Book Title: Samasya aur Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 99
________________ मोक्ष : आज भी सम्भव ही मोक्ष की योग्यता है, एबिलिटी है। व्यक्ति के व्यक्तित्व को पूर्णता, सत् के सत्ता को पूर्णता ही आत्मपूर्णता है, मोक्ष है। हाँ ! इस सम्बन्ध में एक बात और जानने लायक है। और, वह यह कि आत्मपूर्णता में युक्तता किसी से नहीं होती। इसमें तो खोना है, रिक्त एवं शून्य करना है, जीवन के पात्र को, आत्मा को। 'जो घर फूके आपना, चले हमारे साथ ।' कबीर ने कहा है कि छोड़ दो सबको। रिक्त हो जाओ तुम तो। यह पूर्ण रिक्तता ही पूर्णता बनकर उभरती है। हकीकत में लोग 'पर' से जुड़कर 'स्व' को खो देते हैं, यह भौतिकी है। अध्यात्म के अनुष्ठान में तो पर को खोकर स्व को पाना है। स्वार्थ सिद्ध करना है। मतलब स्वस्थ होना है। जैसे-जैसे हम पर से मुक्ति पाएंगे, पर यानी चाह, वासना, अहंकार, विकल्प, राग-द्वेष । इनसे जैसे-जैसे हम छटकारा पाएंगे, स्व के हम उतने ही समीप से समीपतम आते जाएंगे। भार जैसे-जैसे कम होगा, जैसे-जैसे निर्भार होंगे, हम ऊपर उभरते जाएंगे, डूबने से बचेंगे। आ जाए 'पर' से 'स्व' मिल जाए 'स्व' में 'स्व' सदा-सदा के लिए प्रकट होगी आत्म-शक्ति को फिर निधूम अनन्य ज्योति । यह स्वारोहण है और इसी से मोक्ष सधेगा। सच पूछिये तो नैतिक जीवन का परम साध्य यह स्व की उपलब्धि ही है, नैतिकता का परमश्रेय मोक्ष की प्राप्ति ही है। इस मोक्ष को नाम हम कुछ भी दें। चाहे महाजीवन कहें, चाहे निर्वाण कहें, परमात्मा, मोक्ष या मुक्ति कहें। भिन्नता नामों की है । यह तो अलग-अलग दार्शनिकों को अलग-अलग शब्दावली है। जैसे दूध एक पर नाम अनेक : क्षीर, खीरो, दूधो, पाल, मिल्क । यह भाषा भेद है। वैसे ही मोक्ष को भिन्न-भिन्न नाम दिये गये हैं। मगर तत्त्व में भिन्नता नहीं। प्रश्न जैन का है। अतः जहाँ तक जैन का प्रश्न है, जैन दर्शन में मोक्ष के लिए मोक्ष, निर्वाण, मुक्ति आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। जैन दर्शन में मोक्ष के दो रूप माने हैं। एक तो है भावमोक्ष और एक है द्रव्य मोक्ष। इनमें राग-द्वेष का मतलब है राग-द्वष से मुक्ति और द्रव्य-मोक्ष का मतलब है निर्वाण पाना, मरणोत्तर मुक्ति की प्राप्ति। इसके लिए दो प्रतीक हैं, अरिहन्त और सिद्ध। अरिहन्त-दशा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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