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कृतित्व है। वर्णसंकर इसका व्यक्तित्व है। पुरुष एक धर्म है। स्त्री दूसरा धर्म है। दोनों एकदूसरे से विपरीत हैं। दो विपरीत तत्वों का रागात्मक संबंध ही मार है। वही संसार है। मार से प्रभावित होना स्वयं का संसार के प्रति लोकार्पण है और राम से प्रभावित होना चित्त का परमात्मा के परम पथ पर संयोजन है।
मार और राम दो हैं। ये एक स्थान में नहीं रह सकते। एक सिंहासन पर एक ही राजा की बैठक हो सकती है, दो की नहीं। जहां राम है, वहां मार नहीं। जहां मार है, वहां राम नहीं। भला राम और रावण कभी दोनों संग-संग रहे हैं? राम और काम दोनों परस्पर शाश्वत वियोगी कवि है ।
सम्बद्ध लोगों की बात छोड़ो, आम आदमी तो मार के चंगुल में है। मार चार्वाक दर्शन की बुनियाद है। आदमी चाहे जैन कुल में जन्मा हो या बौद्ध कुल में या ईसाई, पारसी, हिन्दु कुल में बातें सिद्धान्तों की चाहे जितनी कर ले, पर कर्म से तो वह चार्वाकी है। आत्मा और परमात्मा की बातें करने वाले, शरीर और संसार की नश्वरता का बखान करने वाले 'खाओ, पियो, मौज उड़ाओ' की उमरखैयामी जिन्दगी जी रहे हैं।
मार के पीछे बड़े-बड़े धुरन्धर पागल हैं। आम आदमी तो मार के इशारे पर है ही, यह उन लोगों को भी डिगा देता है, जिनका चित्त राम से आन्दोलित है। ले आता है यह किसी अप्सरा को और उसे कर्त्तव्य पथ पर आगे बढ़ने से फिसला देता है। मेनका पार कही तो माया है।
समझें मार की राजनीति बनाम कूटनीति को मार और कुछ नहीं, व्यक्ति की स्वयंकी-कमजोरी है। मूलतः मार का कोई अस्तित्व नहीं है। यह तो व्यक्ति की दुर्बलता है। मार वहीं पर शैतान बनता है, जहां वह व्यक्ति को दुर्बल देखता है। कहते हैं 'निर्बल के बल राम'। यह तो मात्र संतोष करने के लिए है। शैतानियत जितनी निर्बल करते हैं, उतनी सबल लोग नहीं करते। जहां व्यक्ति सबल है, वहां शैतान नहीं है। जहां व्यक्ति निर्बल है, शैतान वहीं है। मार वहीं है ।
जो व्यक्ति जितना ज्यादा निर्बल होगा, वह मार से उतना ही प्रभावित होगा। सैक्स या एड्स से वे ही पीड़ित हैं, जो दुर्बल हैं। जिसने पहचान लिया अपने बल को और बल के कारणों को, उसका चित्त मार से कभी कम्पित नहीं हो सकेगा। एड्स निर्बलता है। निर्बल की सोहबत से निर्बलता को बढ़ावा मिलेगा, सबल के सम्पर्क से सबलता निखरेगी।
संसार और समाधि
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चन्द्रप्रभ
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