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छंटनी बहुत करते हैं। दूसरों में तो ढेर सारे गुण पाना चाहते हैं, मगर जरा स्वयं को निहारने का कष्ट कीजिये। लड़की चाहते हैं गोरी और स्वयं हैं काले-कलुटे। लड़की चाहते हैं स्वर-साम्राज्ञी और स्वयं तुतलाते हैं। लड़की चाहते हैं दहेज वाली और स्वयं की रोजी-रोटी का ठिकाना नहीं है। ___ जो लोग दूसरों में छंटनी करते हैं, वे अपना अन्तस् तो पहले टटोल लें। इच्छाएं मन की ढेरी हैं। वे कहीं ऐसी ढेरी पर तो नहीं बैठे हैं, जिसमें भीतर अंगारे दबे पड़े हैं। ___ चयन तो मन की जननी है। दो में से एक का तो जन्म होगा ही। दो में से एक का जन्मना सच्चाई का प्रगटन नहीं है, अपितु राजनीति है। जैसे ही आपने चुना की मन की ईंट रखी। यदि वह आधारहीन है, तो उसका परिणाम महल नहीं, वरन माटी का टीला होगा। पति
और पत्नी तो जीवन की गाड़ी के दो पहिये हैं। वह तभी चलेगी जब उसके दोनों पहिये बराबर होंगे। एक पहिया ट्रेक्टर का और दूसरा स्कूटर का तो वह कैसे चल पायेगी? पहियों का साम्य ही गाड़ी की गति है।
पर मजे की बात यही है कि गाड़ीवान ही जोड़ रहा है दो भित्र-भिन्न पहिये। परस्पर विरोधी चित्तों को एक ही स्थान में लाकर रख रहा है। यह विपरीत का आकर्षण अध्यात्म में भौतिकता का प्रभाव है। चित्त का बिखराव अन्तर में उपजी-संजोयी गई इच्छाओं और कामनाओं के कारण होता है। वह अपनी इच्छाओं को पूरी करना चाहता है। पर क्या पूरी हुई? इच्छा को आपूर्ति ही दोहरे संघर्ष को जन्म देती है। मनुष्य कभी चेतना के आदर्शात्मक तो कभी वासनापरक पक्ष से संघर्ष करता है। इसे मनोविज्ञान की भाषा में कहते हैं 'ईड' और 'सुपर इगो।'
संघर्ष का स्तर दो तरह का हुआ करता है। पहले स्तर में तो चेतना का आदर्श और भीतर की वासना है। चेतना का आदर्श है समता और शरीर का स्वभाव है वासना। संघर्ष दोनों के बीच का टकराव है। एक तरफ आदर्श और दूसरी तरफ वासना। दोनों में जब संघर्ष होता है और शरीर में रहने वाले हारमोन्स जब जीत जाते हैं तब भीतर का संघर्ष बाहर व्यक्त होता है और फिर दोनों तत्त्वों में संघर्ष शुरु होता है। उससे हम वासना की पूर्ति करना चाहते हैं। __पुरुष के भीतर वासना उठी। अब उसका बाहरी तत्त्वों से संघर्ष होगा। पुरुष का स्त्री के प्रति और स्त्री का पुरुष के प्रति संघर्ष होता। दोनों का एक दूसरे के प्रति होने वाला आकर्षणविकर्षण ही संघर्ष है। पहले संघर्ष भीतर और फिर बाहर। भीतर और बाहर संघर्ष ही संघर्ष संसार और समाधि
-चन्द्रप्रभ
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