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बुरी तरै सतायो निजू हितू
कांई करां बात
परायां री।
परिताप दियो
इसड़ो दोस्तां! हंस गई
शिकायत करणै री
जो मन में ही दुश्मन लोगों री।
घर वालों ने ही इस कदर सताया है कि दुश्मन का गिला ही न रहा। लोग बात करते हैं परायों की, और मैं बात करता हूं घरवालों की। जो भुक्तभोगी हैं, वे जानते हैं कि घरवाले भी कैसे सताते हैं। वे दावानल नहीं जलाते, अपितु धूनी जलाते हैं, सिगड़ी जलाते हैं। वे तलवारें नहीं चलाते, वरन चूंटिया बोड़ते हैं, ताने कसते हैं। रह-रह कर जलाते हैं। वे आदमी को उस आग में उलझा देते हैं, जो चावल की भूसी की होती है। यह वह आग है, जो आदमी को इस तरीके से झुलसाती है, सेकती है कि आदमी जीवन भर जलता है, पर अपनी धधकाहट या जलने के दाग दिखा नहीं पाता, किसी को जतला नहीं पाता। मैने तो ऐसा ही अनुभव किया।
ऐसा माहौल गर्म काफी होता है, पर सहायक को मुनित्व की चदरिया ओढ़ लेनी पड़ती है। मुनित्व यानी मौन । निरीह पशु की तरह मूक बनना पड़ता है, कब्रिस्तान की तरह मौन अंगीकार करना पड़ता है।
मनुष्य अद्वैत है, पर जहां द्वैत संघर्ष चालू होता है, वहां किसी अद्वैत का बीच में प्रवेश करना माथापच्ची की ओर बढ़ाना है। आखिर आप बोलेंगे भी किसे ? जिसे आप बोलना चाहते हैं, वह आपकी बात को गले उतारेगा, तब ना! वह आप के ही सिर पर चढ़ जायेगा। विश्वास न हो तो अजमाइश करके देख लो। आप यदि दर्दी दिल के प्रति सहानुभूति जतलाने के लिये दर्द देने वाले से कुछ कहेंगे भी, तो वापस यही जवाब मिलेगा, मैं जो कहता- करता हूं, वह सब उसकी भलाई के लिये ही ।
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- चन्द्रप्रभ
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