Book Title: Sansar aur Samadhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

Previous | Next

Page 119
________________ रही है। स्वर्ग से उतरी उसको दूध जैसी धारा पर इतना मैल चढ़ गया है, कि उसकी धुलाई के लिए धोबी-घाट की तलाश जारी है। एक बात तय है कि पावनताएं कितनी भी कुण्ठित हो जाएं; किन्तु एकाग्रचित से एकनिष्ठ हो कर कोशिश की जाए तो पावनता की वापसी सहज संभव है। मेरी शिकायत यात्रा से नहीं, भटकाव से है। मनुष्य की जिन्दगी ठौर ठौर घूमने वाले बंजारे सी है। केवल पांव चले, तो कोई शिकायत नहीं, पर मन भी चलतापुर्जा रहे तो जीवन की एकाग्र अखण्डता लंगड़ी खायेगी ही। पांवों-का-योग और मन-का-वियोग ही संन्यास है। मन की पलकों का न झपकना ही अध्यात्म के धरातल में ध्यान की निष्ठा है। वह तो घरबारी ही है जिसके पांव तो एक घर से, एक परिवार से बंधे है; पर मन घर-घर में गोचरी करता फिरता है। मन को इस प्रवृत्ति का नाम ही अन्तर्जगत् का दारिद्रय है। पांव तो चलने ही चाहिए। चलते पांव ही तो कर्मयोग की कथा के पात्र है। पांव प्रतीक है कर्मयोग का। पांव रूका कि पटाक्षेप हुआ कर्मयोग के नाटक का। क्या नहीं सुना है बचपन से- 'बहता पानी निर्मला, रूके तो गंदा होय। पानी है परिचायक/रूपक गांव का। मन की व्यवस्था पांवों के कर्मयोग के ठीक विपरीत है। यदि चलना ही कर्मयोग कहा जाए, तो मन से बड़ा कर्मयोगी संसार में कोई भी नहीं है। यहां तक कि संसार की सारी योजनाओं का व्यवस्थापक भी मन की कर्मयोगिता के सामने कुबड़ा लगेगा। ___ जीवन में अपेक्षा मनोकर्म की नहीं, मनोयोग की है। मनोयोग है मन की एकाग्रता। समुंदर की लहरों की तरह छितराने वाला मन कर्मयोग नहीं, वरन जीवन रोग है। तनाव और घुटन का मवाद रिसता है मन के घाव से ही। इसलिए मन रोग है रोग-मुक्ति जीवन-स्वास्थ्य को अनिवार्य शर्त है। मन है सुविधावादी/अवसरवादी। अच्छे विचार और बुरे विचार की प्रतिस्पर्धा का प्रतियोगी है वह। जो भी चीज उसे उसके अनुकूल लगेगी, वह उसके साथ रहने में ही अपना सत्संग मानेगा। ध्यान है विचारों का मौन। विचार चाहे अच्छे हों या बुरे, तनाव की जड़ है। जहां अच्छाइयां हैं, वहां बुराइयां भी हैं, जहां बुराइयां हैं वहां अच्छाइयां भी है। ध्यान अच्छे-भाव/बुरे-भाव-से-मुक्त, मात्र स्वभाव है। संसार और समाधि 108 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172