Book Title: Sansar aur Samadhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 58
________________ है। वे कसमें खा बैठते हैं सात-सात जन्मों की एक पल्ले से बंधे रहने की, उसी पल्ले में लटके रहने की। एक नग्मा मशहूर है सौ बार जन्म लेंगे, सौ बार फना होंगे। ए जाने वफा फिर भी, हम तुम न जुदा होंगे। • आकर्षण कितना जबरदस्त कि जुदाई सुहाती ही नहीं है। उन्हें वह कैद प्यारी लगती है, कैद से रिहाई नहीं। अब आप स्वयं सोचिये कि संसार का हम पर कितना प्रभुत्व है ! हमें कैसा जाम पिलाया है ! हमारी सारी जागरूकता और बोध - प्रक्रिया का प्रकाश ही छीन लिया। अब तो लगता है अन्धकार ही जीवन का शाश्वत प्रकाश है। यह बात नहीं है कि प्रकाश मिट गया। प्रकाश का अस्तित्व तो हर पल है, पर क्या करें जब दीये के पास बैठा व्यक्ति आखें मूंदे हुए है। उजेरा नहीं, अन्धेरा है; नयनों में रैन बसेरा है। जब आंखों में ही रात बस गयी, तो प्रभात का दर्शन कैसे होगा? अंधेरे में उजाला तो हर कोई प्रकट कर सकता है, मगर संसार का हम पर ऐसा प्रभाव कि उसने उजाले में भी अंधेरे को जन्म दे दिया। संसार का यह अनोखा चमत्कार है। सात चमत्कार प्रसिद्ध हैं, इसलिए आप इसे आठवां चमत्कार कहेंगे, किन्तु मैं कहूंगा पहला चमत्कार, पहलों में भी पहला, सर्वोपरि, सबसे पहला, नहलों में दहला । मेरे देखे, तो संसार का लक्षण आकर्षण है। वह हमें अपनी ओर करने का पूरा-पूरा प्रयास करता है। यह उसकी राजनीति है। अपने पक्ष में मिलाने के लिए, स्वयं को वोट दिलाने के लिए, स्वयं को जिताने के लिए, वह हर प्रकार की कीमत चुकाने के लिए कृत संकल्प है। यदि कोई उससे कटकर साधना करने बैठ जाता है, तो यह उसके मन की ऐसी हालत कर देता है, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की । जन्म-जन्म से दबायी वासनाओं को उभार देता है। अगर कोई योगीराज ज्यादा स्थिर है, तो वह देवलोक चला जाएगा। वहां से देवियों, अप्सराओं, परियों को फुसला कर बुला लाएगा, ताकि उसके योगी मन में संसार के प्रति प्यार जगे, संसार के मायावी सौन्दर्य की वह प्रशंसा करें और पास आकर कहे प्रिये ! अपना घूंघट उठाओ। दास हाजिर है तुम्हारी सेवा में । चूंकि संसार बड़ा चालबाज है। इसलिए उसे सफलता मिल भी जाती है। बहुत-से लोग उसे मुंह की भी दे देते हैं। तो वे भगवान् बन जाते हैं। भले ही बने जाये भगवान, पर संसार और समाधि 47 - चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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