Book Title: Sansar aur Samadhi Author(s): Chandraprabhsagar Publisher: Jityasha FoundationPage 67
________________ व्यर्थ का फैलाव जिन्दगी एक प्रतिस्पर्धा है । खुल्लें शब्दों में कहूं तो गला घोंट संघर्ष है। जिन्दगी की यात्रा बड़ी लम्बी है। व्यक्ति चाहे जिस दिशा में अपनी आंख फैलाये, उसे धूल के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देगा। जीवन की लम्बी-चौड़ी यात्रा कर गुजरने के बाद व्यक्ति स्वयं को थका-हारा, संतप्त और चिन्तित महसूस करता है। उसे अपनी यात्रा निराश और थकान भरी रेगिस्तान की यात्रा लगती है। जिन लोगों को ऐसा नहीं लगता, वे करीब-करीब भ्रम में हैं, धोखे में हैं। जिसे जीते जी ऐसा महसूस नहीं हुआ, उसे मरते वक्त तो जरुर होगा। ऐसा होने का कारण भी है। इन्सान ने अपनी जिन्दगी में हर असार को सार समझ लिया है और हर सार को असार । नतीजा यह निकला कि वह सार तो कभी पा न सका, असार ही उसके हाथ लगा। इसीलिए उसकी जीवन-यात्रा रेगिस्तान की यात्रा बनी। उसकी जिन्दगी की गतिविधियां उसके लिये धूल-धमास भरी हुई । वास्तव में इन्सान असार को ही बटोरता है, सार को तो नजर अंदाज किया हुआ चलता है। हीरे को बटोर कर भी आखिर पत्थर को ही बटोर रहा है। रुपयों को इकट्ठा करके भी कागजों के बण्डल ही सजा रहा है। भवन खड़ा करके भी निर्मूल्य मिट्टी का ही ढांचा बना रहा है। जो भी किया, असार किया। जो भी हाथ लगा, असार हाथ लगा। सार वह है, जहां दुनिया के सारे असार छूट जाते हैं। हमारी दृष्टि उलझी हुई है असार में। और असार का सारा सम्बन्ध बाहर से है। वह सब 'बाहर' ही है, जो अन्दर से अपना अलग अस्तित्व रखता है। अब तक जितना बटोरा, सब बाहर का ही बटोरा है। बाहर की कोई सीमा नहीं है। वह असीम है। सीमा होती तो आदमी उसका पार भी पा सकता, पर असीम का पार कैसे पाएगा? बाहर की कोई थाह भी नहीं है। वह अथाह है। उसका कोई अन्त भी नहीं है, वह अनन्त है। आकाश ज्यूं अनन्त है। पर हमारा जीवन सीमित है, उसकी थाह है, उसका कभी अन्त है। संसार और समाधि 56 Jain Education International For Personal & Private Use Only -चन्द्रम www.jainelibrary.orgPage Navigation
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