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श्री संवेगरंगशाला
ग्रंथ के नाम में हेतु और संबंध यह संवेगरंगशाला पदों से अलंकृत है जो सरल, कोमल और शुभ अर्थ से शोभित है, अखण्ड काव्य के लक्षणों से श्रेष्ठ है, जिसके अन्दर सुन्दर शब्दों रूपी से उज्ज्वल देदीप्यमान स्वरूप होने से उज्ज्वल आकृति वाली, श्रोता के कान को सुख देने वाली, कल्याणकारी शब्दों से युक्त, काव्यों के विविध अलंकारों द्वारा शोषि समग्र शरीर वाली है तथा उछलते प्रशान्त रस से उन्माद वाली है, विशेषतया परलोक विषय के देवादि सुख को देने वाली है और बहुत मानपूर्वक प्रकटकर वाचक श्रोतादि को श्रेष्ठ आनंद उत्पन्न कराने वाली है। तथा इसकी रचना असद् गाथाओं से रहित है, इसमें किसी स्थान पर भी अनर्थरूपी कालिमा नहीं है और अनेक ग्रन्थों में से एकत्रित किये हुए अर्थ रूप तत्त्वों वाली है तथा प्रारम्भ काल से कारक की विभक्तियों के विधान के लिए परिश्रम वाली महावेश्या के समान संवेगरंगशाला है।
यह संवेगरंगशाला रूपी वेश्या हमेशा अपनी समता की रमणता में तत्पर है, मोह का विनाश करने वाली, ज्ञान का विस्तार करने में तत्पर, अखण्डित व्रतों से युक्त और साधुता में विलास करने में चतुर है। अप्रशम राग-द्वेष विषयादि में प्रीति करने वाली, नित्य काम की आशा करने वाली, विविध भागों में युवावस्था वाली, अपने मनपसन्द विलासों में चतुर के नेत्रों को आनन्द देने वाली और चिन्तन मनन के योग्य वचन वाली यह आराधना संवेगरंगशाला है। वेश्या नेत्रों को आनन्द देने वाली और दर्शनीय मुख वाली होती है अर्थात् वेश्या जैसे विलासी के चित्त को हरण करती है वैसे यह संवेगरंगशाला सभी साधुओं के मन का हरण करेगी और इसी तरह परिवार और परिग्रह के संग की इच्छा छोड़ने वाले वैरागी सद् गृहस्थों को भी यह संवेगरंगशाला निर्वृत्ति शान्ति का अथवा सर्व विरति के निमित्त रूप अवश्य बनेगी ।।६।।
जैसे अति निपुण बढ़ई पुरानी लकड़ी, ईंट या पत्थर आदि वस्तुओं को तोड़ फोड़कर संधिस्थान मिलाकर, मोटा-पतला या लम्बा-छोटा बनाकर दसरा आकार देकर सुन्दर मन्दिर, मकान रूप में बनाता है वैसे ही करने के लिए मैं भी तत्पर बना हूँ। श्रुत के अन्दर देखने में आये हुए, और प्राचीन इस प्रारब्ध ग्रन्थ में उपयोगी कोई गाथा, श्लोक, आधी गाथा, अथवा दो-तीन आदि अनेक श्लोक के समूह रूप कुलक आदि को भी कुछ ग्रहण करके तथा कुछ छोड़कर, किसी स्थान पर बढ़ा चढ़ाकर, किसी स्थान पर कम कर मैं उस व्याख्या के द्वारों में उपकारी बनूँ इस तरह पराये भी इस ग्रन्थ में किसी भी स्थान पर जोदूंगा। नये ग्रंथ की रचना करने के लिए अपना ज्ञान और अभिलाषा होने पर भी अपने काव्य की रचना का अभिमान छोड़ने के लिए अन्य कवियों की रचना भी अपनी रचना में शामिल करता हूँ, इससे कवि की जिम्मेदारी के भार से हल्का होता हूँ अर्थात् स्वयं को उन विषयों का ज्ञान होने पर भी अन्य ग्रन्थकार के पाठ या साक्षी देकर अपनी रचना विश्वसनीय उत्तर देने वाली बनती है और अपनी जवाबदारी का भार कम होता है और दूसरों का केवल उपकार करने के लिए मेरा यह प्रारम्भ है, इससे वह भी स्व-पर उभय के वचनों द्वारा युक्ति-युक्त बनेगा। ऐसा देखने में भी आता है कि जब अधिक ग्राहक आते हैं तब सामान्य व्यापारी अपनी और अन्य व्यापारी के दुकान में रही हुई वस्तुओं को एकत्रित कर बड़ा व्यापारी बन जाता है।
ग्रन्थ के नाम में हेतु और सम्बन्ध :- इस ग्रन्थ में कहा जायगा वह प्रस्तुत आराधना को गुण निष्पन्न नाम से जिसका अर्थ निश्चित है, ऐसे यथार्थ संवेगरंगशाला नाम से कहूँगा। अर्थात् इस आराधना का नाम संवेग रंगशाला रखते हैं। इस संवेगरंगशाला में साधु और गृहस्थ विषयक आराधना जिस तरह नवदीक्षित महासेन ने पूछा था और श्री गौतम गणधर ने जिस प्रकार उसे कहा था तथा जिस प्रकार उसने सम्यक्त्व की आराधना कर वह राजा मोक्ष प्राप्त करेगा, इस तरह से मेरे द्वारा कही गयी इस आराधना को एकाग्र चित्त से सुनो और हृदय में धारण करो ।।७६।। अब कथा रूप आराधना का वर्णन करते महासेन राजा का दृष्टांत कहते हैं। 1. इस अनुवाद में प्रथम वेश्या का स्वरूप बताकर फिर संवेगरंगशाला को उपमित की है। गुजराती अनुवाद में दोनों का साथ-साथ में वर्णन दिया है। 10
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