Book Title: Sansar aur Samadhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

Previous | Next

Page 127
________________ मौसम ठीक है तो लगता है कि यहां सब और भी मेरे ही हैं। वास्तव में यहां मेरा वही है, जो वेदना की चरम घड़ियों में भी स्वयं के लिए काम आये । कोई भी देश उसको शहीद कहता है, जो उसके लिए अपने आपको बलिदान करता है। जीवन के परिसर में शहीद कम होते हैं और भगोड़े ज्यादा । भगोड़ों से सावधान रहना । एक पहुंचे हुए सन्त हुए हैं- अनाथ । अनाथ- यह संत का नाम है। अनाथी भी नाम है उनका। ऐसे आत्मजाग्रत मनीषी कभी-कभार होते हैं धरती पर। अनाथ उन्होंने नाम रखा एक अलबेली घटना से । अनाथ को जंगल में भर जवानी साधना करते देख सम्राट श्रेणिक चकराया। कहने लगा, तुम इस कच्ची उम्र में अकेले जंगल में साधना कर रहे हो। ऐसा क्यों ? सन्त ने कहा, मैं अनाथ हूं इसलिए । सम्राट तो अक्कड़बाज और सत्ता के गवले होते ही हैं। सो श्रेणिक ने कहा यदि ऐसी बात है तो मैं तुम्हारा नाथ हो जाता हूं। संत मुस्कराया। बोला, तुम!जो खुद ही अनाथ / असहाय है, वह दूसरों का नाथ कैसे हो सकता है? सम्राट के लिए सन्त की बात चुनौती थी। कहा, सन्त ! अगर और कोई होता, तो उसकी जबान खींच लेता। पर तुम हो...। मेरे पास सोने हीरे के खजाने हैं, लम्बी चौड़ी सेनाएं हैं, हर सुविधा और हर सुख है। तुम कैसे कह रहे हो, मैं अनाथ हूं? सम्राट नहीं समझ पाते सन्तों को। सन्तों को समझने के लिए सम्राट को सन्त का व्यक्तित्व आत्मसात् करना पड़ता है। सन्त ने कहा, राजन् ! जिन साधनों की वजह से तुम अपने को नाथ मानते हो, वे साधन तो मेरे पास भी थे। फिर भी मैने अपने आपको बेचारा पाया। कभी, मैं बीमार था। मेरी पीड़ा बरदास्त के बाहर थी। मेरी पत्नी, बच्चे, राजचिकित्सक, माता-पिता, राजमंत्री सब मेरे पास रहते थे। पर मेरी पीड़ा को मैं ही भोग रहा था, राजन! सिर्फ मैं ही। पीड़ा को कैसे बांटा जा सकता है राजन! सबका नाथ होते हुए भी मैं अकेला था राजन! निपट अकेला। मैने पाया हमदर्दियों के आसुंओं के बीच भी हर आदमी आखिर अनाथ है। - कौन है अपना ? किसी को अपना मानना मात्र सपना है। सपने में पर के लिए किया गया कुर्बान भी स्व के लिए लगता है । परन्तु यह सपना टूटेगा। आज भी टूट सकता है, कल भी, कभी भी टूट सकता है। सपना टूटा तो या तो ध्यान में प्रवेश कर जाओगे या फिर विक्षिप्त हो जाओगे । विक्षिप्तता का अंधियारा छाये, उससे पहले सपने की दुनिया से मुड़ जाओ, तो बेहतर है। संसार और समाधि Jain Education International 116 For Personal & Private Use Only - चन्द्रमुम www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172