________________
धन पर निगाहें निर्धन और धनवान दोनों की टिकी रहती हैं। निर्धन का पात्र तो खाली है ही, धनपति का भी खाली ही है। यदि धनपति का भरा हुआ हो भी, तो भी वह मानने को तैयार नहीं है । सन्तोष व्रत निर्धन ले लेता है, पर धनपति तो धन के पीछे जोंक की तरह चोंटा रहता है। ग्राहक ही उसकी जिंदगी है।
धर्मपूर्वक धन का अर्जन कठिन है। दुष्प्रवृत्ति के साथ कमाये हुए धन का दान, दान नहीं अपितु कृत पापों का पश्चात्ताप है।
लोभी के लिए तो धन ही प्राण है और धन ही परमेश्वर । 'धन आए मुट्ठी में, ईमान जाए भट्ठी में।' लोभी का सारा माल और सारी खुशियां बिल्कुल ऐसी हैं, जैसे गधे के सिर पर ताज और गंगुली को राज |
यद्यपि लोभ और लाभ अलग अलग हैं। पर दोनों एक ही गोद में पलते हैं। दोनों ही धनपति से जुड़े हुए हैं। जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे वैसे लोभ बढ़ता है। यह वृत्ति ही तो उसकी बी.पी. को असंतुलित करती है। भले ही वह इसे संतुलित माने। जबकि सन्तोष तृप्ति में है, तृष्णा में नहीं। यही निर्वाण का मार्ग है।
आम तौर पर आदमी चाहता तो है परमात्मा की पावनता और काम सारे करता है पतित होने का। पतित होने के लिए खुद और पावन करने के लिए खुदा। यह कैसा मजाक है!
अगर बटोरने में ही लगे हो तो बटोर भले ही लेना, लेकिन खुद को बटोरना मत भूलना। खुद को भूलना खुदा की अवहेलना है। कहीं ऐसा न हो कि दुनिया के तो सारे सामान बटोर लिये पर बटोरने वाला मालिक न बचे। ऐश्वर्य बटोरने में इतने रसमय मत हो जाना कि ईश्वर को ही भूल बैठे । आखिर यह ऐश्वर्य उस ईश्वर की ही बदौलत है।
मैन सुन रखा है कि किसी घर में आग लगी। अकेला नौकर ही था घर में। नौकर चिल्लाया, बचाओ, बुझाओ। लोग दौड़े और भवन पर पानी, माटी फेंकने लगे। नौकर भीतर-बाहर आ-जा रहा था। भवन का सारा सामान वह बाहर ला चुका था। खबर मिलते ही सेठ नाक में दम भरे बिना दौड़ता हांफता बाजार से घर पहुंचा। भवन जला पर सामान को ठौर-ठिकाना मिला देख चैन की सांस ली।
सेठ ने पूछा, घर में और कुछ तो नहीं रहा ।
नौकर बोला, जी, नहीं। मात्र टूटे-फूटे चम्मच हैं।
जा, उन्हें भी ले आ। दो चार रुपये तो मिल ही जाएंगे कबाड़खाने से। सेठ बड़बड़ाया।
संसार और समाधि
Jain Education International
68
For Personal & Private Use Only
-चन्द्रप्रभ
www.jainelibrary.org