोखा मिल जाये, जिससे हम आसमान में उगते सूरज को निहार सकें। वह ऊषा मिल जाये, जिससे कुम्हलाये कमलों के द्वार पर जीवन के नए क्षितिज खुल सकें।
विकास का यह वातावरण सूरज के लिए नहीं, स्वयं के लिए है, अपनी पहचान और अपने सत् की स्वर-माधुरी सुनने के लिए है। स्वयं को पहचानने के लिए ही तो सारी साधना/आराधना/प्रार्थना है। स्वयं के परिचय से बढ़कर ज्ञान का दूसरा कोई बेहतर उपयोग नहीं है। यदि कोई यह कहे कि हमारे मन में धर्म के प्रति प्यार नहीं है, ध्यान के प्रति अनुराग नहीं है, परमात्मा के प्रति समर्पण नहीं है, तो यह बलात्कृति है। यदि धर्म के प्रति प्यार न होता, ध्यान के प्रति अनुराग न होता, परमात्मा के प्रति समर्पण न होता, तो न तो हम मन्दिर में कभी पांव रखते और न किसी सन्त-साधक के पांवों में अपना मस्तक नमाते। ____ यदि हमारे कदम किसी मन्दिर की तरफ जा रहे हैं तो निश्चित रूप से हमारे मन में परमात्मा के प्रति प्यार है। अगर हमारे कदम किसी धर्मस्थान की ओर बढ़ रहे हैं, तो निःसन्देह हमारे मन में धर्म के प्रति अनुराग है। यदि हमारा मन कभी संसार की अशांतियों से अशांत होता है, तो निश्चय ही हमारे मन में ध्यान की शुरूआत है। ऐसे ही होती है जीवन में वैराग्य की दस्तक।
साधु संसार-विरक्त होता है। संसार के प्रति उसके मन में रागं नहीं रहता। राग रहना भी नहीं चाहिए। पर घृणा भी तो किसी काम की? आत्मजागृत पुरुष की राग-समाप्ति वीतरागता में होती है, किन्तु आवेश में की गई राग को चोट घृणा और निन्दा को जन्म देती है। जो साधु अपने पूर्व-जीवन में क्रोधी रहता है, वह बाद में अपने उपदेशों में कहता है 'हे मानव! तूं क्रोधी है।' वह आम आदमी को औसतन क्रोधी ही देखता है। __सम्भव है आदमी का स्वभाव क्रोधी हो, पर क्रोधी कहना क्रोध की समाप्ति नहीं, वरन् लंगड़े को लंगड़ा कहकर चिड़ाना है।
किसी को धिक्कारो मत, उसे गले लगाकर क्षमा और प्यार की परिभाषा अपने आचरण से सिखाओ।
इन्सान धिक्कारने के लिए नहीं, प्यार और शान्ति पाने के लिए है। असत्य की बातें बताने की जरूरत नहीं है। सत्य की बातें कही जानी चाहिए। माटी के दीये को अन्धकार का संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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