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चाहिये। राजा सोचने लगा. अब मैं क्या करूँ? करने को क्या रह गया। करते-करते तो आज की मुसीबत-भरी घड़ी आई है। अब तो जो हो रहा है, उसे देखना है। अब कर्ता नहीं, अब द्रष्टा बनकर खड़े रहना है।
सूत्र ने राजा की सारी उद्विग्नता को, मन की उथल-पुथल को समाप्त कर दिया। उसके मन के किसी कोने में सोयी वीणा के तार छिड़ पड़े। राजा को लगा, जो अब तक हुआ, वह मात्र एक सपने जैसा था। खरेखर सपना ही था।
संयोग की बात! घोड़ों की टापों की आवाज कम होती चली गयी। राजा को लगा कि दुश्मन और रास्ते से गुजर गये हैं। अब तो घोड़ों की आवाज बिल्कुल बंद हो गई। राजा ने चैन की सांस ली और गुनगुनाया-यह भी बीत गया।
करीब दो-तीन घंटे बाद राजा के मित्रजन उसे ढूंढते-ढूंढते वहां पहुंच गये। राजा ने अपनी शक्ति कुछ दिनों में ही वापस बटोर ली। दुश्मन पर हमला किया। उसे हराया, अपने राज्य से खदेड़ा। दुश्मन राज्य की बागडोर भी उसे मिल गयी। वह फिर से राजा बन गया, बड़ा राजा बन गया, सम्राट बन गया। चारों तरफ खुशियां छाई हुई थीं। राजा का चेहरा खुशी से फूला न समा रहा था। अचानक उसे अपनी आप-बीती कहानी की याद हो आयी। उसने फिर ताबीज खोला, पढा और उदास हो गया।
सारी सभा में सन्नाट छा गया। महाराज अचानक कैसे उदास हो गये, सभा ने राजा से कारण पूछा। राजा ने कहा, यह सूत्र-यह भी बीत जाएगा। कुछ दिन पहले मैं जिस पर गर्व करता था, वह बीत गया। जो विपदाएं आईं, वे टल गयीं। वापस राज्य-साम्राज्यवैभव-सुख मिला, तो क्या ये भी नहीं बीतेंगे। यहां सब कुछ बीतता जा रहा है। न सुख है, न दुःख है। दोनों ही टिकाऊ नहीं हैं। इसलिए संसार में दुःख के कारण कैसा क्रन्दन, सुख के कारण कैसा आनंद, विजय का कैसा उल्लास, हार का कैसा धोखा, वैभव का कैसा दम्भ! इनमें से किसी में नित्यता नहीं है, थिरता नहीं है। यह छोटा-सा सूत्र संसार का सबसे . बड़ा शास्त्र है, धर्मग्रन्थ है। राजा तत्काल सिंहासन से खड़ा हुआ और जमीन पर घुटने टेककर गाने लगा
अधुवे असासयम्मि, संसारम्मि दुक्ख पउराए।
किं नाम होज्ज तं कम्पयं, जेणाहं दुग्गइं न गच्छेज्जा।। इस अध्रुव, अशाश्वत, दुःख-बहुल संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं
संसार और समाधि
-चन्द्रप्रभ
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