Book Title: Sansar aur Samadhi
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 32
________________ पर भभूत रमाई और सिर पर जटा धारण। गुरु ने उन्हें उनके थैले में रखी हुई चीजें बतलाई। ठगों को बड़ा अचम्भा हुआ। कहा, बाबा! हमें कोई ऐसी चीज दो, जो हमें मालामाल कर सके। बाबा ने कहा, यहां से एक किलोमीटर दूर एक लड़का गधा बेचता हुआ मिलेगा। उस गधे के गले में एक घंटी बंधी है। वह घंटी जादू की है। तुम उससे जो मांगोगे, तुम्हें मिलेगा। मगर पूर्णिमा की रात उसकी पूजा करवाने से ही। ___ बड़े ठग ने कहा, वह तो हम उससे छीन लेंगे। गुरु चिल्लाया, खबरदार! अगर छीना तो अभिशाप दे दूंगा। घंटी खरीदना और जितने ज्यादा पैसों में खरीदोगे, वह घंटी तुम लोगों पर उतनी ही खुश होगी। ठग वहां से दौड़े। सामने वही भैंस बेचने वाला लड़का गधा बेचता हुआ मिला। वह बोल रहा था घोड़ाले लो, घोड़ा। पांच सौ रुपये में घोड़ा। ठगों ने कहा, अरे तू कैसा गधा है? गधे को घोड़ाकहता है। इतने में ही दूसरे ठग ने अपने साथी को डांटा, अरे ये गधा है या घोड़ा, उससे तुम्हें क्या लेना-देना? हमें तो घंटी चाहिये, घंटी। गधा खरीद लो। ठगों ने पांच सौ रुपये में गधा खरीद लिया, पर गधा मरीयल। उसे अपने कन्धे पर उठाया और अपने घर तेजी से चल पड़े। शिक्षक और बच्चे हंसने लगे। समझदारों और होशियारों को गधा बना डाला उन्होंने। तो संसार में सब कोई ठगते हैं। कोई भैंस को बकरी कहलवाकर, तो कोई गधे को घोड़ा बताकर। एक-दूसरे को धोखा देने का धन्धा चालू है। इसलिए संसार में किसी में जाकर उलझना मत। क्योंकि संसार की जोड़ बड़ी खतरनाक है। यह गणित आम गणित से जुदी है। संसार के कीचड़ से स्वयं को कमल की तरह निर्लिप्त करने के लिए जोड़ को घटाव में बदलो। जिन-जिनसे जुड़े हैं, उनउनसे घट जाओ, स्वयं को घटा डालो। शेष जो शून्य बचे, वही है हमारा सच्चा स्वरुप।' इसीलिए संसार के अध्रुव स्वरुप की समीक्षा करो, उसे गहराई से निरखो। इसे यौगिक भाषा में अनुप्रेक्षा कहते हैं। कृष्ण का मायावाद, महावीर का अनित्यवाद और बुद्ध का क्षणभंगुरवाद ये सब संसार की नश्वरता के गीत सुनाते हैं। क्षणभंगुरता पर जितना बुद्ध ने कहा, उतना और कोई नहीं कह पाये। कृष्ण भी बुद्ध की साझेदारी नहीं निभा सके। बुद्ध चरम सीमा पर हैं। वे क्षणभंगुरवादी हैं। हकीकत तो यह है कि क्षणभंगुरता का जैसा इतिहास बुद्ध कह पाये, वैसा युगों-युगों तक कोई नहीं कह पाया। संसार और समाधि 21 -चन्द्रप्रा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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