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चाह नहीं हीरे मोती की चाह नहीं शासन करने की।
मानवता का दीप जलाऊं, ले बाती मैं नेकी की। अपरिग्रह और सन्तोष को जीवन में आमन्त्रित करने के लिए ये पंक्तियां काफी हैं।
परिग्रह और लोभ की सीमाएं पुरुष और स्त्री के साथ भित्र-भिन्न होती हैं। स्त्री का परिग्रह तो मात्र दिखावा है। चाहे कोई भी तीज-त्यौहार, व्रत-उपवास, पूजन-विधान या मौत-मरण ही क्यों न हो, वह दिखावे से वंचित नहीं रह पाती है। पर पुरुष प्रदर्शनी-कक्ष नहीं हैं। वह सौ को निगलकर एक को भी प्रदर्शित नहीं करता। उसका काम केवल भरना है। कैसे भरे और कहां से भरे, यही उसका चिन्तन-अनुचिन्तन रहता है।
यदि स्त्री यह सोचने लगे कि पुरुष कैसा भरता है तो एक नई क्रान्ति आ सकती है। परन्त स्त्रियां अपनी सीमा में बंधी हुई हैं। इसलिए ऐसा करने के लिए साहस नहीं जटा पातीं।
पुरुष भरता है करोड़ों की कमाई करके। उपयोग तो कर नहीं पाता। सोने की ईंटें खरीदकर दीवारों में चिन देता है, आयकर वालों से बचने के लिए। मनुष्य यों करके सोने की ईंटों को नहीं चुन रहा है, वरन जीवन के उन सारे अंशों को चुन रहा है जिसे उसने उन ईंटों को कमाने में लगाया था। आदमी आखिर बटोर बटोरकर भी कितना बटोरेगा! सारा बटोरना ठीकरों का बटोरना है। इसे आयकर से तो बचाया जा सकता है पर मौत से कैसे बचाओगे।छीनते तो दोनों ही हैं मौत भी और आयकर वाले भी। फिर भी फर्क है। आयकर वाले धन ले जाते हैं पर आदमी को छोड़ जाते हैं और मौत आदमी को ले जाती है पर धन को छोड़ जाती है। ___ आयकर वाले से धन जाने के बाद भी बचा हुआ मानते हैं। क्योंकि जिदंगी तो बची है। जिंदगी बची तो लाखों पाये। गया धन कमाया जा सकता है पर गयी जिन्दगी कैसे बचाओगे? रूठे हुए देव को प्रसन्न किया जा सकता है पूजा पाठ के जरिये, पर रूठे हुए जीवन और समय को लाख सिर पटक एक कर लो, तब भी खुश नहीं किया जा सकता। मौत आने के बाद तो सब छूट गया, लोभ भी, लाभ भी, धन भी। ओह! लोभ करके खूब बटोरा, पर मौत के क्षण सब छोड़ दिया।
जिन्दगी में बटोरने की आदत गहरी है ठेठ चेतना के द्वार तक पैठ गई है, दबादबाकर भी बटोरा पर बटोरने के साथ में जो कूड़ा-करकट आया है उसका क्या किया? उसे भी संसार और समाधि
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-चन्द्रप्रभ
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