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समयसार
धारण करने की प्रेरणा इसलिये करते हैं कि ये मोक्ष के मार्ग हैं परन्तु कोई लिङ्ग मोक्ष का मार्ग नहीं है। मोक्ष का मार्ग तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। इसलिये
मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेव।। तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वेसु।।४१२।।
मोक्ष मार्ग में आत्मा को लगाओ, उसी का चिन्तन करो और उसी में बिहार करो, अन्य द्रव्यों में नहीं।
इस निश्चयपूर्ण कथन का कोई यह फलितार्थ न निकाल ले कि कुन्दकुन्दस्वामी मुनिलिङ्ग और श्रावक लिङ्गका निषेध करते हैं। इसलिए वे लगे हाथ अपनी नयविवक्षा को प्रकट करते हैं
ववहारिओ पुण णओ दोण्णि वि लिंगाणि भणइ मोक्खपहे। णिच्छयणओ ण इच्छइ मोक्खपहे सव्वलिंगाणि।।४१४।।
परन्तु व्यवहारनय दोनों लिङ्गों को मोक्ष मार्ग में कहता है और निश्चयनय मोक्षमार्ग में सभी लिङ्गों को इष्ट नहीं मानता।
__इस तरह विवाद के स्थलों को कुन्दकुन्दस्वामी तत्काल स्पष्ट करते हुए चलते हैं। 'जिनागम का कथन नयविवक्षापर अवलम्बित है' यह तो सर्व सम्मत बात है। इसलिये व्याख्यान करते समय वक्ता अपनी नयविवक्षा को प्रकट करते चलें और श्रोता भी उस नयविवक्षा से व्याख्यात तत्त्व को उसी नयविवक्षा से ग्रहण करने का प्रयास करें, तो विसंवाद उत्पन्न होने का अवसर नहीं आ सकता।
यह अधिकार ३०८ से लेकर ४१५ गाथा तक चलता है स्याद्वादाधिकार
___ यह अधिकार श्री अमृतचन्द्रस्वामी ने स्वरचित टीका के अङ्गस्वरूप लिखा है। इतना स्पष्ट है कि समयप्राभृत अध्यात्मग्रन्थ है। अध्यात्मग्रन्थों का वस्तुत्त्व सीधा आत्मा से सम्बन्ध रखनेवाला होता है। इसलिये उसके कथन में निश्चय का आलम्बन प्रधानरूप से लिया जाता है, परपदार्थ से सम्बनध रखनेवाले व्यवहारनय का आलम्बन गौण रहता है। जो श्रोता दोनों नयों के प्रधान और गौण भावपर दृष्टि नहीं रखते हैं उन्हें भ्रम हो सकता है। उनके भ्रम का निराकरण करने के उद्देश्य से ही अमृतचन्द्रस्वामी ने इस अधिकार का अवतरण किया है।
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