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पदयात्रा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में
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गये वापस वही गृहस्थी वही चोरी-चपेटी सब कुछ वही । ग्रामीण को कह दिया सुन लिया बात ठीक है जंच गयी वापस वैसा कभी नहीं करेंगे । भले ही दो पैसा कम -- आमदनी हो लेकिन वैसा काम नहीं करेंगे ।
तो पद यात्रा, मैं विमान यात्रा का विरोधक नहीं हूं लेकिन पद यात्रा के महत्व को तो इन्कार नहीं किया जा सकता, उसको नकारा नहीं जा सकता । उसके महत्व पर यदि कोई लांछन लगाता है तो गलत है ।
विमान यात्री जब विमान यात्रा करेगा, तो विमान यात्रा की महिमा गायेगा यहाँ तक तो बात जंचती है, किन्तु उन्हीं के द्वारा पद यात्रा का विरोध करना जंचता नहीं है । किसी को विमान यात्रा भा गई, वह विमान यात्रा करे । किसी को पद यात्रा भा गई, वह पद-यात्रा करे । विमान यात्रा में फायदा केवल शीघ्रगम्यता और समय का है । इसके अलावा कोई फायदा नहीं है । घाटा अधिक फायदा कम है इसमें । अब मैं देखता हूं कि जो जैनसाधु लोग विमान यात्रा करते हैं, वे भीतर से बड़े घबड़ाए हुए से लगते हैं । उन्हें समाज का सबसे बड़ा भय है । इसीलिए कुछेक साधु लोग वाहन - यात्रा तो करते हैं किन्तु कहते यही हैं कि हम पैदल विहार करके आये हैं । कारण उन्हें डर है कि यदि वे यह कह देंगे कि हम वाहन से आए हैं तो शायद समाज सम्मान की दृष्टि से उन्हें न देखें । इस तरह सत्यमहाव्रत का पालन करने वाला समाज भीरु व्यक्ति असत्य का अनुसरण कर लेता है । मैं जब बनारस में था, तो ऐसी घटना घटी थी एक प्रतिष्ठित सन्त आये रात के साढ़े सात बजे, बड़े पढ़े-लिखे थे । स्थानकवासी थे, खैर, उससे मतलब नहीं । हमने उनका प्राथमिक स्वागत किया । किन्तु वहाँ के डायरेक्टर को शंका हो गई कि सूर्यास्त हुए दो-सवा दो घन्टे हो गये और अब जैन मुनि उसमें भी फिर स्थानकवासी का पदार्पण | बात कम जंची । जाँच-पड़ताल की। जो रिक्सा या टैक्सी वाला उन्हें लेकर आया था, उसको क्या मालूम, उसने उस आश्रम के एक कर्मचारी से यह जिक्र किया । उसने डायरेक्टर को बताया और उन्होंने हमें । जबकि वे सन्तजी इस तरह से बोलते थे कि मैं इस इस मार्ग से होता हुआ आया हूँ, पैदल चलकर । आखिर जब रहस्योद्घाटन हुआ, तो उन्होंने यह स्वीकार कर लिया कि मैंने वाहन का उपयोग किया था ।
अब मैं कहता हूँ कि ठीक है, वाहन का उपयोग किया, तो फिर उसे छिपाने की जरूरत ही क्या है । यदि समाज से इतने अधिक डरते हो, तो वाहन पर चढ़ते ही क्यों हो । पैदल चलो और सम्मान पाओ । रही बात हमारे द्वारा उन्हें नमन की, तो हम तो हर एक को आदरणीय समझते हैं । सारी मानव-जाति एक है । क्षुद्र से क्षुद्र जीव में भी चेतना की अनन्त ज्योति रहती है तो वे तो आखिर सन्त हैं । क्रियाओं के द्वारा ही किसी सन्त की परीक्षा करना मैं अच्छा नहीं मानता ।
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