________________
आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप
४३
एक परम्परा तो बड़ी विकास अवरोधक है और वह साध्वियों के प्रवचन के सम्बन्ध में । बहुत से गच्छ वाले साध्वियों का प्रवचन देना एवं उनका प्रवचन सुनना अनुचित समझते हैं। तपागच्छ आदि में तो श्रावक लोग साध्वियों को वन्दना करना भी गलत मानते हैं। यदि साध्वियों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है तो हम यह कैसे कह सकते हैं कि महावीर भगवान ने नारी जाति का उद्धार किया और उसे भी एकाधिकार रखने वाले मानव के समान ही सामाजिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में एकसम स्थान दिया। मल्ली ने स्त्री होते हुए भी तीर्थङ्करत्व प्राप्त किया। साध्वी मृगावती ने कैवल्य प्राप्त किया। साध्वी चन्दना ने प्रवर्तिनी पद को अलंकृत किया। साध्वी याकिनी ने हरिभद्रसूरि को पथभ्रष्ट होने से बचाया। महारानी विक्टोरिया इन्दिरागांधी, एलिजावेथ, टेरेसा ये सारी नारियाँ हैं किन्तु इनकी महनीयता सर्वविदित हैं। साध्वी कनकप्रभा श्री, मणिप्रभा श्री, मृगावती श्री, जैसी विदुषी और प्रखर वक्त्री जैन साध्वियाँ तो आजकल जैन समाज पर छाई हुई हैं। ऐसी स्थिति में साध्वियों को प्रवचन और वन्दन का निषेध वास्तव नारी जाति का अपमान है। और अपमान करने वाले भी हम ही लोग हैं, जो उसी की रत्नकुक्षी से उत्पन्न हुए हैं। यह कैसा दुर्भाग्य है ? मैं बहुत से पुरुषों के मुंह से तुलसीदास का एक पद्य बहुत बार सुनता हूँ
ढोल, गॅवार, शूद्र, पशु, नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी। मैंने सुना है । एक पति ने यही पद अपनी पत्नी से कहा और पूछा कि क्या तुम इसका अर्थ जानती हो ? पत्नी ने कहा इसका अर्थ तो बिलकुल स्पष्ट है। इसमें एक जगह मैं हूँ और चार जगह आप ।
तो मैं तो यही कहंगा कि आज के प्रगतिशील युग में हमें साध्वियों को सार्वजनिक प्रवचन देने की छट देनी चाहिए और उनके चारित्र को महत्व देकर उनका आदर-सत्कार भी करना चाहिए।
___आशय यह है कि पुरानी परम्परा कोई भी तोड़े लेकिन परम्परा तभी तोड़नी चाहिए जब उसके द्वारा हजार गुना लाभ होता हो। मेरी तो प्राचीन के प्रति कोई घृणा अथवा राग भावना नहीं है और नवीन के प्रति कोई दुराग्रह भी नहीं है । मैं तो कहता हूँ नवीन को भी ग्रहण करना चाहिए और प्राचीन को भी। प्राचीन परम्परा को तोड़ना नहीं है, अपितु प्राचीन परम्परा के मन्दिर का जीर्णोद्धार करना है। उसका पुनरुद्धार करना है, ताकि जो परम्परा आज प्राण से शून्य हो गयी है उस परम्परा में वापस प्राण प्रतिष्ठा हो जाये। उसमें रक्त का संचार हो जाये । वह मन्दिर भी उतना ही सुन्दर बन जाये, आज भी जितना कि आज से हजारों साल पहले भी था। 'मेरे विचार से न तो प्राचीन अच्छा है, न नवीन बुरा है और न नवीन बुरा है, न प्राचीन अच्छा है। प्राचीन और नवीन दोनों का विवेकमूलक समन्वय ही हम सब के लिए कल्याणकारी, हितकर सिद्ध हो सकता है।'
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org