Book Title: Sansar aur Samadhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

Previous | Next

Page 106
________________ जब महास्थविर के सचिव महादेवी को वापस पहुंचाने बाहर तक आए, तो महादेवी ने सचिव से पूछा महास्थविर मुंह पर पंखा क्यों रखते हैं? उन्होंने उत्तर दिया- वह स्त्री का मुख-दर्शन नहीं करते। महादेवी ने कहा, इतने दुर्बल व्यक्ति? तो मैं अपना गुरु नहीं बना सकती। जिसका खुद का मनोबल कमजोर है, वह हमें क्या देगा? महास्थविर जो भी रहे हों, पर थे आत्म-मूल्यों से वंचित | उनका ब्रह्मचर्य स्वभावबोध नहीं वरन् बलात् था। जबरदस्ती पाला गया ब्रह्मचर्य देह-मूल्यों को सान्त्वना है, किन्तु आत्म- -मूल्यों का दमन । आत्म- मूल्य को महत्त्व देने वाले के लिए भेद ही कहां रहता है स्त्री और पुरुष का। आत्मा न तो स्त्री है, न पुरुष; केवल मिट्टी के शरीर को इतना महत्त्व कि यह देखेंगे, वह नहीं देखेंगे। जीवन में चाहिए सहजता; स्वाभाविकता और वह भी बेनकाब | संन्यास जीवन की आभा हो, व्यवहार की आंखमिचौली नहीं । आत्म-मूल्य ही जीवन में सज्जनता का इंकलाब है। बात चाहे स्त्री से करें या पुरुष से, छोटे से करें या बड़े से, ऐसे लगे जैसे किसी आत्मा से बोल रहा हूं। कोई आत्मा मेरे सामने है और आत्मा से सीधे संवाद हो रहे हैं। खुद में जैसी ऊंचाइयां और गहराइयां हैं, वैसी ही दूसरे में भी दिखाई पड़ जाये तो संवाद कोरा-संवाद नहीं रहता। वह भी उत्सव बन जाता है। वह संवाद एक नया रंग लाता है; आनन्द की बूंदाबांदी करता है। अहंकार सर्वकार में ढल जाये, तो विश्व बन्धुत्व के चेहरे पर निखार आएगा ही । अपनी आत्मा की तरह दूसरे की भी आत्मा चीन्ह लो, तो खुद का अहंकार रहता ही नहीं है। व्यक्ति जो कुछ भी अपने लिए चाहता है, वही दूसरों के लिए भी उसे चाहना चाहिए। यदि कोई अपने लिए किसी के मुंह से अपमान और अपशब्द सुनना नहीं चाहता, तो दूसरों के लिए भी वैसा ही सोचना चाहिए । - आत्म-मूल्य के इस धरातल पर जो होता है, सहज-साफ होता है। एक दूसरे का मिलन भी अभिवादन होता है। वहाँ आशीर्वाद देने का भाव भी नहीं रहता; लेने का भाव भी खो जाता है। उसमें होता है एक सहज अपनत्व । प्रभुता उसी की है, जो लघु को भी प्रणाम करने के लिए प्रस्तुत हो । आशीर्वाद में इतना भरोसा क्यों? भरोसा हो स्वयं पर, स्वयं के कर्तृव्य पर। अपने कर्म ही ऐसे हों कि वे ही शुभाशीर्वाद के सूत्र बन जायें। मैने बचपन में ही सुन रखा है कि साधु सन्त लोग महान् होते हैं। महान् के प्रति नतमस्तक होना स्वाभाविक है। सन्त प्रतीक है शान्ति का । सन्त यदि सच्चा हो, तो उसकी सोहबत तनाव मुक्ति की सही तैयारी है। पुराने सन्तों की बानी मैने घड़ों भर पी है । सन्तों संसार और समाधि 95 - चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172