________________
भगवान् के हस्ते नहीं हुआ, संसार के हस्ते हुआ है। इसलिए संसार जरूरी है। संसार ही सबका जनक है और संसार ही सबका जन्मस्थल। और जननी, जनक तथा जन्मस्थल की गरिमा स्वर्ग से भी ज्यादा है।
मगर संसार निन्दनीय भी है। वह संसार निन्दनीय है, जो सम्बन्धों से जुड़ा है। जिसके स्रष्टा हम हैं, वह सारा खोटा है। वह वास्तविक नहीं, वरन् आरोपित है। मेरा नाम चन्द्रप्रभ है । यह बात नहीं है कि चन्द्रप्रभ शब्द झूठा है। वह तो सच्चा है, पर झूठी है वह संज्ञा जो मेरे जीवन पर आरोपित की गई है। झुठा है वह सेतु जिसने नाम और व्यक्ति का तादात्म्य बनाया। संसार दुःखी है आरोपणों के कारण। आरोपित संसार कृत्रिम है, बनावटी है। कृत्रिमता अस्वाभाविक है, इसलिए त्याज्य है। क्योंकि वह संसार सम्मोहन, आकर्षण, मोह, मिथ्यात्व और दुःख से सना है। ऐसा संसार अशाश्वत है, चपल है, चंचल है, क्षणभंगुर है।
आरोपण संबंधों का अपर नाम है। जिससे हमने संबंध जोड़ा, वह सत्य नहीं, धोखा है, गुठली को गूदा मानकर चूसना है। इन संबंधों को हमने हर जन्म में बनाया है। पत्नी से संबंध बनाया। संबंध आरोपित था। पत्नी एक स्त्री थी। हमने उससे विवाह किया। अपनी मानी। अपनेपन का, मोह और आसक्ति का आरोपण किया। आज इतने साल हो गये पत्नी के साथ रहते, पर क्या आपको विश्वास है कि आप अपनी पत्नी को जान गये ? भले ही कह दो, हां, पर नहीं। वह हामी नकामी है। अगले दिन पत्नी क्या करेगी, क्या आप भविष्यवाणी कर सकते हैं? दो मिनट पहले नाराज थी, और अभी खुश है। दो मिनट बाद फिर नाराज हो सकती है। जो संबंध है, वह मात्र आरोपण है। ऊपर-ऊपर का परिचय है, बाहरी रिश्ता - नाता है।
एक जबरदस्त आचार्य हुए शंकर। उन्होंने कहा
का ते कान्ता कस्ते पुत्रः,
संसारोयमतीव
विचित्रः । कस्य त्वं कः कुत आयातः तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः । ।
सोचो। शंकराचार्य कहते है मन में विचार करो । कौन तुम्हारी कान्ता है ? तुम्हारा पुत्र कौन है? तुम किसके हो ? कौन हो? कहां से आये हो? इनके बारे में सोचो। यह संसार बड़ा बेढबा है, विचित्र है।
यहां संसार का मतलब ही यह है कि दूसरे में स्वयं को ले जाना। दूसरे में स्वयं को स्थापित करना, उससे जुड़ना है। और दुनिया के सारे जोड़ आरोपित हैं, विभ्रम हैं। सम्बन्ध मात्र विजातीयता है।
संसार और समाधि
Jain Education International
18
For Personal & Private Use Only
-चन्द्रप्रभ
www.jainelibrary.org