Book Title: Samasya aur Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 15
________________ महावीर समाधान के वातायन में उनके आचार और दर्शन का मूल हेतु था। क्रियाकाण्ड की क्रियावादियों में अधिकता थी। दूसरी परम्परा अक्रियावादियों की थी। अक्रियावादी आत्मा को कूटस्थ एवं अकर्ता रूप में स्वीकार करते थे। अक्रियावादियों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय ज्ञानवाद था। इसलिए अक्रियावाद को ज्ञानवाद भी कहा जाता है। क्रियावादी जहाँ आचरण के द्वारा अपने आचार-दर्शन का महल खड़ा करते थे, तो अक्रियावादी ज्ञान के द्वारा। उस समय जो तीसरी परम्परा थी, वह थी अज्ञानवादियों की । अज्ञानवादी पारलौकिक आधारों पर नैतिक प्रत्ययों को अज्ञेय के रूप में स्वीकार करते थे। वे जिन प्रत्ययों को स्वीकार करते थे, उन्हें भी अज्ञेय कहते थे। उनकी यह नैतिक अज्ञेयता रहस्यवाद और संदेहवाद के रूप में विभाजित थी। चौथी परम्परा थी विनयवाद की। विनयवाद को भक्ति-मार्ग का ही अपर नाम समझिये। भक्ति-मार्ग का आगे जाकर जो परम विकास हुआ, उसका मूल स्रोत विनयवाद ही है। क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी मुख्य रूप से यही चार धारायें प्रचलित थीं। सूत्रकृताङ्ग सूत्र आदि ग्रन्थों में इन परम्पराओं का वर्णन मिलता है। भगवान् महावीर ने बड़ा जबर्दस्त समन्वय किया था, अपने आचार और दर्शन में। उन्होंने क्रिया, ज्ञान, भक्ति, और रहस्य- सबका समन्वय करके साधनामार्ग का एक प्रशस्त मार्ग बनाया। उन्होंने जो साधना का मार्ग बताया, वहाँ पर ज्ञान, क्रिया भक्ति अथवा श्रद्धा और रहस्य-सभी पगडण्डियाँ आकर मिल गई। सभी नदियों का पवित्र संगम हो गया। नहरें महानद में लीन हो गई। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के रूप में महावीर ने इनका समन्वय किया था। उनकी आवाज मुझे आज भी सुनाई पड़ती है कि 'दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गो त्ति सेविदव्वाणि । सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र मोक्ष का मार्ग है। सबको इनका सेवन करना चाहिये। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। ये तीनों अन्योन्याश्रित हैं। तीनों की समवेत साधना ही मोक्षमार्ग है। भगवान महावीर ने और सबको तो सम्मिलित कर दिया लेकिन संदेहवाद को सम्मिलित नहीं किया। संदेहवाद तो महावीर स्वामी को स्वीकार ही नहीं था। सन्देह यानी यह क्या है-रस्सी या सर्प आदमी या ठूठ ? डांवाडोल स्थिति है यह। धोबी का गधा न घर का न घाट का। सन्देह न तो पूरे ज्ञान की स्थिति है, न ही पूरे अज्ञान की स्थिति । अतः सन्देहवाद को महावीर स्वामी ने समन्वय के सूत्र में पिरोना अच्छा नहीं समझा । यद्यपि जैनों के कुछेक दार्शनिक ग्रन्थों में सन्देह को स्थान मिला है, किन्तु उसे अच्छे रूप में स्वीकार नहीं किया है। सन्देहवाद जैसा कोई स्वतन्त्रवाद या पक्ष नहीं है। महावीर के युग में जो अन्य समस्याएं थीं, उनमें सबसे बड़ी समस्या का समाधान महावीर स्वामी ने अन्तर्मुखता और बहिर्मुखता के समन्वय द्वारा किया था। कुछ दर्शन बहिर्मुखता पर ज्यादा जोर देते थे, तो कुछ दर्शन अन्तमुखता की ओर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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