Book Title: Samasya aur Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर समस्या और समाधान Telefonal Sparesanalipaveen Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्या और समाधान (चुने हुए उपयोगी सात प्रवचनों का मननीय संकलन) महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर श्री जीतयशाश्री जैन प्रकाशन, कलकत्ता For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Samasya Aur Samadhan By Mahopadhyay Shri Chandra Prabh Sagar, Published By Shri Jeetyashashree Jain Prakashan Clo Prakash 9C, Esplanade Row East, Calcutta-69 1986. For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्यर्थ / समीक्षार्थ मूल्य : १० रुपये For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन् १९८६ प्रकाशन : श्री जीतयशाश्री जैन प्रकाशन द्वारा प्रकाश ९ सी, एस्प्लानेड रो (ईस्ट) कलकत्ता-७०००६९ संकलन : मुनि ललितप्रभसागर आवरण-चित्रण : शान्ति आर्ट्स, गंटूर आवरण-मुद्रण : एंटार्कटिका, ऑफसेट कलकत्ता-९ ग्रन्थ-मुद्रण : एसकेज, ८, शोभाराम बैशाख स्ट्रीट, कलकत्ता-७ For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व कथन परम पूज्य आचार्यप्रवर श्रीमज्जिनकान्तिसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब के शिष्य-रत्न परमादरणीय शासन-प्रभावक मुनिराज श्रीमहिमाप्रभसागरजी महाराज साहब, सिद्धांत-प्रभाकर विद्वद्वर्य मुनि श्री ललितप्रभसागरजी महाराज साहब एवं व्याख्यान-वाचस्पति महोपाध्याय श्री चन्द्रप्रभसागरजी महाराज साहब का सन् १९८५ का गत चातुर्मास कलकत्ता में अनुपम एवं अभूतपूर्व हुआ। प्रवचन, पूजा प्रभावना, तपश्चर्या, स्वधार्मिक वात्सल्य, मन्दिर-निर्माण, अनाथ-सेवा-साहित्य-प्रकाशन आदि का विशेष ठाठ लगा रहा। कलकत्ता में पूजनीय प्रवचन-प्रभाकर, महोपाध्याय श्री चन्द्रप्रभसागरजी महाराज साहब का तात्त्विक विषयों पर प्रभावशाली प्रवचन होता था। उनके प्रवचनों ने कलकत्ता-संघ को अपरिमित प्रभावित किया। उनके प्रवचनों को सुनने के लिये भारी भीड़ एकत्रित होती थी। इसका मुख्य कारण यह था कि लोग उनके प्रवचनों से रसाभिभूत हो जाते थे। यद्यपि उन्होंने कलकत्ता से विहार कर दिया, किन्तु उनके प्रवचनों का प्रभाव एवं सिक्का अभी तक कलकत्तावासियों पर जमा हुआ है, जो कभी नहीं मिट सकता। वास्तव में, पूज्य मुनिश्री के प्रवचन सूक्ष्मता रोचकता और विद्वता के त्रिविध तत्त्वों से समन्वित होते थे। डा. प्रभाकर माचवे, डॉ. प्रभात शास्त्री, प्रो० कल्याणमलजी लोढ़ा, भंवरलालजी नाहटा, कविवर कन्हैयालालजी सेठिया जैसे मूर्धन्य विद्वानों ने कलकत्ता में मुनिश्री के प्रवचन-श्रवणकर उनकी प्रवचन-शैली की मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा की। पूज्य मुनिश्री के प्रवचन कलकत्ता में लगभग साढ़े पांच महीने तक लगातार हुए। उनके प्रवचन अधिकांशतः पी० २५ कलाकार स्ट्रीट स्थित श्री जैन भवन में हुए। लगभग ४०-४५ सार्वजनिक प्रवचन हुए, जो कलकत्ता के भिन्न-भिन्न स्थानों पर हुए थे। उनके कई प्रवचनों की वीडियो फिल्म तैयार की गई एवं पूरे चातुर्मास में हुए प्रत्येक प्रवचन की कैसेट भी तैयार की गई। पूज्य मुनिश्री के प्रवचनामृत का लाभ प्रत्येक सज्जन-जिज्ञासु प्राप्त कर सकें, इसी उद्देश्य से हम उनके प्रवचनों की एक पुस्तक प्रकाशित कर रहे हैं, जो कि कलकत्ता-चातुर्मास की मधुरतम स्मृति है । प्रस्तुत पुस्तक में प्रारम्भिक सात प्रवचनों का For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन हो रहा है । ये प्रवचन वस्तुतः जिज्ञासु-श्रोताजनों द्वारा किये गए प्रश्नों के विस्तृत उत्तर हैं । समस्याओं के यथोचित मार्मिक समाधान हैं । इन प्रवचनों का विदुषी श्रीमती राजकुमारीजी बेगाणी ने पठन- संशोधन कर आशुलिपिक द्वारा रही त्रुटियों को दूर करने की कृपा की है । पुस्तक के संकलन तथा संयोजन में पू० मुनिवर श्री ललितप्रभसागर जी म० सा० का सहयोग एवं सहकार उल्लेखनीय है | वयोवृद्ध साहित्यकार विद्वद्वर्य श्री भँवरलालजी साहब नाहटा ने शुद्ध मुद्रणशोधन किया है । वस्तुतः सबके पारस्परिक सहयोग से ही पुस्तक मूर्तरूप पा सकी है । अन्त में, हम सब पूज्य महोपाध्याय श्री चन्द्रप्रभसागर जी महाराज साहब के प्रति अपनी वन्दनाज्ञापित करते हैं, जिनकी अमृत वाणी ने हम सबको लाभान्वित एवं कृतार्थ किया । जय जिनेन्द्र | आपका प्रकाशचन्द दफ्तरी कृते, श्री जीतयशाश्री जैन प्रकाशन कलकत्ता For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . FAS LA SanPER मा KAVIMIM . MN KIY अ - .... परम पूज्य शासन-प्रभावक मुनिराज श्री महिमाप्रभसागर जी महाराज For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : समाधान के वातायन में चमत्कार : एक भ्रमजाल आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप पदयात्रा : वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आदर्शवाद - यथार्थवाद निसीहि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया : आज भी सम्भव मोक्ष For Personal & Private Use Only १- १५ १७-३२ ३३-४५ ४७-५९ ६१-६८ ७१-८५ ८६-१०० Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर समाधान के वातायन में प्रवचन-समय: १ जुलाई १९८५ प्रवचन-स्थल: जनभवन, कलकत्ता For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न है : भगवान महावीर ने अपने युग की तत्कालीन समस्याओं का समाधान किस रूप में प्रस्तुत किया और उन्हें क्या सफलता मिली ? उस युग के सन्दर्भ में उसका क्या नैतिक मूल्य हो सकता है ? प्रश्न महत्त्वपूर्ण है । भगवान महावीर को गहराई से समझना होगासमाधान के वातायन में, अन्यथा चूक जायेंगे। कारण, स्वयं महावीर के समय में भी बहुत लोग चूक गये थे। आप लोग भी चूक सकते हैं। मैं जो इस प्रश्न का समाधान दूंगा, फिर तो उसको समझना भी एक समस्या बन जायेगी। जो चके, वे नासमझ जिन्होंने समझा, उन्होंने जीवन की पहेलियों का हल पा लिया, समस्याओं का समाधान हासिल कर लिया। जो समस्याएं महावीर के युग में थीं, वैसी ही नयी नयी समस्याएं आज भी उभरी हुई हैं। हर युग नया है। हर युग को अपनी समस्याएं होती हैं। इसलिए हरेक समस्या का समाधान उस युग के सन्दर्भ में ही हो सकता है। किन्तु अनेक समस्याएं ऐसी भी होती हैं, जिनका सम्बन्ध युग से उतना नहीं, जितना उस युग में जीनेवाले प्राणियों से, उनके आचार-विचार से होता है। संसार समस्याओं का घर है, दलदल है। और, महावीर उस दलदल की गहराई से समीक्षा करने वाले कमल हैं। महावीर यानी जटिल से जटिलतम समस्याओं के समाधानकर्ता। __समाधान बाद में पहले समस्या को समझे। समस्या को समझे बिना समाधान की ओर बढ़ेंगे तो अन्त में फिर पूछेगे कि भगवान महावीर समस्याकर्ता थे या समाधान कर्ता। सारी रामायण सुनने के बाद लोग पूछ बैठते हैं कि सीता का हरण राम ने किया था या रावण ने ? मैंने सुना है कि एक ब्यक्ति के दो पुत्रियाँ थी। एक का विवाह कुम्भकार के घर हुआ और दूसरी का विवाह माली के यहां। एक बार उस व्यक्ति की इच्छा हुई कि चलो दोनों पुत्रियों से मिल आएँ और उनकी कोई आवश्यकता हो तो उसे पूरा कर दें। वह चला। पहले वह कुम्हार के यहाँ गया। दो दिन रहा वहाँ । रवाना होते समय उसने पुत्री से पूछा कि बोलो बिटिया ! तुम्हें क्या जरूरत है ? पुत्री ने कहा, पापाजी ! और तो सब ठीक है, कोई कमी नहीं है। बस, इन्द्र भगवान से यही प्रार्थना है कि यह बादलों की झिरमिर समाप्त हो जाए तो ये मिट्टी के बर्तन और घड़े पका लूं। उस व्यक्ति ने कहा कि अच्छा, मैं भी प्रार्थना करूंगा। अब वह व्यक्ति कुछ दिनों के बाद अपनी दूसरी पुत्री के यहाँ गया। वहाँ भी उसने लौटते समय पुत्री से पूछा कि बोलो, बिटिया ! तुम्हें क्या जरूरत है ? उसने कहा पापाजी ! और तो सब ठीक है, मगर इन्द्र भगवान से यही प्रार्थना है कि वह जल वृष्टि करे। क्योंकि पेड़-पौधे सब सूख रहे हैं। आप भी प्रभु से यही प्रार्थना करें। For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर समाधान के वातायन में वह व्यक्ति चकित हुआ। उसने कहा कि तेरी बहिन की समस्या है कि जलवृष्टि रुक नहीं रही है, और तुम्हारी समस्या है कि जलवृष्टि नहीं हो रही है। अब मेरे लिए यह समस्या उपस्थित हो गयी है कि मैं इन्द्र को किसके लिए प्रार्थना करूं जल-वृष्टि की या वृष्टि-अवरोध की? क्योंकि मेरे लिए तो तुम दोनों समान होएक तराज के दो पलड़े। मैं नहीं जानता कि इस समस्या का समाधान स्वयं देवेन्द्र भी कैसे करेंगे क्योंकि उनके पास एक साथ दो परस्पर विरोधी प्रार्थनाएं पहुंच रही हैं ? इसे कहते हैं समस्या । समस्या को सुलझाना ही समाधान है। भगवान् महावीर का युग समस्याओं का मकड़ी-जाल था। जनता उस जाल में उलझी हुई थी। वह मुक्ति-बोध पाने के लिए मार्ग ढूढ रही थी, मगर वह जैसे जैसे मार्ग खोजती वैसे-वैसे और उलझ जाती-भूल-भूलया के अन्ध गलियारों में। वास्तव में, उन्हें जरूरत थी एक सशक्त और प्रबुद्ध मार्गदर्शक की। भटके को राही का सहारा डूबते को तिनके का सहारा। सौभाग्य ही समझिये, जनभाग्य का नया सूर्योदय कि महावीर मिल गये जनता को। वह महावीर जिसने युग की पीड़ा को समझा, जनता की व्याकुलता को महसूस किया। इसीलिये उन्होंने मकड़ी-जाल में फंसी जनता को मुक्त करने के लिए और पथच्युत हो रहे आचार तथा दर्शन को सही-सलामत रखने के लिए अथक प्रयास किया; अन्यथा उस साधक को क्या जरूरत जो साधना के प्रारम्भ से लेकर साध्य-सिद्धि तक बिल्कुल मूक रहा, निर्वस्त्र रहा, समाज से असंयुक्त बना रहा। विश्व-मन्दिर का जीर्णोद्धार करने के लिए महावीर ने अन्ततः पूरा प्रयास किया। महावीर तो वह देहरी का दिया है, जिसने भीतर और बाहर दोनों को आलोकित किया। जीवन की समस्या और जीवनेतर समस्याओं का समाधान देने वाला ही वास्तव में विश्व का, जन-जन का भगवान् है, अखिल ब्रह्माण्ड का अनुशास्ता है। महावीर ने एक-एक समस्या को खोजा, युग के और जग के हर कोने-कांतर में जाकर । उन समस्याओं में वे जिये । विश्व की समस्याओं को अपनी समस्या माना और उसके लिए समाधान खोजे । खोज उपलब्धि की प्रक्रिया है। जिन खोजा, तिन पाइयाँ'। पहले समस्या, फिर समाधान । पहले प्रश्न, फिर उत्तर । पहले अर्जुन, फिर कृष्ण । अर्जुन समस्या है और कृष्ण उस समस्या के समाधानकर्ता । कृष्ण अर्जुन के भीतर है-दूध में मक्खन की तरह । गीता कृष्ण की अभिव्यक्ति है। समाधान की फलश्रुति गीता है। महावीर समाधान-गीता के प्रणेता हैं उनका हर समाधान अपने-आप में गीतास्वरूप है। कृष्ण ने एक अर्जुन की समस्या को समाधान दिया और महावीर के लिये हर इन्सान अर्जुन था। इसीलिए जैनों के पास गीता जैसे अनेक ग्रन्थ हैं। अब For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर समाधान के वातायन में - प्रतिनिधि ग्रन्थ भी बन गया है 'समणसुत्त', जो महावीर स्वामी की अभिव्यक्ति और जैनों की महागीता है। महावीर ने गीताए कहीं, लेकिन विशिष्ट ढंग से । महावीर पहले अर्जुन बने और बाद में उस अर्जुन के भीतर सुषुप्त कृष्ण को जागृत किया । समस्या के भीतर ही समाधान खोजे। बीज में ही वृक्ष का भविष्य देखा। क्योंकि बाहर का कृष्ण और बाहरी समाधान मात्र एक ऊपरी औपचारिकता है, राख पर लीपा-पोती करने जैसा समस्याओं के सनातन समाधान की गीता महावीर जैसे कृष्ण ही दे सकते हैं। कारण, महावीर जीवन की अनुभूतियों को ही अभिव्यक्ति देना पसन्द करते हैं। इसीलिए वे समाधान आकर्षक सम्यक् तथा चिरस्थायी प्रकाश-स्तम्भ की तरह बने। वरना, महावीर के पास दुनिया आकर्षित होकर दौड़ी-दौड़ी नहीं आती। क्योंकि उनके पास आकर्षण का कोई साधन नहीं था। भला, जिसने अपने पास शरीर-ढांकने के लिए भी वस्त्र का टुकड़ा नहीं रखा, वह दुनिया को आकर्षित करने के लिए अपने पास क्या रखता ? न कोई आडम्बर, न कोई जादू, न कोई चमत्कार, बस, एक सीधा सादा निस्पृह साधक का जीवन है महावीर । आचारांग सूत्र में मैंने महावीर का जीवन इसी ढंग का पाया है। अतिशयोक्ति परवर्ती ग्रन्थों की देन है। सत्यतः महावीर स्वामी ने जो समस्याओं के समाधान दिये वे ही जनता को उनके प्रति आकर्षित करने में सक्षम हुए। जनता को वह प्राप्ति हुई, जिसकी उसे आवश्यकता थी। सचमुच, महावीर ने फिसलते विश्व-के अर्जुन को सम्हालकर उसे उसका कर्तव्य-बोध कराया। सो रहे जग को जगा दिया। सुषुप्ति जागृति में बदल गयी। स्वप्न की अन्ध गलियाँ नष्ट हो गई। चारों ओर राजमार्ग, प्रशस्त पथ दिखाई देने लगा। समस्या में समाधान की खोज परम जागृत, महामनीषी और महाजीवन्त पुरुष ही कर सकते हैं । यह उनकी आत्मकल्याण बनाम लोककल्याण की साधना है। पीड़ा में परमात्मा की खोज करने के समान है। राधा, मीरा और महादेवी इसी की साधिकाएं कहलाती हैं। भगवान महावीर का समाधान का फार्मूला इसी का रूप है। समस्या में समाधान की खोज बड़ा मनोवैज्ञानिक कार्य है। महावीर के युग की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि उस समय अनेक प्रकार के आचार और दर्शन अपने-अपने तात्त्विक आधारों पर चल रहे थे। वे अपने एकांगी दृष्टिकोण के द्वारा ही अपने आचार-पक्ष और विचार-पक्ष का प्रतिपादन एवम् परिपालन करते थे। महावीर स्वामी ने उन विभिन्न तात्त्विक आधारों का समन्वय किया। उन्होंने जिन-जिन समस्याओं का समाधान किया, उनमें यह समाधान सबसे ज्यादा उत्कृष्ट है। महावीर के युग में मुख्यतः चार प्रकार के आचार-दर्शन प्रचलित थे। एक है क्रियावादी, जो आचरण को ही सब कुछ समझते थे। सच्चरित्र और सदाचार ही For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर समाधान के वातायन में उनके आचार और दर्शन का मूल हेतु था। क्रियाकाण्ड की क्रियावादियों में अधिकता थी। दूसरी परम्परा अक्रियावादियों की थी। अक्रियावादी आत्मा को कूटस्थ एवं अकर्ता रूप में स्वीकार करते थे। अक्रियावादियों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय ज्ञानवाद था। इसलिए अक्रियावाद को ज्ञानवाद भी कहा जाता है। क्रियावादी जहाँ आचरण के द्वारा अपने आचार-दर्शन का महल खड़ा करते थे, तो अक्रियावादी ज्ञान के द्वारा। उस समय जो तीसरी परम्परा थी, वह थी अज्ञानवादियों की । अज्ञानवादी पारलौकिक आधारों पर नैतिक प्रत्ययों को अज्ञेय के रूप में स्वीकार करते थे। वे जिन प्रत्ययों को स्वीकार करते थे, उन्हें भी अज्ञेय कहते थे। उनकी यह नैतिक अज्ञेयता रहस्यवाद और संदेहवाद के रूप में विभाजित थी। चौथी परम्परा थी विनयवाद की। विनयवाद को भक्ति-मार्ग का ही अपर नाम समझिये। भक्ति-मार्ग का आगे जाकर जो परम विकास हुआ, उसका मूल स्रोत विनयवाद ही है। क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी मुख्य रूप से यही चार धारायें प्रचलित थीं। सूत्रकृताङ्ग सूत्र आदि ग्रन्थों में इन परम्पराओं का वर्णन मिलता है। भगवान् महावीर ने बड़ा जबर्दस्त समन्वय किया था, अपने आचार और दर्शन में। उन्होंने क्रिया, ज्ञान, भक्ति, और रहस्य- सबका समन्वय करके साधनामार्ग का एक प्रशस्त मार्ग बनाया। उन्होंने जो साधना का मार्ग बताया, वहाँ पर ज्ञान, क्रिया भक्ति अथवा श्रद्धा और रहस्य-सभी पगडण्डियाँ आकर मिल गई। सभी नदियों का पवित्र संगम हो गया। नहरें महानद में लीन हो गई। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के रूप में महावीर ने इनका समन्वय किया था। उनकी आवाज मुझे आज भी सुनाई पड़ती है कि 'दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गो त्ति सेविदव्वाणि । सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र मोक्ष का मार्ग है। सबको इनका सेवन करना चाहिये। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। ये तीनों अन्योन्याश्रित हैं। तीनों की समवेत साधना ही मोक्षमार्ग है। भगवान महावीर ने और सबको तो सम्मिलित कर दिया लेकिन संदेहवाद को सम्मिलित नहीं किया। संदेहवाद तो महावीर स्वामी को स्वीकार ही नहीं था। सन्देह यानी यह क्या है-रस्सी या सर्प आदमी या ठूठ ? डांवाडोल स्थिति है यह। धोबी का गधा न घर का न घाट का। सन्देह न तो पूरे ज्ञान की स्थिति है, न ही पूरे अज्ञान की स्थिति । अतः सन्देहवाद को महावीर स्वामी ने समन्वय के सूत्र में पिरोना अच्छा नहीं समझा । यद्यपि जैनों के कुछेक दार्शनिक ग्रन्थों में सन्देह को स्थान मिला है, किन्तु उसे अच्छे रूप में स्वीकार नहीं किया है। सन्देहवाद जैसा कोई स्वतन्त्रवाद या पक्ष नहीं है। महावीर के युग में जो अन्य समस्याएं थीं, उनमें सबसे बड़ी समस्या का समाधान महावीर स्वामी ने अन्तर्मुखता और बहिर्मुखता के समन्वय द्वारा किया था। कुछ दर्शन बहिर्मुखता पर ज्यादा जोर देते थे, तो कुछ दर्शन अन्तमुखता की ओर For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर समाधान के वातायन में ज्यादा जोर देते थे। तपस्यात्मक प्रणाली के द्वारा श्रमण-परम्परा में भी देह-दण्डन की प्रक्रिया चालू थी। केवल ब्राह्मण ही यज्ञ-याग के द्वारा बहिर्मुख कार्य नहीं करते थे, अपितु श्रमण-परम्परा में भी देह-दण्डन आदि तपस्यामूलक, शरीर को कृष करने की प्रणालियाँ प्रचलित थीं। उनमें केवल बहिर्गमन ही था, अन्तर्गमन नहीं था। शायद इसीलिए ही पार्श्वनाथ ने बहिर्मुखता का विरोध करके अन्तर्मुखता के लिए प्रेरणा दी बहिर्मखता की अतिवादिता को पहुँचे हुए कमठ तापस आदि के प्रसंगों एवं उनके साथ हुए वार्तालाप से यह बात समझी जा सकती है। लेकिन पार्श्वनाथ अन्तत: स्वयं अन्तर्मखता की इतनी अतिवादिता में पहुंच गये कि बहिर्मुखता को तिलांजलि ही दे दी। जहाँ ब्राह्मण-वर्ग यज्ञ-याग के द्वारा बाह्य-पक्ष पर ज्यादा जोर देते थे, वहीं पर श्रमणपरम्परा पर भी देह-दण्डन आदि के द्वारा बाह्य-पक्ष पर ही जोर देती थी। पार्श्वनाथ ने अन्तर्मुखता के लिए बहुत प्रेरणा दी। इस सम्बन्ध में पार्श्वनाथ पहले क्रान्तिकारी व्यक्ति हुए, जिन्होंने बाह्य-पक्ष को तिलांजलि देकर आन्तरिक पक्ष के लिए उपदेश दिये। इस प्रकार क्रियाकाण्ड अध्यात्म से जुड़ा। क्रिया की अति उपेक्षा अधिक समय तक टिकाऊ नहीं रही और लोगों को सही सन्तोषजनक समाधान न मिल पाने के कारण बहिर्मुखता और अधिक बढ़ गई । __महावीर के युग में बाह्य-पक्ष इतना अधिक प्रबल था, यज्ञ-याग, पशुवध, पुरोहितवाद-ये सब इतने अधिक हो गये थे, बाहरी साधना इतनी ज्यादा मजबूत हो गयी थी कि पार्श्वनाथ द्वारा प्रेरित अन्तर्मुखता का सिद्धांत गौण ही बन गया था। भगवान् महावीर ने समस्या का जो समाधान किया, उसमें बाह्य पक्ष को भी उतना ही महत्त्व दिया, जितना अन्तर्पक्ष को महत्त्व दिया था। इसी को व्यवहार-नय और निश्चय-नय कह दीजिये। उन्होंने क्रिया पर जितना ज्यादा जोर दिया उतना ही ज्यादा जोर ज्ञान और दृष्टि पर दिया था। जितना बल उन्होंने दृष्टि और ज्ञान पक्ष पर दिया, उतना ही बल उन्होंने क्रिया पर भी दिया। वस्तुतः अन्तः और बाह्य दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। भगवान् महावीर का एक बड़ा महत्त्वपूर्ण वचन है। हयं नाणं किया होणं, हया अण्णाणओ किया। पासंतो पंगुलो दड्डो, धावमाणो य अन्धओ ॥ यह गाथा 'समणसुत्त' की है समाधान के सूत्रों में यह गाथा बड़ी कीमती है, कोहीनूर हीरा। इसकी आगे वाली गाथा भी इसके अधूरेपन को पूरा करती है कि संजोअ सिद्धिइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पराइ। अन्धो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपत्ता नगर पविट्ठा ।। इन गाथाओं का मतलब यह हुआ कि क्रियाहीन ज्ञान निरर्थक है और अज्ञानियों की क्रिया व्यर्थ है। ठीक वैसे ही, जैसे पंगु आदमी वन में लगी आग को देखता है परन्तु देखते हुए भी भागने में समर्थवान न होने के कारण जल मरता है और For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर समाधान के वातायन में अन्धा आदमी दौड़ता है परन्तु दौड़ते हुए भी देखने में सक्षम न होने से जल मरता है। इसलिए ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही फल की प्राप्ति होती है। जैसे कि यदि अन्धा और पंगु दोनों मिल जायें तो अन्धे के कन्धे पर पंगु बैठकर और आग से निकलकर बच सकते हैं। बात यह बिल्कुल ठीक है मतलब कि एक पहिये से रथ नहीं चला करता। दो पहिये हों और दोनों समान । ऐसा नहीं कि एक पहिया तो हो सायकिल का और दूसरा पहिया हो ट्रैक्टर का। दोनों समान हो-यही समन्वय है। भगवान् महावीर ने भी अद्भुत समन्वय किया था बहिर्मुखता एवं अन्तर्मुखता का। उन्होंने साधना-गृह में एक ऐसा दीपक बनाया, जिसे देहली का दीपक कहते हैं जो बाहर और भीतर दोनों ओर आलोक फैला सके । बहुत बड़ी-बड़ी समस्याएं थीं महावीर के सामने तीसरी समस्या थी उच्चावचता यानी ऊँच और नीच का भेदभाव । महावीर स्वामी ने मानव मात्र एक समान है-इसका उद्घोष किया। आज जो 'मानव-धर्म' के नाम से नया सम्प्रदाय पनपा है, उसका अंकुरण चाहे विनोबा भावे या अन्य किसी ने किया हो, लेकिन बीजारोपण महावीर का है। खैर, विनोबा तो कहते ही थे कि मुझ पर भगवान् महावीर का गहरा प्रभाव पड़ा है। कारण, महावीर स्वामी ने पूरी मानव-जाति को एक समान बताया, चैतन्य तत्त्व यानी अस्तित्व और सत्ता की दृष्टि से । मानव-जाति एक है। भेद कैसे उसमें। जाति, वर्ग, वर्ण, पंथ के ? किन्तु ऊँच और नीच, जाति का भेदभाव इतना अधिक बढ़ गया था कि मनुष्य यदि शूद्रकुल में जन्मा है, लेकिन गुण उसके अच्छे हैं, फिर भी उसे शूद्र ही माना जाता था। भगवान महावीर ने मनुष्य के कर्म और स्वभाव के द्वारा उसकी उच्चता और निम्नता का मापदण्ड स्वीकार किया, जन्मना उच्चता और नीचता का नहीं। कर्म से ही मनुष्य ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य और कर्म से ही शूद्र । महावीर के शब्दों में कम्मुणा बंभणो होई, कम्मुणा होई खत्तिओ। वइस्सो कम्मुणा होई, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥ तो जो लोग, जो पण्डित, जो पुरोहित जन्म से ही मनुष्य को ऊंच और नीच में विभक्त कर देते थे, महावीर स्वामी ने उसका उन्मूलन किया । आज गांधीवाद में भी यही बात है। गांधी ने जिन व्रतों को पालन करने का निर्देश दिया है, उनमें अस्पृश्यतानिवारण भी एक है । और, गांधी ने अपने सारे जीवन में इसीका सर्वाधिक प्रचार-प्रसार किया। गांधी ने वास्तव में महावीर के कार्य को For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर समाधान के वातायन में ही क्रियान्वित किया। इसलिए गांधी वस्तुतः महावीर के दूत हैं, सन्देशवाहक हैं । ठीक वैसे ही जैसे अल्ला के पैगम्बर मुहम्मद हुए। महावीर मानव - मुकुट हुए। खरेखर, वे वीर थे, महावीर थे, भला, जिस युग में मानव मानव से घृणा करता हो, उस समय हर मानव के प्रति समानता, मैत्री और करुणा-दया रखने की प्रेरणा देना कितनी अनूठी बात है। यह महावीरों के ही हाथ की बात है। इसलिए महावीर भगवान् की सभा में जहाँ एक ओर गौतम, अग्निभूति जैसे उत्तम ब्राह्मणकुल में उत्पन्न व्यक्ति को साधना-मार्ग में दीक्षित किया गया, वहीं पर हरिकेशबल जैसे शूद्र और आर्द्र कुमार जैसे अनार्यकुल में उत्पन्न व्यक्ति को भी दीक्षित किया गया था। हत्यारे अर्जुन और चोर रोहणिये को भी महावीर स्वामी ने साधना-मार्ग पर ठीक वैसे ही आरूढ़ किया था, जैसे राजकुमार मेघकुमार और अतिमुक्तक आदि को। सचमुच, हर आत्मा में परमात्मा है, क्षुद्रों में भी ज्योति महान । सारी मानव-जाति एक है, उसमें कैसा भेद-वितान ? ज्योति सबकी एक है, फिर चाहे वह मिट्टी के दिये से प्रगट हुई हो, चाहे सोने के दिये से । भीतर से सब नग्न हैं, और एक जैसे, वस्त्र तो आवरण हैं, बाहरी आरोपण हैं। इसलिए महावीर स्वामी ने जातिगत भेदभाव का पूरा निषेध किया। न केवल जातिगत भेदभाव, अपितु आर्थिक दृष्टि से भी महावीर ने मानव मात्र को एक समान बताया। उनकी सभा में जितना महत्त्व मगध नरेश श्रेणिक और राजा कोणिक को मिलता था, उतना ही महत्त्व पूणिया जैसे निर्धन वैश्य श्रावक को मिलता था। वहाँ पर गुणों की पूजा है पंसे की नहीं है। मगध-नरेश के आने पर यह नहीं कहा जाता था कि आइये ! आइये !! पधारिये !!! आगे बैठिये। और पूणिये जैसे गरीबों को यह नहीं कहा जाता था कि पीछे जाकर बैठो। मनुष्यमात्र एक समान है। पैसे के द्वारा, जन्मना जाति के द्वारा मानव का विभाजन नहीं किया जा सकता महावीर दुनियां के सबसे पहले साम्यवादी हुए। उन्होंने ही साम्यवाद की सर्वप्रथम स्थापना की। साम्यवाद के प्रथम आचार्य और प्रवर्तक महावीर स्वामी हुए । चाहे जातिगत दृष्टि से, चाहे सामाजिक दृष्टि से और चाहे आर्थिक दृष्टि से सभी दृष्टियों से महावीर ने सबको एक समान समझा। जाति तो बपौती तथा पैतृक देन है और धन चंचल है। जो अमीर कल धंन का गर्व कर रहा था, वही आज भीख मांगता नजर आता है। और जो कल भीख मांग रहा था, वह आज वैभवसम्पन्न दिखाई देता है। ऐसे उदाहरण हम अपनी आँखों के सामने रोजाना देखते हैं। किसी का जहाज डूबता है तो किसी की लॉटरी खुलती है। सुख और दुःख के व्यूह-चक्र में For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० महावीर समाधान के वातायन में सभी आ जाते हैं। इसलिए जाति व्यक्तिगत और आत्मगत नहीं है और धन भी शाश्वत नहीं है। अतः इन दोनों से मानव का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। भगवान् महावीर ने एक और जो महत्त्वपूर्ण समस्या का समाधान किया, वह था नारीजाति का उद्धार, नारी को दासता से मुक्त करना । नारी दासी थी। पुरुष के पैरों की जूती थी। बहुविवाह-प्रथा ने इसे और बढ़ोतरी दी, आग में घी की तरह । पुरुष की प्रधानता ने नारी-जाति को पतन के गर्त में ढकेल दिया। कारण, 'द्वापर' में मैंने पढ़ा है : अविश्वास हा अविश्वास ही नारी के प्रति नर का नर के तो सौ दोष क्षमा हैं स्वामी है वह घर का ॥ किन्तु महावीर ने अपने साधना-मार्ग में जितना महत्त्व पुरुष को दिया, उतना ही महत्त्व नारी को भी दिया। और, बड़ी आस्था एवं विश्वास के साथ, बुद्ध की तरह घबराये नहीं। और, कहीं कहीं पर तो इतनी हद हो गयी कि पुरुष से भी ज्यादा श्रेष्ठता नारी को दी गई महावीर के द्वारा। अमीर को तो हर आदमी अपने गले लगा सकता है, लेकिन जो आदमी गरीबों के आँसू पोंछता है, वही आदमी करुणाद्र महावीर है, विश्व का मसीहा है। महावीर तो नारी जाति के उद्धार के लिए इतने अधिक संकल्पशील और प्रयत्नशील बने कि उन्होंने परम ज्ञान की प्राप्ति से पहले ही इसके लिए प्रयास करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने साधना-काल में इस कार्य को छोड़कर जनहित कोई काम नहीं किया था। भगवान् महावीर के जीवन में बड़ी हृदयस्पर्शी घटना मिलती है, चन्दनबाला की। राजकुमारी थी वह, लेकिन भाग्य की विडम्बना के कारण वेश्या के हाथ बेची जाने लगी, दासी बनी, पैरों में बेड़ियाँ और हाथों में हथकड़ियाँ डाली गयीं, शिर मुंडवा दिया गया-जिस स्त्री की ऐसी दीन हालत हो गयी हो, ऐसी चन्दनबाला जैसी नारियों का महावीर ने उत्थान किया। कोई भी नहीं हुआ इस तरह से जो प्राणिमात्र के उद्धार के लिए प्रयत्न करे। महावीर गाँव-गाँव में भटके और गाँव-गाँव में जाकर विश्वकल्याण की प्रेरणा दी। दुनिया में जितने भी महापुरुष हुए, उन्होंने संसार की समस्याओं का समाधान खोजा, लेकिन महावीर ने एक-एक व्यक्ति की समस्याओं का समाधान खोजा। यदि एक-एक व्यक्ति की समस्याओं का समाधान हो गया तो सारे संसार की समस्याओं का समाधान स्वतः हो जायेगा। क्योंकि संसार व्यक्तियों का ही समूह है। व्यक्ति संसार की सबसे छोटी इकाई है। महावीर स्वामी ने, उस युग की एक और जो सबसे बड़ी समस्या थी मानवीय परतन्त्रता की, उसका भी समाधान खोजा और उसे ईश्वरवाद से मुक्ति दिलाई। For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर समाधान के वातायन में उस युग में जहाँ एक ओर ईश्वरवादिता की धारणा का प्रभाव था, वहीं दूसरी ओर कालवादी और नीतिवादी धारणायें अपने चरम विकास पर थीं । मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता को खो बैठा था । उसके मन में एक ही विचार था कि जैसे-तैसे ईश्वर को खुश किया जाये । और ईश्वर को खुश करने के लिए आया यज्ञ-याग, ब्राह्मणवाद, पुरोहितवाद | आत्मा और परमात्मा के मिलन के लिये इन बीच के दलालों को खुश करना जरूरी हो गया । मनुष्य पराधीन और परतन्त्र हो गया । वह बाह्य आचरण जरूर करता था, लेकिन भीतर से बड़ा आक्रान्त था । बाहर से तो पशुओं की आहुति दी जाती थी यज्ञों में, लेकिन सचमुच स्वयं मनुष्य भी भीतर में पशु की तरह ही धधक रहा था । भगवान महावीर ने उसकी परतन्त्रता को समाप्त किया और उसे स्वतंत्रता दी | अग्निशामक बनकर उसकी आग को बुझाना | दूसरी प्रचलित धारणायें, दूसरे मत जो मनुष्य की स्वतन्त्रता का अपहरण कर रहे थे, जो उनके साथ, उनकी स्वतंत्रता के साथ अत्याचार हो रहा था, महावीर स्वामी ने उससे खुला विद्रोह किया और बड़े जमकर । जिस युग में ईश्वरवादिता, कालवादिता और नीतिवादिता अपने चरम रूप में हो, उस युग में ईश्वरवादिता कालवादिता और नीतिवादिता का खुला विद्रोह करना भगवान महावीर जैसे निर्भीक, बहादुरों और महावीरों के ही वश की बात है । उन्होंने सत्य को प्रकट किया, परतन्त्रता को समाप्त किया । मनुष्य की स्वतन्त्रता जो दूसरों ने छीन ली थी, विद्रोह करके उनको वापस दिलाई | इसीलिये महावीर स्वामी के प्रति लाखों लोग आकर्षित हुए, समर्पित हुए । भगवान महावीर अनीश्वरवादी थे । अनीश्वरवादी भी मात्र इस दृष्टिकोण से कि उन्होंने ईश्वर का वह रूप स्वीकार नहीं किया, जो सृष्टि संचालन का आधारभूत माना जाता है । सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता या नियामक कोई सर्वशक्तिमान ईश्वर है, इसे महावीर स्वीकार नहीं करते । उन्होंने षड्द्रव्यों के आधार पर यह लोक अनादि और अनन्त बताया । भला, उस तत्व को ईश्वर कहा भी कैसे जा सकता है, जो स्रष्टा और संहर्त्ता हो । माया से, राग द्व ेष से युक्त हो । इसीलिये महावीर गीता के श्री कृष्ण की तरह यह उद्घोषणा नहीं करते कि 'सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेक शरणं व्रज । अहंत्वां सर्व पापेभ्यो, मोक्षयिष्यामि मा शुचः । यानी कोई हो सब धर्म छोड़ तूं, आ बस मेरा शरण धरे । डर मत कौन पाप वह जिससे, मेरे हाथों तूं न तरे ॥ यानी मानवजाति ईश्वर की कठपुतली हुई । न स्वतन्त्र विचार-शक्ति, न स्वतन्त्र- संकल्प शक्ति - सब ईश्वराधीन । कर्मसिद्धांत धूमिल हो गया । ईश्वरत्व बपौती हो गई । यह राजतन्त्र हुआ । महावीर गणतन्त्रवादी थे । उनका कहना था ११ For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर समाधान के वातायन में कि हर इन्सान ईश्वर बन सकता है। प्रत्येक इन्सान अपना परम विकास कर सकता है। वीतरागता का विकास ही ईश्वरत्व का प्रकाश है । वह स्वयं ही अपना नियामक और संचालक है । अपना मित्र और अपना शत्रु वह स्वयं ही है। आत्म स्वतन्त्रता और 'आत्मा वै परमेश्वरः' के सम्बन्ध में महावीर का यह अद्भुत विज्ञान है । ___ महावीर परम स्वाभिमानी और परम स्वावलम्बी थे, गज और आकाशवत् । स्वस्थ थे वे, यानी आत्मस्थित थे। यह महावीर के अहंकार की बात नहीं है, अपितु मानवजाति और आत्मा को महानता देने की बात है। दूसरे दार्शनिकों ने भी आत्मा का अस्तित्व माना । ईश्वरवादी परम्पराएँ भी आत्मवादी ही हैं। किन्तु वे आत्मा को मुख्यता न दे सके। महावीर ने आत्मा को मुख्यता दी। इसीलिये महावीर स्वतन्त्र और सबसे बड़े आत्मवादी हुए। परमात्मा तो इसी आत्मा का विकसित रूप है। अप्पा सो परमप्पा । आत्मा के स्वर हैं मेरा ईश्वर मेरे अन्दर, मैं ही अपना ईश्वर हूं। कर्ता, धर्ता, हर्ता अपने जग का मैं लीलाधर हूं। शुद्ध, बुद्ध, निष्काम निरंजन कालातीत सनातन हूं। एक रूप हूं सदा-सर्वदा, ना नूतन न पुरातन हूं॥ इसी तरह आत्म-तत्व या पदार्थ तत्व की ध्र वता एवं अध्र वता के सन्दर्भ में एक जटिल दार्शनिक समस्या थी। समस्या यह थी कि कुछ दार्शनिक प्रत्येक पदार्थ को ध्र व मानते थे, तो कुछ दार्शनिक क्षणभंगुर यानी अध्र व । महावीर स्वामी ने हल दिया और बड़ा मनोवैज्ञानिक । सभी मान्यताओं को एक रूप कर दिया। इसमें उनका स्याद्वादी याने अनेकान्तवादी रूप मुखरित हुआ। सब अपने अपने मत पर अड़े थे। फल यह हुआ कि ध्र वता का सिद्धांत अध्र व-सा होने लगा और अध्र वता का सिद्धांत तो अध्र व था ही। भगवान महावीर ने समाधान दिया कि सृष्टि का हर पदार्थ अपने-अपने स्वभाव के अनुसार ही प्रवर्तमान है, किसी और के द्वारा नहीं। कोई भी पदार्थ, फिर चाहे जड़ हो या चेतन अपने स्वभाव से हट नहीं सकता। वे सब उत्पत्ति, स्थिति और विनाश से युक्त है । उत्पादट्ठिदिभंगा – इसी को त्रिपदी कहते हैं। महावीर के दर्शन का महल इन्हीं तीन खंभों पर खड़ा है। मैंने सुना है : एक ग्वाला था। वह गाँव भर की गौओं को चराता और उससे जो आय होती, उससे अपनी आजीविका चलाता था। उसकी गायों में तीन कट्टर विद्वानों की गायें भी चरने जाती थी। वर्ष के अन्त में ग्वाला चराई के पैसे लेने गया। सबसे पहले वेदान्ती पण्डित के पास पहुँचा और पैसे मांगे तो उस वेदान्ती पण्डित ने कहा कि कौन से पैसे और किसके पैसे, जब सारी दुनिया ब्रह्मस्वरूप है। सब उसी के अंश हैं। मैं भी ब्रह्मरूप, तुम भी ब्रह्मरूप, गाय भी ब्रह्मरूप। जब सब For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर समाधान के वातायन में ब्रह्मरूप हैं तो लेना-देना क्या ? ग्वाला भारी अचम्भे में पड़ गया। बड़ी मुसीबत आ गई। गँवारू क्या समझे, मगर श्रम का फल इतना कड़वा हो सकता है, यह उसने सपने में भी नहीं सोचा था । ग्वाला दूसरे पंडित के पास गया वह पण्डित बौद्ध था। ग्वाले ने उससे गाय चराई के पैसे मांगे। बौद्धपण्डित वेदान्ती का यार निकला। उसने कहा, पैसा ? कौन सा पैसा ? जो तुमने गाय चराई थी, वह तो चली गई। क्योंकि हर वस्तु हर क्षण परिवर्तनशील है। इसलिए मेरी गाय हर क्षण नयी है। जिसे तुमने चराया, वह अब कहाँ ? इसलिए पैसा कुछ नहीं मिलेगा। अबकी बार तो उसकी हालत खस्ता हो गई बड़ा बौखला गया वह । गया अपने पुराने पड़ोसी के यहाँ सीधा । वह जैन था। ग्वाले ने सारी आपबीती सुनाई। तो उस जैन ने कहा-घबराने की कोई जरूरत नहीं। अभी तक तो दोनों गायें तुम्हारे ही पास है। तुम उन्हें गायें लौटाना मत । वे दोनों आखिर गायें मांगने आयेंगे तो वेदांती पण्डित को कह देना कि कौन-सी गाय ? जब सब ब्रह्मरूप है तो लेना-देना क्या ? और बौद्ध पण्डित को कह देना कि तुमने जो गाय चराने के लिए दी थी, वह अब कहाँ है, वह तो चली गयी । ये तो नयी है, कोई और है। ग्वाले के मस्तिष्क में बात जच गयी। उसे अच्छा समाधान मिला। उसने वैसा ही किया, जैसा उसे निर्देशन मिला। आखिर दोनों पंडितों ने पैसा देकर अपनी गायें प्राप्त की। महावीर का सिद्धान्त अचूक था और व्यवहारोचित भी। उनका मानना है कि प्रत्येक पदार्थ सत्ता के रूप में ध्रुव है और पर्याय की दृष्टि से हमेशा परिवर्तनशील है। ____महावीर ने एक और जिस समस्या का समाधान किया, वह है रूढ़िवादिता से मुक्ति । उस समय रूढ़िवादिता बड़े चरम उत्कर्ष पर थी। महावीर स्वामी ने थोथी रूढ़िवादिता से मुक्त होने का निर्देश दिया। इसीलिए महावीर का धर्म और महावीर के सारे उपदेश ही रूढ़िवाद के विरोधक थे। महावीर अन्धानुकरण और अन्ध विश्वास पर श्रद्धा नहीं रखते थे। वे कहते हैं कि अन्धविश्वास और अन्धानुकरण नहीं; आत्मानुकरण होना चाहिए, सम्यक् विश्वास होना चाहिये । सत्य का अनुसरण करना चाहिए किन्तु सत्य का सन्धान करके । जिधर भीड़ दिखती है, उधर मत दौड़ो। भीड़ अन्धी है। आंखें व्यक्ति की होती है, भीड़ के नहीं। भीड़ भेड़ों का टोला है। वह अनुकरण-प्रेमी है, फिर चाहे कूए में भी कूदना पड़े। यदि मनुष्य केवल भेड़ चाल की तरह रूढ़िवाद पर चलता रहेगा, वह कभी भी सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकेगा। .. मैंने सुन रखा है कि एक साधक साधना कर रहा था। उसके एक पालतू बिल्ली थी। जब भी साधक साधना करने बैठता तो बिल्ली उसकी गोद में उछल-कूद करने लग जाती। साधक ने सोचा कि इसका क्या उपाय किया जाय ? उसने बिल्ली For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ महावीर समाधान के वातायन में को एक खूटे में बांध दिया। अब साधक को कोई परेशानी नहीं हुई । एक दिन साधना करते-करते ही वह साधक मर गया। साधक का शिष्य उसकी गद्दी पर आसीन हुआ जब वह ध्यान करने बैठता तो उसे अपने गुरु की बात याद आ जाती कि मेरे गुरु जब भी ध्यान करने बैठते थे तो सबसे पहले उस बिल्ली को खूटे में बाँध देते थे। बिल्ली चाहे इधर हो चाहे उधर, लेकिन उसे खोज करके भी वे खूटे से बाँध देते थे। लगता है कि उन्होंने जो साधना की और साधना में जो सिद्धि प्राप्त की, उसमें बिल्ली को खटे से बाँधना जरूरी होगा । अतः उसने भी बिल्ली को खूटे से बांध दी, लेकिन बिल्ली एक दिन मर गयी तो चेले ने दूसरी बिल्ली मंगाई और उसे खूटे से बांध दिया। लोग उनसे आकर पूछते कि आप ध्यान करने बैठते हैं तो बिल्ली को क्यों बाँध देते हैं ? तो वह कहता है कि तुम नहीं समझते यह हमारी साधना की अपनी प्रक्रिया है। तुम जानकर क्या करोगे ? लोग सोचते कि अपने बाप का क्या जाता है, वह जाने, उसका काम। चिकने घड़े पर पानी टिके जो ? दस साल बाद वह भी बिल्ली मर गयी। दूसरी बिल्ली आ गयी। कालान्तर में वह चेला भी मर गया। तीसरा चेला आया गद्दी पर, गद्दीधर । उसने फिर बिल्ली मंगाई। इस भांति यह एक नयी रोति, एक नई परम्परा चल पड़ी। उसके जो दादागुरु -प्रगुरु थे वे बिल्ली को किस उद्देश्य से बांधते थे, इसकी ओर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। बस, एक परम्परा चल पड़ी, वह सदियों-सदियों तक चलती ही रहती है। मूल में क्या है, लोग इसे नहीं खोजते । महावीर स्वामी कहते हैं कि केवल रूढ़िवादिता पर ही थोड़ी चलना है। मूल तक पहुँचो कि बिल्ली आखिर क्यों बांधी गयी ? क्या अब भी जरूरत है उस बिल्ली को बांधने की ? मूल में रही भूल भयंकर शूल है। ___महावीर ने मनुष्य को रूढ़िवादिता से मुक्त किया। उन्होंने ब्राह्मणवाद और यज्ञ-कर्म के प्रति विरोध किया। लेकिन उनका विरोध बड़ा अहिंसक था, हिंसापूर्ण नहीं था। उसकी क्रान्ति शान्ति-भावना से भरी थी। उन्होंने केवल ब्राह्मणवाद और यज्ञ-कर्म का विरोध ही नहीं किया, अपितु सच्चा ब्राह्मण और सच्चा यज्ञ क्या है, इसकी भी अपनी परिभाषाएँ दीं। परिभाषाएँ मूल्यवान और नैतिक थीं। फलतः उसका प्रभाव अन्य दार्शनिक मनीषियों पर भी पड़ा। जैनों के उत्तराध्ययन सूत्र के सत्ताइसवें अध्याय में, और बौद्धों के धम्मपद के ब्राह्मण-वर्ग में और हिन्दुओं के महाभारत के शान्ति पर्व में सच्चा ब्राह्मण कौन होता है, इसकी बहुत विस्तार से चर्चा की गयी है। यज्ञ का भी महावीर भगवान् ने अपने-अपने ढंग से नया अर्थ प्रस्तुत किया। जो यज्ञ केवल बाह्य-पक्ष से जुड़ा था, महावीर ने उसे अध्यात्म से जोड़ा। महावीर स्वामी की मान्यता थी कि जो लोग निरीह मूक पशुओं की बलि देते हैं, वह वास्तव में यज्ञ नहीं, बल्कि हिंसा रूपी दानवी का नृत्य है । पुण्यकृत्य महापापकृत्य बन जाता है। सच्चा यज्ञ तो है अपने भीतर के पशुत्व को ज्ञानाग्नि और ध्यानाग्नि में For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर समाधान के वातायन में आहूत करना । उन्होंने तप को अग्नि कहा । जीवात्मा को अग्नि कुण्ड कहा । मन-वचन काया की प्रवृत्ति को कड़छी कहा और कर्म के काष्ठ को आहूत करने का निर्देश दिया । उन्होंने अपने ढंग से यज्ञ की परिभाषा और प्रक्रिया बतायी और वह यज्ञ कर्म उनका संयम से युक्त था । महावीर की भाषा है - तवो जोई जीवो जोईठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्म एहा संजम जोग सन्ति, होमं हुणामी इसिणं पसत्थं ॥ ऐसा यज्ञ ही शान्तिदायक और ईश्वरत्व की उपलब्धि कराने में सहायक हो सकता है । महावीर की इस बात का गीता और अंगुत्तरनिकाय आदि में भी समर्थक सूत्र हैं । सामाजिक सन्दर्भ में भी महावीर ने समाधान दिये और वे काफी कीमती सिद्ध हुए । उन्होंने आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए परिग्रह को सीमित करने की प्रेरणा दी, अपरिग्रह के सिद्धान्त को खोजा, जिसके परिणामस्वरूप आगे जाकर साम्यवाद पैदा हुआ । सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए उन्होंने अहिंसा जैसे सिद्धान्तों को लागू किया । जिसका परिणाम मनुष्य को शान्ति और निर्भयता प्रदान करना है । मनुष्य को युद्ध से, जीवन-संघर्ष से मुक्ति दिलाने में महावीर स्वामी की बहुत बड़ी देन है, अनुपमेय । वैचारिक विषमता को दूर करने के लिए महावीर ने अनाग्रह और अनेकान्त जैसे सिद्धान्तों की खोज की, ताकि मनुष्य वैचारिक समन्वय स्थापित कर सके, हर सत्य को अपने दृष्टिकोण से देख सके । कारण, मनुष्य की वैचारिक आँखों पर जब तक एकपक्षीयता और आग्रहशीलता की पट्टी बन्धी रहेगी, तब तक उसे किसी भी वस्तुस्वरूप का अच्छी तरह से दर्शन नहीं हो सकता । सभी धर्मों के समन्वय के लिए, वैचारिक समन्वय की स्थापना के लिए उनका अनाग्रह और अनेकान्त बहुत बड़ी देन है । मानसिक विषमता को दूर करने के लिए उन्होंने अनाशक्ति जैसे सिद्धान्तों की पुष्टि की, जिसका पालन कर मनुष्य आनन्द और वीतरागता को उपलब्ध कर सकता है । १५ इस तरह महावीर ने उस युग की एक-एक समस्या को समाधान दिया और जहाँ तक सम्भव हो सका, उन्होंने सभी धर्मों में समन्वय की स्थापना की । इसीलिए महावीर दुनिया के सबसे बड़े सर्वधर्मसमन्वयाचार्य हुए । उन्होंने जो समस्याओं का समाधान खोजा, वह न केवल उनके समय में सार्थक था, अपितु आज भी उसी रूप में सार्थक हो सकता है । युग में कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं आया है । उनके समाधान में कोई अन्तर नहीं आया । उन्होंने जो समाधान खोजे, वे समय के बुलबुलों के साथ क्षणभंगुर होने वाले नहीं, अपितु शाश्वत हैं। हर स्थान और हर समय में वे उपयोगी हैं । यही समाधानों का नैतिक मूल्य है । For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमत्कार : एक भ्रमजाल प्रवचन- समय : ५ जुलाई १९८५ या चमत्कार : एक भ्रमजाल प्रवचन-स्थल : जैन भवन, कलकत्ता For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न है : आपने कहा कि भगवान महावीर चमत्कार को नहीं मानते थे जबकि उनके जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिनसे यह लगता है कि वे चमत्कारों में विश्वास रखते थे। चमत्कार कभी नहीं हो सकता। जहाँ-जहाँ पर चमत्कार की बात है, वहांवहां आत्म प्रवञ्चना है। निश्चित रूप से भगवान महावीर चमत्कार में विश्वास नहीं रखते थे। यदि महावीर चमत्कार में विश्वास रखते हैं, तो उनका जैनधर्म ही गलत साबित हो जायेगा। इसीलिये न केवल भगवान् महावीर ही, अपितु उनके परवर्ती काल में हुए किसी भी जैनाचार्य ने चमत्कार नहीं दिखाया। चमत्कार के आते ही जैनधर्म, हिन्दू धर्म में बदल जायेगा। जैनधर्म और हिन्दू धर्म में यही सबसे बड़ा अन्तर है। चमत्कार का मायाजाल हट जाये तो जैनदार्शनिकों को सारा हिन्दू दर्शन स्वीकार हो जायेगा। हिन्दूधर्म अधिकतर चलता है ईश्वरवादिता पर । कर्ता, धर्ता, हर्ता यानी सर्वेसर्वा ईश्वर है। बह जिसका चाहे, उद्धार कर सकता है और जिसका चाहे उसे उठाकर पतन के गड्ढे में गिरा सकता है। ईश्वर के लिये संसार शतरंज का खेल है। जबकि जैनदर्शन चलता है कर्मसिद्धांत पर । ईश्वर को यह मात्र नैतिक साध्य के रूप में स्वीकार करता है। जैन दर्शन के अनुसार तो कोई किसी का न तो उद्धार कर सकता है और न ही पतन । जैसा करेगा, वैसा भरेगा। कोई स्त्री अपने शरीर पर किरासन तेल डालकर और दियासलाई की आग लगाने का कर्म करती है तो वह जलेगी ही। जलना उस कर्म का फल है। यदि नहीं जलती है तो किरासन तेल सही नहीं था, पानी रहा होगा, तेल की जगह। एक ओर तो हो किरासन तेल और साथ में हो दियासलाई की आग तो वहाँ आग लगेगी ही लगेगी, वहाँ बर्फ नहीं जम सकती। ऐसा चमत्कार नहीं हो सकता। जो लोग ऐसा दिखाते हैं, वह एक तरह का मायाजाल है। यह ठीक वैसे ही है जैसे यह संसार है। यहाँ ईश्वर का पक्ष नहीं होता। स्तरीय दार्शनिक श्रीमद्राजचन्द्र ने कहा है : झेर सुधा समजे नहीं, जीव खाय फल थाय । एम शुभाशुभ कर्मनो, भोक्तापणु जणाय ॥ मतलब यह है कि जिस प्रकार जहर खाने वाला उसके प्रभाव से नहीं बच सकता, उसी प्रकार कर्मों का कर्ता भी उनके प्रभाव से नहीं बच सकता। यह बात जितनी तार्किक है, उतनी ही अनुभवसिद्ध । इसमें भ्रम का स्थान नहीं है। For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमत्नार : एक भ्रमजाल मैंने पढ़ा है एडरशन को। प्रख्यात पाश्चात्य दार्शनिक है वह जिसने चमत्कार को भ्रमजाल कहा है। उसने लगभग कोई बाईस चीजें लिखी हैं, जिन्हें लोग चमत्कार मानते हैं। यदि उन बाईस चीजों में से कोई एक चीज भी आँखों के सामने सम्यक्तया करके दिखा दे। उसे वह एक एक लाख डालर देने को तैयार है और अपनी सारी दार्शनिक मान्यताओं तथा अपने दार्शनिक ग्रन्थों को वह असत्य मंजूर कर लेगा । शायद अभी तक उसे कोई परास्त नहीं कर पाया ।। महावीर ठहरे परम वैज्ञानिक । एडरशन महावीर के वक्तव्यों से प्रभावित हुआ होगा। महावीर सुनी सुनायी बातों पर विश्वास नहीं करते । वेद इसीलिये तो महावीर स्वामी के मस्तिष्क में स्थान प्राप्त नहीं कर पाये। वेद श्रुति है। श्रुति याने श्रवणित-सुना हुआ। सुनते तो बहुत हैं । लोगों को भी सुनने-सुनाने में बड़ा मजा आता है। किन्तु देखना दुर्लभ है। श्रोता और वक्ता दोनों नदी के मध्य है और द्रष्टा किनारे पर। सुनना उतना जरूरी नहीं है जितना देखना। कानों सुनी सो कच्ची, आँखों देखी सो सच्ची। इसीलिए महावीर ने श्रुति के स्थान पर दृष्टि पर ज्यादा जोर दिया था। आँखों से देखो यथार्थता को। सुनी-सुनायी बातें उतनी विश्वसनीय नहीं होती, जितनी आँखों देखी होती है। सुनी-सुनायी बातों में चमत्कार की बातें भी आ सकती हैं, किन्तु आँखों देखी चीजों में चमत्कार की संभावना भी नहीं होती। अहले दानिश आम हैं अहले-नजर कमयाब हैं द्रष्टा का ज्ञान सम्यक् होता है। शास्त्रों के ज्ञाता बहुत हैं। पण्डित भरे हैं दुनिया में, मगर वे विद्वान तथाकथित हैं। किन्तु शुद्ध आँख वाले, सम्यक् द्रष्टा विरले ही हैं। महावीर उन विरले लोगों में पहले हैं। तू कहता कागद की लिखी, मैं कहता आंखन की देखी-कबीर का यह वक्तव्य बहुत सही है। परम द्रष्टा ही ऐसी बात कह सकते हैं। इसीलिए महावीर ने राम तथा कृष्ण की बातों को नहीं कहा। बुद्ध ने महावीर की बातों का कथन नहीं किया। ईशा ने बुद्ध के वक्तव्यों को प्रगट नहीं किया। कारण हर व्यक्ति के अपने अपने अनुभव होते हैं। अनुभवों की अभिव्यक्ति में सब स्वतन्त्र हैं। राम की अपनी अनुभूति थी, महावीर को अपनी, बुद्ध की अपनी, शंकर और तिलक की अपनी। अनुभव में डूबा व्यक्ति कभी दूसरे के अनुभवों को नहीं कहेगा। हर द्रष्टा के अपने दृष्टिकोण होते हैं। उसके लिए दूसरों की बातें सुनी सुनायी बातें हैं । स्वानुभूत बातें नहीं हैं। महावीर को जो जचा, वह उन्होंने कहा । महावीर विज्ञान के प्रणेता हैं। वे आँखों देखी पर विश्वास करते हैं और वही कहते हैं। इसीलिए महावीर की बातों को विज्ञान इनकार नहीं करता। विज्ञान चमत्कार For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमत्कार : एक भ्रमजाल को स्वीकार नहीं करता और महावीर भी। विज्ञान और महावीर एक ही तराजू के दो पलड़े हैं। महावीर ने अपने युग में जो क्रान्ति मचाई, वह यह थी कि उन्होंने चमत्कारों का विरोध किया। महावीर ने जितनी भी क्रांति मचाई, वह सब चमत्कार को लेकर ही। उनकी अभिलाषा थी कि लोगों की अन्धनिष्ठा दूर हो और वे सत्य के आलोक में प्रामाणिक जीवन बीता सके। उस समय चमत्कार के वशीभूत होकर ही यज्ञ होते थे, बलि दी जाती थी, क्रियाकाण्ड होते थे, अकर्मण्यता पनपी, पुरुषार्थ का पतन हुआ- सबके सब चमत्कार के वशीभूत होकर ही। महावीर स्वामी की दृष्टि में चमत्कार कोई चीज नहीं है। उन्होंने चमत्कार को बिल्कुल इन्कार कर दिया। दुनिया में जितने भी महापुरुष हुए कोई भी महापुरुष चमत्कार नहीं दिखा पाये। किसी ने भी कभी चमत्कार नहीं दिखाया आज तक, चाहे हम महावीर को लें. चाहे बुद्ध को लें, चाहे ईसा को लें, सुकरात को लें, पायथागोरस को लें। किसी ने चमत्कार नहीं दिखाया । रामकृष्णपरमहंस, विवेकानन्द, महर्षि आनन्द योगी, रजनीश जैसे भी चमत्कार न दिखा पाये। सुकरात को जहर का प्याला पिलाया गया, लेकिन वे उसे अमृत में न बदल पाये। ईसा को जिन्दा शूली पर चढ़ा दिया गया। ईसा जैसे महापुरुष को शूली पर चढ़ा दिया जाय, उससे बड़ा चमत्कार और क्या हो सकता है ? महावीर के कानों में कीलें ठोकी गयीं। कितना अत्याचार किया था लोगों ने महावीर पर। मारा, पीटा, घसीटा, गालियाँ दी उन्हें। स्वामी रामकृष्ण परमहंस मरते दम तक पीड़ित रहे। कैन्सर हो गया, लेकिन वे भी चमत्कार न दिखा पाये। साध्वी विचक्षणश्री को भी वर्षों कैन्सर रहा बड़ी महत्त्वपूर्ण और समाधिस्थ स्त्री थी वह. राबिया वसी जैसी ही थी मगर भोगना पड़ा। पुराना युग तो चमत्कारों का ही युग था। इसलिये जहाँ भी गुंजाइश लगती, लोग चमत्कार को जोड़ देते, और फिर बातों का बतंगड़-तिल का ताड़ बना डालते। यदि चमत्कार पहले होते तो आज भी होने चाहिए। और, बड़े खलेआमसार्वजनिक तथा सार्वभौम होने चाहिये। ताकि एडरशन जैसे बौद्धिकवादी लोगों को स्पष्टता मिल जाये। ___ चमत्कार का मतलब है जो असम्भव है, उसे सम्भव करना। असम्भव को सम्भव करना ही चमत्कार है। प्रगतिशील दुनिया में ऐसी कोई भी चीज नहीं है, तथ्य नहीं है, जो असम्भव हो । मैक्समूलर बड़ा गजब का व्यक्ति था। सैकड़ों महान ग्रन्थ उसने अकेले रचे। उसने कहा कि हमें शब्दकोश से 'इम्पोशिबल' शब्द को हटा देना चाहिये । क्योंकि कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो 'इम्पोसिबल' हो । 'एव्रीथिंग इज पोसिबल'-सब सम्भव है, असम्भव कुछ भी नहीं है। असम्भव शब्द को रखना For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ चमत्कार : एक भ्रमजाल मनुष्य की कायरता और कमजोरी को प्रगट करना है। समय आने पर सब कुछ सम्भव है और जहाँ सब कुछ सम्भव है, वहाँ चमत्कार नहीं है। आज विज्ञान का युग है। यहाँ अब बहरे भी सुनने लगते हैं, गूगा भी बोलने लगता है और पंगु चलने लगता है। विज्ञान का प्रत्येक आविष्कार नया आश्चर्य है। आप लोग तो उसे भी नया चमत्कार मानेंगे। ये वायुयान, बिजली वायरलेस, टेलीविजन, टेलीस्कोप, मशीन्स, हाइड्रोजन बम, टैंक, टारपीडो-इनकी तो शायद हमारे पूर्वजों को कल्पना भी नहीं होगी। उनके लिए तो ये सब महाअसम्भव थी। मगर आज कोई कह सकता है कि ये सब सम्भव नहीं है ? आँखों से देखे हुए को भला कौन अस्वीकार कर सकता है.? उचित समय और उचित श्रम ही नया आविष्कार करता है । इस विज्ञान के सामने चमत्कार की बातें अमान्य हैं । महाभारत में महायुद्ध हुआ। कृष्ण को भगवान् का अवतार माना जाता है। कृष्ण जब ईश्वर के अवतार थे, वे चाहते तो अकेले ही सारे कौरवों को नष्ट कर सकते थे। उनके पास सघन शक्ति और ताकत थी, लेकिन उन्होंने यह चमत्कार नहीं किया। यदि वे ऐसा कर देते तो धर्मनीति और धर्मयुद्ध कोड़ी की कीमत के भी नहीं रहते। अर्जुन युद्ध के मैदान से खिसकने लग गया, किन्तु चमत्कार न दिखा सके कृष्ण । यदि कृष्ण चमत्कार दिखा देते तो गीता का एक श्लोक भी नहीं रच पाता। गीता जैसे अमूल्य ग्रन्थ के जन्म के लिए यह जरूरी था कि कृष्ण कोई चमत्कार न दिखाये। कृष्ण ने यह कार्य महत्त्वपूर्ण किया कि युद्धक्षेत्र से पीठ फेरते अर्जुन को पीठ न फेरने दी और इस तरह क्षत्रिय धर्म और वीरत्वधर्म को कलंकित होने से बचा दिया। ____ यदि कोई व्यक्ति चमत्कार दिखाता है तो इससे सदाचार-सद्विचार को बहुत बड़ा धक्का लगेगा। आचार-विचार को इतना धक्का लगेगा कि साधना-दर्शन समाप्त हो जाएगा। भाग्य और पुरुषार्थ ये दोनों ही नहीं बचेंगे, यदि चमत्कार हो जाये । चमत्कार-शास्त्र कर्मशास्त्र के अस्तित्व को क्षति पहुँचायेगा, जबकि कर्मशास्त्र सबको मान्य है। हर घट-घट में पल-पल में कर्म की गति का दर्शन होता है। जो नियत है, उसे भूत, वर्तमान या भविष्य में अनियत नहीं किया जा सकता–ण एवं भूअं वा, भव्वं वा, भविस्सति वा। इसलिए चमत्कार कभी नहीं होता। भगवान् महावीर चमत्कार को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो कि दिखा दे कि चमत्कार है। जहाँ-जहाँ चमत्कार है, वहाँ-वहाँ पक्षपात है। नियमों और सिद्धान्तों में भी जब पक्षपात होता है, तो वे नियम और सिद्धान्त किसी एक पक्ष से ही सम्बन्धित होते हैं, सार्वभौम नहीं हैं वे। सिद्धान्त शाश्वत होते हैं, चमत्कार शाश्वतता को क्षणभंगुर करने वाला है। शास्त्र कालप्रभाव से तिरोहित हो सकते हैं, किन्तु सिद्धान्त अमिट और अनन्त हुआ करते हैं। इसलिए चमत्कारों का अपवाद सिद्धान्त-विरुद्ध है। For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमत्कार : एक भ्रमजाल जो भी नियम बनते हैं वे निर्वैयक्तिक और सार्वभौम होते हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि जहर को पीनेवाला व्यक्ति न मरे या उससे प्रभावित न हो। ऐसा नहीं हो सकता कि बबूल का बीज बोनेवाला आम खा सके । जो सिद्धान्त है वे सब के लिए एक बराबर हैं। सिद्धान्त मानी सिद्धि का फार्मूला। सिद्धान्त में नगद चाहिये, उधार नहीं। सिद्धान्तों के सामने चमत्कार का अपवाद नहीं हो सकता। मैंने जिन्दगी भर पाप किये हैं और अन्त में जाकर परमात्मा की शरण ले ली और कह दिया कि परमात्मा मुझे उबार दे। लेकिन परमात्मा उबार नहीं सकता। यह चमत्कार कदापि नहीं हो सकता कि परमात्मा शरणभूत पापी को उबार दे। यदि परमात्मा शरणभूत को उबारने का चमत्कार दिखा देंगे, तो किये हुए पाप को कौन भोगेगा? परमात्मा की शरण लेना यह हमारी सद्भावना है मगर अपनी नौका को हमें स्वयं ही खेना पड़ेगा, तभी परमात्म-तट प्राप्त हो पायेगा। अगर आदमी स्वयं पापों से छुटकारा पाने का प्रयास न करके मात्र परमात्मा भगवान से मुक्ति की प्रार्थना करना स्वयं को हीन, दीन और परापेक्षी बनाना है। बाइबिल में बताया है कि वह व्यक्ति स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर पायेगा, जो ईसा-ईसा पुकारता है बल्कि वह आदमी स्वर्ग के राज्य में प्रविष्ट हो पायेगा, जो परमपिता की इच्छा के अनुसार कार्य करता है। वस्तुतः सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दृष्टि और सम्यक् आचार ही परमात्मा तक पहुंचने का तरीका है, ऐसा कुन्दकुन्द ने नियमसार में लिखा है। परमात्मा न तो किसी को संसार से पार कर सकते हैं और न किसी प्रकार की उपलब्धि में सहयोगी है। यदि हमलोग ऐसे उद्धारक में निष्ठा करेंगे जो हमारी प्रार्थना से हमें पाप से उबार ले तो इससे सदाचार की महिमा को बड़ा भारी धक्का लगेगा। सब लोग पाप ही पाप करेंगे। पुण्य कोई नहीं करेगा। जब इच्छा हो चले जाओ परमात्मा के पास, परमात्मा पार लगा देगा। फिर क्यों न पाप करें? फिर तो चार्वाकियों की बात आ जायेगी कि क्या है पाप और पुण्य ? खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ-ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत। इस तरह तो नास्तिकता चरम सीमा तक पहुंच जाएगी। कुछ भी नहीं बचेगा इस चमत्कार के साथ । चमत्कारों का बवण्डर सब धूलिधूसरित कर देगा। इसलिए चमत्कार से हमको दूर होना है। इसीलिए भगवान् महावीर चमत्कार को नहीं मानते थे। और, उनके जीवन में एक भी ऐसा प्रसंग नहीं है, जिससे यह साबित हो सके कि महावीर चमत्कार में विश्वास रखते थे। चमत्कार को वणिक लोग मान सकते हैं, क्षत्रिय लोग नहीं। वणिक तो हर सौदा ही ऐसा करता है, जो असम्भव हो। जिसमें लागत कम; उपलब्धि अधिक हो। खरीद तो उधार और विक्रय नगद। वह अपने जीवन में यही चमत्कार मानता है। इसमें उसका बनियापन है, लेकिन महावीर क्षत्रिय थे—महावीर से पहले हुए तेवीस तीर्थ कर-ऋषभ से पार्श्व तक-वे भी क्षत्रिय थे। यही तो खास बात है। जैनियों For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमत्कार : एक भ्रमजाल के सारे तीर्थ कर, धर्म-प्रवर्तक क्षत्रिय और आज के सारे जैनी वणिक । तीर्थ कर चमत्कार के विरुद्ध आन्दोलन करता है और वणिक चमत्कारों में विश्वास । आज का जैनी चमत्कारों का अनुगमन मात्र है। जैनों में स्थानकवासी और तेरहपन्थी—ये लोग तो चमत्कार के फन्दे में सबसे ज्यादा जकड़े हैं। ये महावीर की मूर्ति को नहीं पूजेंगे, कहेंगे यह पत्थर है-घर सजाने का खिलौना। किन्तु यह कितने मजे की बात है कि ये लोग उन देवी-देवताओं के मन्दिर में दिन में अनेक बार जाकर नाक रगड़ेंगे, जो काफी चमत्कारिक माने जाते हैं। वे देवी-देवता फिर चाहे सम्यक्त्वधारी हो चाहे मिथ्यात्वी-इससे उनको कोई प्रयोजन नहीं है। फल यह हुआ कि वे न तो पूरे मूर्तिपूजक जैन हुए और न अमूर्तिपूजक। विचारे धोबी के गधे की हालत हो गई । धोबी का गधा न घर का न घाट का । __ ये लोग उसी धर्म को, उसी सन्त को, उसी भगवान को आदर देना चाहते हैं जो चमत्कारों से भरा है। मगर जिन व्यक्तियों के पास पराक्रम है, पुरुषार्थ है वे व्यक्ति चमत्कार को कभी नहीं मानेगे। जैनों के तीर्थ कर पुरुषार्थ भावना से ओतप्रोत होते हैं। हर असम्भव को सम्भव करने वाला ही सत्यतः तीर्थकर है। इसीलिए वे सबसे पहले इन्सान के रूप में ईश्वर बनते हैं, कैवल्य और सर्वज्ञता हासिल करते हैं ताकि संसार का प्रथम असम्भव कार्य सम्भव बन जाये और लोगों का इस बात से विश्वास हट जाये कि दुनिया में कोई चीज असम्भव भी है। जिन्हें हम तीर्थ कर-अतिशय कहते हैं, वे अतिशय कोई चमत्कारिक आश्चर्य नहीं है। अनेक आधुनिक विद्वान उन्हें नहीं मानते। कहते हैं कि ये सब ढकोशला है परन्तु मैं इन्हें मानता हूं। जैसे तीर्थ कर मनुष्य होते हैं और उनके साथ जो अतिशय जोड़ते हैं, वे मानवमात्र में देखे जा सकते हैं। उदाहरणतः मैं आभामण्डल-प्रभामण्डल को लेता हूं। हम देखते हैं चित्रों में कि राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, शंकराचार्य या अन्य किसी महापुरुषों के आस-पास आभामण्डल चित्रित है । बहुत से सन्तों के चित्रों में भी प्रभामण्डल की रेखाएं दिखाई जाती हैं। सन्त हरिकेशबल चण्डाल थे, सन्त कबीर जुलाहा थे, सन्त गोरा कुम्हकार थे, रैदास जूता-चप्पल बनाते थे, फिर भी प्रभामण्डल दिखाते हैं हम उनके आस-पास। अनेक लोग या तो इसे कल्पना मानते हैं, या फिर कोई महान् चमत्कार। किन्तु मैं इसे न तो कल्पना की हवाई उड़ान समझता हूँ और न कोई चमत्कार । आप लोग जब सोकर उठे प्रातःकाल तब आँख खोलते ही इस प्रभामंडल की झलक देख सकते हैं। यदि उसका दर्शन करने का लक्ष्य है तो दर्शन हो सकता है। सूर्य की चकाचौंध में वह प्रभामण्डल दिख नहीं पाता। आज के विज्ञान के अनुसार यह प्रभामण्डल प्रत्येक व्यक्ति के आसपास रहता है। वैज्ञानिक तो कहते हैं कि यह प्रभामण्डल पशुओं और पेड़पौधे के पास भी होता है। वैज्ञानिक बताते हैं कि जीव तथा अजीव, चेतन तथा अचेतन को सिद्ध करनेवाला यह प्रभा या For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमत्कार : एक भ्रमजाल आभामण्डल ही है | जिसके आस-पास प्रभामण्डल नहीं है, वह शव है, मृतक है । हाँ ! यह सम्भव है कि किसी व्यक्ति का प्रभामण्डल विस्तृत हो और किसी का संकुचित; किसी का दृश्य और किसी का अदृश्य । वस्तुतः व्यक्ति जितना अधिक जीवन्त होता है, उसका प्रभामण्डल उतना ही अधिक विस्तृत और स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । अब तो खैर इस प्रभामण्डल को हर आदमी देख सकता है । सन् १९३० में ऐसा रासायनिक प्रक्रियामूलक यन्त्र तैयार किया गया था, जिसके द्वारा हर किसीके प्रभामण्डल का — आभामण्डल का दर्शन किया जा सकता है । हम जो अब विज्ञान केवल - ज्ञान आदि की चर्चा करते हैं, वह वास्तव में इसी प्रभामण्डल की विस्तृतता है । जब किसी जीवन्त साधक को सुदूर की वस्तु को देखना या जानना होता है तो वह अपने इसी प्रभामण्डल को साधन बनाता है । वह अपने प्रभामण्डल की किरणों को एकत्र कर केन्द्रीभूत करता है । और वे दूरगामी किरणें उसे मनोवांछित तत्त्व का स्पष्ट अवलोकन करा देती है । हम दादा गुरुदेव को चमत्कारिक पुरुष कहते हैं, लेकिन दादा गुरुदेव ने कभी चमत्कार नहीं दिखाया । यदि दादा गुरुदेव को हम चमत्कारिक मानें तो उनका साधुत्व खत्म हो जायेगा । उनका आचार्यत्व समाप्त हो जायेगा । वे साधु नहीं, आचार्य नहीं, एक मदारी हो जाएँगे । ऐसे सन्त व्यक्ति को जैनागमों में परदर्शनी कहा है, वह जिनदर्शनी नहीं है । वह जैनत्व और साधुत्व — दोनों से च्युत है । इसलिए चमत्कार न तो स्वस्थ साधना है, न कोई शुद्ध आदर्श है । यह वैज्ञानिक भूमिका की बातें नहीं है । आज के वैज्ञानिक और प्रगतिशील युग में यह अन्धविश्वास मात्र है । इसमें आत्म-विश्वास का नामोनिशान नहीं है । आज भी लोग टोना-टोटका, जन्तर-मन्तर के फेर में पड़े रहते हैं । और, जो इनके जाल में एक बार फंस गया, तो वह मुक्त होने वाला नहीं । शायद हो जाये' – इसी आशंका और संभावना के भंवर में वह डूबता रहता है । वह चमत्कारों की माया में दिग्भ्रमित हो जाता है । पतंजलि की भाषा में वह व्यक्ति न सुषुप्त है, न जागृत - अपितु स्वप्नलोक की यात्रा पर है । सावचेत वह तब होता है जब उसे भयानक हानि होती है या निरर्थकता का बोध होता है । टोने-टोटके और जन्तर-मन्तर की बातें मैं बहुत बार सुनता- पढ़ता रहता हूं । जहाँ संसार आज कहाँ का कहाँ पहुँच रहा है, वहाँ कुछ लोग टोने-टोटकों के चमत्कार पाश में जकड़े वहीं के वहीं है, जहाँ वे सैकड़ों वर्ष पहले थे । लोगों द्वारा इन टोने - टोटकों में फँसकर अपनी तबीयत ठीक करने के लिए पशुओं की बलि देना, अधिक रुपया पाने की लालसा से घर का रुपया खो बैठना, माँ बनने के लिए बांझ द्वारा दूसरे के बच्चे की हत्या कर देना, अपने पति को वश में करने के लिए जन्तर-मन्तर करनाये सब कोरी अन्धनिष्ठा की बातें हैं । इनमें कोई सार नहीं है । गहराई से देखें तो For Personal & Private Use Only २५ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ असारता ही नजर आएगी । ठीक वैसे ही, जैसे प्याज के छिलके उतारते जाओ, उतारते जाओ अन्त में सार कुछ भी हाथ नहीं लगता । रोगनिवारण के लिए डाक्टर से चिकित्सा कराओ, दवाई लो । ज्यादा रुपया कमाने के लिए ज्यादा श्रम करो । बांझ स्त्री को भला कभी बेटा होता है ? पति को वश में करना है तो अपने सद्व्यवहारों के द्वारा वश में करो । टोने-टोटकों से ये चमत्कार शक्य नहीं है । चमत्कार : एक भ्रमजाल आप रोजाना पढ़ते होंगे अखबारों में ताबीज और अंगूठियों के बारे में । बड़े चक्कर में फंसाते हैं वे लोगों को । वे अखबारों में छपाते हैं कि यह अंगुठी सिद्धिदायनी है, इसे जो पहनेगा, उसे सात दिन के अन्दर नौकरी मिल जाएगी । इसका मूल्य मात्र पच्चीस रुपये हैं। लोग खरीद लेते हैं । सात दिन क्या, सात सप्ताह में भी जब उसे नौकरी नहीं मिलती तो वह पछताता है कि पच्चीस रुपये भी बेकार गए । नौकरी मिलने के स्थान पर ओझा - पंडित को उल्टे पच्चीस रुपये नौकरी के घर से देने पड़े । यानी बाजार आलू खरीदने गये । आलू-वालू तो कुछ मिला नहीं पीछे भालू और लग गया । जान जोखिम में, लेने के देने पड़ गये । मैंने सुना है कि एक छात्र ने एक अंगूठी खरीदी, जिसका नाम था महाफल - दायिनी । विक्रेता पंडित ने कहा कि इस अंगूठी का यह चमत्कार है कि इसे जो भी पहनेगा, वह अपनी परीक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होगा । ली और पाठ्यक्रम की पुस्तकों को पढ़ना बन्द कर दिया । था कि वह इस अंगूठी के महाप्रभाव से प्रथम श्रेणी प्राप्त पढ़ने के लिए कहते तो वह कहता कि आप चिन्ता न करें । मैं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होऊँगा । परीक्षाएं हुई । परीक्षाफल घोषित हुआ । बिना पढ़नेवाला क्या खाक पास होगा । वह प्रथमश्रेणी से उत्तीर्ण होने के बजाय प्रथमश्रेणी से अनुत्तीर्ण हुआ । अभिभावकों ने उसे भारी उपालम्भ दिया । आखिर उसने महाफलदायिनी अंगूठी वाली सारी बात बतायी और कहा कि अब भविष्य में मैं इन सब पर कभी विश्वास न करूंगा। यह महाफलदायिनी अंगूठी का ही महाफल है कि मैं अनुत्तीर्ण हुआ, फेल हुआ और मेरा एक वर्ष व्यर्थ ही चला गया । उत्तीर्ण तो पढ़ने-लिखने से होता है न कि इन टोने-टोटकों - जन्तर-मन्तर से । यह विद्या वास्तव में ठगविद्या है । दूसरों को मूर्ख भी बना दें और अपना काम भी हो जाय - एक पंथ दो काज होते हैं इस विद्या से । यह उनकी एक तरह की व्यावसायिक पद्धति है । देखते नहीं हैं आप ! कुछेक लोग हवड़ा पुल या विक्टोरिया में बैठ जाते हैं और भी बड़े-बड़े मार्गों पर बैठते हैं तोता या किसी पक्षी को एक पिंजरे में बन्द कर लेते हैं और मात्र अठन्नी में आपके भविष्य को बताने का सर्वज्ञता और भविष्यवाणियाँ जब अठन्नी में उपलब्ध हो महान् चमत्कार दिखाते हैं । जाये तो धर्म, कर्म, साधना – ये सब कोड़ी की कीमत के हो जाएँगे । बिचारे जो ऐसा For Personal & Private Use Only छात्र ने अंगूठी खरीद क्योंकि उसे बताया गया करेगा । घर वाले उससे Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमत्कार : एक भ्रमजाल कार्य करते हैं, भविष्यवाणियाँ करते हैं उन्हें स्वयं का भविष्य भी पता नहीं है । सिद्धिदायिनी मनवांछित फलदायिनी, अमृतदायिनी अंगूठियाँ सिद्ध करके बेचनेवाले खुद महागरीब हैं । वे अंगुठियाँ उनकी अंगूठियों को बेचने की इच्छा को पूरा नहीं कर पातीं, इसीलिए तो ये लोग अखबारों में, पत्रिकाओं में विज्ञापन छपाते हैं । जो अंगूठी स्वश्रेयस्कर सिद्ध नहीं हुई वह जनश्रेयस्कर कभी नहीं हो सकती । टोना-टोटका - अन्तर-मन्तर - चमत्कार इन सब को वही व्यक्ति पसन्द करेगा, जो बिना साधना के सिद्धि चाहता है, बिना प्रयास के फल की कामना करता है, खाने का श्रम किये बिना पेट भरना चाहता है । लोग फल को महत्ता देते हैं, कर्म की उपेक्षा कर देते हैं । गीता में तो कर्मशीलता पर बहुत प्रकाश डाला गया है । गीता भवन है तो कर्मशीलता का उपदेश उस भवन की नींव है । निष्कर्मशीलता तो परित्याज्य है । हम जब निरुपाय बैठे हैं, कौन हरे पथ की बाधाएँ ? २७ भीतर से परतन्त्र हुए जब, धूमिल हुई सकल आशाएं । हम जादू देखने के लिए जादूघर में जाते हैं, बहुत बार जाते हैं । यही सुनते हैं कि वह जादू करेगा, एक आश्चर्य होगा, लेकिन जादूगर अपना जादू शुरु करने से पहले यह कह देता है कि यहाँ जादू नहीं, केवल हाथ की सफाई है । कहता है कि मैं सिर्फ हाथ की सफाई, हाथ की कला दिखाता हूं । नहीं है । वह स्वयं यह जादू कुछ भी सामने और समीपता अहमदाबाद में मैं जादूगर के० लाल के यहाँ गया था, गौचरी के समय । दो भाई हैं वे । दोनों जाने-माने और प्रसिद्ध जादूगर हैं - अन्तर्राष्ट्रीय | हमसे वे अच्छा स्नेह रखते थे । मैंने एक दिन उन्हें कहा कि आजे तमे अमने पण कोईक जादू जोवावो, पण एक शतं छे के आंखों नी सामे अने नजीक थी । यानी आज आप हमें भी कोई जादू दिखायें, लेकिन एक शर्त साथ में है कि आँखों के से दिखायें । उन्होंने उस समय बात टाल दी । मैंने सोचा कि आज उनका मूड नहीं होगा । अगले सप्ताह मैंने फिर उनसे अपनी बात कही । उस दिन के० लाल भाई नहीं थे, विदेश गये हुए थे, जादू के करिश्मे दिखाने । उनके भाई थे । उन्होंने मुझे कहा, 'हूं तमारी सामे असत्य न बोलीश । खरेखर, जादू माँ कोई मन्त्र शक्ति के आवी कोई वस्तु नथी । ए तो फक्त हाथ नी सफाई छे अने हाथ नी सफाई नजीक थी केम जोवाई सकाय । तो उनका कहना स्पष्ट था कि जादू में कोई मन्त्र - शक्ति या ऐसी कोई वस्तु नहीं है । यह तो केवल हाथ की सफाई है, हाथ की करामात है और वह मंच पर सम्भव हैं, निकटता से नहीं । For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ चमत्कार : एक भ्रमजाल के. लाल को छोड़ें. सभी जादूगरों ने इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जादू एक सतत अभ्यास है। फुर्तीलापन, मस्तिष्क की प्रखरता और हाथ की सफाई—यही जादू के प्राण हैं। 'कादम्बिनी' का नया 'जादू विशेषांक' तो आप लोगों ने पढ़ा-देखा ही होगा। सभी महान जादूगरों के विषय में उसमें सूचनाएं दी गई हैं और उनके अनुभव उसमें संकलित हैं। डण्डे को फूल में बदलना, हाथ से राख निकालना, टोपी में से कबूत्तर उड़ाना, गला काटकर वापस जिन्दा कर देना. पुरुष को स्त्री बना देना-इन सबको जादू या चमत्कार मानें ऐसी कोई चीज नहीं है। केवल हाथ की सफाई है भ्रमजाल की रचना है, जो जादू मैं दिखाता हूं वह जादू तुम भी कर सकते हो। मात्र अभ्यास की जरूरत है जो जादू हर व्यक्ति कर सकता है वह चमत्कार नहीं है। असम्भव कार्य तो वहाँ है जिसे कोई अकेला कर सकता है. उसके अलावा और कोई नहीं कर सकता । तब तो कह सकते हैं कि चमत्कार है अन्यथा चमत्कार नहीं है। चमत्कार तो वह हैं कि जहाँ पचास डिग्री पर पानी भाप बन जाये, चमत्कार तो वहाँ है जहाँ एक सौ पचास डिग्री पर पानी भाप न बने लेकिन महावीर स्वामी तो बिलकूल अडिग हैं। वे कहते हैं कि पचास डिग्री पर पानी कभी भाप नहीं होगा, और एक सौ पचास डिग्री पर पानी बचेगा ही नहीं। सौ डिग्री पर पानी भाप बन जायेगा महावीर का तो फार्मूला यही है कि सौ डिग्री पर पानी भाप बनता है। वैज्ञानिक बुद्धि का व्यक्ति महावीर से बिलकुल सहमत है। वह चमत्कार को कभी स्वीकार नहीं करेगा। महावीर स्वामी के जीवन में एक भी ऐसा प्रसंग नहीं है जिससे यह साबित हो सके कि भगवान महावीर चमत्कार में विश्वास रखते हैं। उन्होंने कभी भी चमत्कार नहीं दिखाया। वे परम ज्ञान के धनी थे फिर भी कभी चमत्कार दिखाया हो ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ। ____महावीर जन्म से पहले एक ब्राह्मणी की कुक्षी में थे। महावीर तीर्थकर हैं। तीर्थ कर कभी चमत्कार को स्वीकार नहीं करते। तो महावीर ब्राह्मणी के कुक्षी से महावीर का जन्म नहीं हो सकता. उसके लिए क्षत्रिय का खून चाहिए। युद्ध के मैदान में यदि कोई व्यक्ति चमत्कार दिखाता भी है तो क्षत्रिय चमत्कार को नहीं देखता, वह तो उसे भ्रमजाल समझता है और युद्ध करता ही चला जाता है। इस चमत्कार के विरोध के लिए ही दुनिया का पहला ऑपरेशन हुआ। महावीर के पच्चीस सौ वर्ष बाद जो गर्भ-परिवर्तन की बात प्रगट हुई, उसे महावीर के जीवन-यज्ञ में सहजतः देखी जा सकती है। गर्भ-परिवर्तन के विज्ञान का सूत्रपात महावीर से हुआ और ब्राह्मणी का गर्भ क्षत्रियाणी की कुक्षि में आया बहुत से लोग महावीर स्वामी के गर्भ-स्थानान्तरण को चमत्कार मानते हैं। लेकिन यह चमत्कार नहीं है। आज तो हर डाक्टर यह चमत्कार दिखा सकता है । हर विशिष्ट चिकित्सक में यह चमत्कार दिखाने की शक्ति है। तब हम कैसे माने कि यह कोई बहुत बड़ा चमत्कार है। For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमत्कार : एक भ्रमजाल जब महावीर सात-आठ वर्ष के हो गये, एक दिन खेल रहे थे उन्होंने एक सर्प को आते देखकर उसे पकड़ लिया और उछालकर दूर फेंक दिया। लोगों ने सोचा यह चमत्कार है। लेकिन यह चमत्कार नहीं, महावीर स्वामी की निडरता का प्रतीक है साधना के लिये महाबीरत्व को पाने के लिये साहस की जरुरत है, निडरता की जरूरत है। इसे चमत्कार मानना भारी भूल है। साहसी निडर और महावीर व्यक्ति ही साधना कर सकते हैं—यह तो इस बात का परिचायक है। इन्द्र ने ब्राह्मण का रूप धारण कर महावीर स्वामी से पाठशाला में कई प्रश्न पूछे। महावीर के गुरु स्वयं आश्चर्यचकित हो रहे थे कि छोटा सा बच्चा कैसी-कैसी बातें बता रहा है, लेकिन इन्द्र को कोई आश्चर्य ही नहीं था। क्योंकि वह तो महावीर की ज्ञान-शक्ति के बारे में जानता था । इन्द्र ने तो सारी बात खुलासा कर दी। लोगों को यह चमत्कार लग रहा था तो इन्द्र ने बताया यह चमत्कार नहीं महावीर का निजी ज्ञान है। ये ज्ञान के धनी हैं। महावीर तीस वर्ष की उम्र में साधु बन गये थे। चलते हुए जब आगे बढ़े साधना करने के लिये तो एक ग्वाले ने उनके कानों में कीलें ठोकी. लेकिन महावीर कोई चमत्कार न दिखा सके। उनके पास बहुत ज्ञान था, बहुत शक्ति थी, तीर्थकर की शक्ति थी किन्तु फिर भी वे चमत्कार न दिखा सके। यह घटना तो महावीर को अन्तर-ऊर्जा के विकसित करने में सहायक बनी। सहनशीलता और सहिष्णुता का यह अद्वितीय प्रसंग है, विश्व-दर्शन में । चण्डकौशिक वाली घटना में कहते हैं हम कि यह बहुत बड़ा चमत्कार है, लेकिन मैं इसे चमत्कार नहीं मानता। चण्डकौशिक भगवान महावीर को एक बार दो बार, तीन बार डॅसता है। चण्डकौशिक जिसकी फुफकार से सारा जंगल नष्ट-भ्रष्ट हो जाता था, उसकी तीन-तीन फुफकारों से भी महावीर को कुछ भी नहीं हुआ उल्टे महावीर के अंगूठे से खून की जगह दूध बहा। आप इसे आश्चर्य मानेंगे, चमत्कार मानेंगे। लेकिन मैं इसे न तो आश्चर्य मानता हूं और न ही चमत्कार। दिल्ली की बात है। एक बार एक डा. मेरे पास आये, डा० जैन ही थे। उन्होंने मुझे कहा कि भगवान महावीर के जीवन में चण्डकौशिक और दूध बहने की जो घटना है, क्या आप उसमें विश्वास रखते हैं ? मैंने कहा बिल्कुल रखता हूं। उन्होंने कहा कि यह कैसे हो सकता है ? आप मनुष्य के शरीर से कही से भी दूध निकालकर बता दीजिये, तब हम मानेंगे कि यह सत्य है। हम मान लेंगे कि चण्डकौशिक ने डंसा था और महावीर के अंगूठे से दूध प्रवाहित हुआ था। मैंने अमेरिका, जापान, इग्लैंड सब जगह भ्रमण किया है और बड़े बड़े आपरेशन किये है, देखे हैं, लेकिन कहीं भी किसी भी आपरेशन को करते समय मुझे शरीर में दूध नहीं मिला। तब महावीर स्वामी के शरीर से दूध कैसे निकल गया ? For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमत्कार : एक भ्रमजाल कहा कि ये मैंने कहा कि आपकी बात बिल्कुल ठीक है । लेकिन एक प्रश्न पूछता हूं कि स्त्रियों के स्तन से दूध कैसे बाहर निकलता है ? जब बच्चा पैदा होता है तभी निकलता है उससे पहले नहीं निकलता । वंध्यास्त्री के स्तनों में दूध कभी नहीं आता मातृत्व के उमड़ते ही स्तनों से दूध बह पड़ता है | बच्चे को दूर से देखकर भी कभी-कभी माँ के स्तनों से दूध निकल पड़ता है, क्या आप इस बात को मानते हैं ? उन्होंने तो हारमोन के परिवर्तन से ऐसा हो जाता है और माँ का वात्सल्य बच्चे के प्रति होता है, इसलिये माँ के स्तनों से दूध बहा करता है । मैंने कहा कि माँ का एक बच्चे के प्रति ही केवल वात्सल्य होता है । एक बच्चे के प्रति होने वाले वात्सल्य से यदि स्तन से दूध निकल आता है तो जिस व्यक्ति के हृदय में सारे संसार के प्रति वात्सल्य उमड़ता है, जिसके दिल में अगाध करुणा है, दया है, उसके अँगूठे से यदि दूध निकल पड़ता है तो कौन से आश्चर्य की बात है । यह तो बिल्कुल सामान्य बात है अगर वैसी साधना हो तो । ३० महावीर ने बाद में कैवल्य पाया । बहुत कुछ उपदेश दिये, उनके पास सब कुछ था । लेकिन फिर भी चमत्कार न दिखा पाये । गौतम उनके पास आया । उसने देवी-देवताओं को, समवसरणं को देखा, लेकिन वह उससे प्रभावित नहीं हुआ । लेकिन जब महावीर ने सत्य को प्रकट किया तो गौतम तो क्या उसके सारे शिष्य और दूसरे आचार्य भी प्रभावित हो गये । गौतम चमत्कार से प्रभावित नहीं हुआ सत्य से प्रभावित हुआ । प्रभावना सत्य से होती है चमत्कार से नहीं । पैतीस अतिशय और चौतीस वाणी इसको लोग कहते हैं चमत्कार नहीं है । यह तो तीर्थ कर की महिमा है । तीर्थकर होने के कारण ये सब अतिशय घटित होते हैं । महावीर स्वामी स्वयं ये अतिशय नहीं दिखाते, स्वयं कोई चमत्कार नहीं दिखाते ये तो तीर्थंकर का स्वभाव है । यह तो तीर्थ कर पद की महिमा है । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि श्रद्धा और आस्था में अतिशयोक्ति की भावना आ जाती है । आचारांग सूत्र जैनों का सबसे पुराना लिपिबद्ध ग्रन्थ है । उसमें महावीर का जीवन दर्शन पढ़िये सच्चे महावीर का सच्चा जीवन-दर्शन वर्णित है । सच्चाई का वर्णन है, अतिशयता का वर्णन नहीं है । हम आजकल कुछेक आचार्यों को युगप्रधान कहते हैं । लेकिन आज के युगप्रधान पुरुष में कोई भी अतिशय देखने को नहीं मिलता। यदि हम जिनदत्तसूरि अथवा अन्य आचार्य को जिनको हम कहते हैं कि ये चमत्कारी थे । तो आज के युग - प्रधानों में भी चमत्कार होने चाहिए । लेकिन वे चमत्कार नहीं है । उपाध्याय देवचन्द्र ने तो युगप्रधान पद की महिमा बताते हुए कहा कि जो आचार्य युग-प्रधान है, वह यदि घर में आ जाये तो सारा घर ही पवित्र हो जाता है । उनका यदि हम पैर धोलें, चरण पक्षालन करें और उस पानी को घर में छिड़के तो शान्ति हो जाती है । यह For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमत्कार : एक भ्रमजाल जिनदत्तसूरि का प्रभाव नहीं, यह युगप्रधानता का प्रभाव है। यह किसी आचार्य की शक्ति नहीं है, यह तो आचार्यत्व की शक्ति है अतिशय महावीर स्वामी की शक्ति नहीं है, यह तो तीर्थ करत्व की शक्ति है तीर्थ कर की महिमा है। . हम लोग चमत्कार के पीछे पड़े हैं। हम पूजा करते हैं चमत्कार के लिए। प्रार्थना करते हैं चमत्कार के लिए। दादा-बाड़ी जाते हैं चमत्कार के लिए। प्रार्थना करते हैं चमत्कार के लिए। हमारा मन ही कुछ ऐसा है कि हम चमत्कार को ही स्वीकार करते हैं। क्या यह कम चमत्कार है, कि जिस धर्म के प्रवर्तक चमत्कार को नहीं मानते थे, उस धर्म के अनुयायी केवल चमत्कार ही चमत्कार चिल्लाते हैं. वे केवल चमत्कार को ही मानते हैं। उसी के आगे सिर नमाते हैं। इसीलिए तो चमत्कार को लोगों ने पूजा-प्रार्थना की अटूट कड़ी माना है । आप लोग पूजा में बोलते हैं 'नमस्कार है चमत्कार को।' ___ आप मन्दिर गए, भोमियाजी को कहा अथवा भगवान् पार्श्वनाथ के गए अथवा और किसी के, और कहेंगे हे भगवान ! मेरी घड़ी गुम हो गई है। दो हजार रुपये की घड़ी थी। यदि घड़ी मिल जायेगी तो दो रुपये का प्रसाद चढ़ाऊँगा। महावीर स्वामी ऐसा नहीं कहेंगे कि मेरा देवदुष्य खो गया है उसको वापस पाने के लिए मैं इन्द्र को पूजू, प्रसाद चढ़ाऊँ। महावीर तो ऐसे वीर थे कि उन्होंने प्रसाद शब्द का कभी उल्लेख भी नहीं किया। यदि प्रसाद होता और प्रसाद से चमत्कार घटता तो इसका उल्लेख कहीं न कहीं जरूर ही आगम ग्रन्थों में होता। हम दो रुपये का प्रसाद चढ़ाकर दो हजार रुपये का चमत्कार चाहते हैं। यह घूसखोरी भगवान के दरबार में प्रविष्ट भी नहीं होनी चाहिये । ___ मैं जब 'वाराणसी'-काशी में था तो वहाँ मैं विश्वनाथ मन्दिर गया। भक्तों की भारी भीड़। पुजारी पण्डे कह रहे थे कि यहाँ बाबा पर जो एक रुपया चढ़ायेगा उसे विश्वनाथ बाबा लाख देंगे। एक ग्रामीण आदमी आया। उसने जब यह सुना तो एक रुपया चढ़ा दिया । पुजारी ने फिर वही अपना रटा-रटाया फार्मूला दोहराया। उस आदमी ने एक रुपया और चढ़ा दिया। मैंने सोचा कि यह कौन-सा गणित है कि एक का सीधा लाख । पुजारी भी लोभ देता है । भला भगवान के यहाँ कोई टकसाल थोड़ी है। रुपया चढ़ाने वाले लाखों हैं। भगवान से दरबार में धन नहीं है, मन की शान्ति मिलती है। वह भी लाख बार प्रयास करो तब कहीं जाकर एक बार सफलता मिलती है। तो हम लोग चमत्कार को ही मानते हैं चमत्कार के ही वशीभूत हैं। महावीर स्वामी चमत्कार को नहीं मानते। वे चमत्कार में विश्वास भी नहीं रखते। हम महावीर स्वामी को भूल गये बाद में कई आई हुई परम्पराओं को ले बैठे हैं। मैं चाहता हूं कि हम महावीर के शुद्ध मार्ग को जानें। जैसे गणित में है कि For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमत्कार : एक भ्रमजाल एक और एक दो होते हैं, ऐसा ही महावीर का मार्ग है, उसमें कल्पना की उड़ानें नहीं; गणित और विज्ञान का दर्शन होता है । अत: जब तक महावीर स्वामी के शुद्ध मार्ग को नहीं बताया जायेगा तब तक जैन धर्म का मार्ग अशुद्ध रहेगा हमारी शुद्धता के लिए शुद्ध मार्ग का दर्शन एवं ज्ञान जरुरी है । आज जैनधर्म में जो परम्परायें फैली हुई है, वे परम्परायें वास्तव में जैन धर्म की नहीं है भगवान् महावीर द्वारा निर्दिष्ट नहीं हैं, ये हमारी अपनी बनाई परम्परायें हैं । हमने ही बनाई है। सारे च मत्कार हमारे ही द्वारा बने बनाये हुए हैं । ये तीर्थं कर के बनाए हुए नहीं है । 1 तो इसलिए महावीर के जीवन में ऐसा कोई भी प्रसंग नहीं है, जिससे यह साबित हो सके कि भगवान महावीर ने चमत्कार दिखाया था या उनका चमत्कार में विश्वास था । कोई भी महापुरुष, कोई भी आत्म गवेषक निर्वाणाभिमुख व्यक्ति चमत्कार के फन्दे में नहीं फँसा । उन्होंने कभी चमत्कार दिखाया ही नहीं । महावीर के सारे उपदेश चमत्कार के विरोधी हैं । महावीर स्वामी के सारे उपदेश, सारे वक्तव्य ऐसे हैं जैसे स्वयं महावीर थे । उन्होंने तो जैसा सत्य था, वैसा कहा। महावीर नग्न रहे | जैसा अस्तित्व था वैसा व्यक्त किया । कोई वस्त्रावरण नहीं, कोई साज नहीं, कोई शृंगार नहीं, कोई सजावट नहीं, कोई काव्यता नहीं, बिल्कुल गणितीय हिसाब है वैज्ञानिक हिसाब है | काव्य में शृंगार का आकर्षण है, नवजात उड़ती कल्पनाएँ और गणित और विज्ञान में जैसा होता है, वैसा प्रदर्शित किया जाता है। महावीर गणितज्ञ और वैज्ञानिक भी थे, अध्यात्म जगत के । प्रामाणिकता ही उनके वक्तव्यों की विशेषताएँ हैं । 1 स्पष्टता, वैज्ञानिकता और ३२ हम चमत्कार को उनसे जोड़कर बड़ी भूल करते हैं । चमत्कार को हटा दिया जाय, तभी महावीर स्वामी का विशुद्ध मार्ग बचेगा । मैं आपको जैन- परम्परा को उतना ही नहीं बताना चाहता, जितना मैं चाहता हूं कि आप सब महावीर स्वामी के विशुद्ध मार्ग को समझें एक सद्गुरु और अर्हत् तीर्थ कर की मूल बातों को समझें जो आदमी महावीर के विशुद्ध मार्ग को समझ लेगा वह सचमुच महावीर बन जायेगा, निजमें छिपे जिनत्व को प्राप्त कर लेगा । सच्चे अर्थों में वह तभी सच्चा जैन हो पायेगा । उसके बाद में चली आई हुई परम्पराओं में जिनमें अनेक प्रकार के परिवर्तन हुए, उनको यदि हम लिए बैठे रहेंगे तो महावीर नहीं होंगे । हम तो अपनी कायरता और प्रमत्तता के कोढ़-रोग को महावीर के रत्नकम्बल के द्वारा ढँकते हैं, ओट लेते हैं, छिपा लेते हैं | चमत्कार को बिल्कुल हटा देना चाहिए। जिस दिन हम चमत्कार के पीछे पड़मा छोड़ देंगे, उस दिन से हम पायेंगे कि हमारी अन्तर्यात्रा शुरू हो गयी । हम अन्धनिष्ठा से मुक्त और आत्मनिष्ठा से युक्त हो गये । For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप प्रवचन-समय ९ जुलाई १९८५ प्रवचन-स्थल जैन भवन, कलकत्ता For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न हैं : हमारे आचार व्यवहार हमेशा एक जैसे हों या देश और काल के अनुसार उसमें परिवर्तन कर सकते हैं ? यहूदियों की एक कथा है। एक फकीर था। उसकी एक बंजारे ने काफी सेवा की। जिस पर प्रसन्न होकर फकीर ने बंजारे को एक गधा भेंट किया। गधे को पाकर बंजारा बड़ा खुश हुआ ! गधा स्वामी-भक्त था। वह बंजारे की सेवा करता और बंजारा उसको। दोनों को एक दूसरे के प्रति बहुत प्रेम हो गया। एक दिन बंजारा माल-बेचने के लिए गधे पर दूसरे गाँव गया। दुर्भाग्य ऐसा कि गधा मार्ग में ही बीमार हो गया। उसके पेट में इतना तेज दर्द उठा कि वह वहीं पर मर गया। बंजारे को अत्यधिक शोक हुआ गधे की मृत्यु पर। उसके लिए गधा क्या मरा, कमाकर देनेवाला एक साझेदार मर गया। आखिर उसने गधे की कब्र बनायी और कब्र के पास बैठकर दुःख के दो आँसू ढलकाए। इतने में ही उधर से एक राही गुजरा। उसने सोचा कि अवश्य ही यहाँ कोई न कोई किसी महान फकीर का निधन हुआ है। श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए वह भी कब्र के पास आया और जेब से दो रुपये निकालकर चढ़ा दिए । बंजारा देखता ही रह गया। वह कुछ बोला नहीं, लेकिन मनोमन उसे हँसी अवश्य आ गई। वह राही अगले गांव में गया और लोगों से उस कब का जिक्र किया। ग्रामीण लोग आए। उन्होंने भी यथाशक्ति पैसे चढ़ाए। बंजारे के लिए तो यह भी एक तरह का व्यवसाय हो गया। गधा जब जिन्दा था तब उतना कमाकर नहीं देता था जितना कि मरने के बाद दे रहा था। खूब भीड़ लगती। जितने दर्शनार्थी आते कब्र का उतना ही ज्यादा विज्ञापन होता। और इस तरह गधे की कब्र किसी पहुंचे हुए फकीर की समाधि हो गयी। एक दिन वह फकीर भी उसी मार्ग से गुजरा, जिसने बंजारे को गधा दिया था। उसने उस कब्र के बारे में लोगों से चर्चा सुनी तो वह भी कब्र पर झुका । लेकिन जैसे ही उसने वहाँ अपने पुराने भक्त को बैठे देखा तो उससे पूछा कि यह कब्र किसकी है और तू यहाँ क्यों रो रहा है ? उस बंजारे ने कहा कि अब आपके सामने सत्य को छिपाकर रखने को मेरे पास ताकत नहीं है अतः सारी आपबीती सत्य कथा कह दी फकीर को। बड़ी हँसी आई फकीर को उसकी बात सुनकर। बंजारे ने पूछा कि आपको हँसी क्यों आई ? फकीर बोला कि मैं जहाँ रहता हूं वहाँ पर भी एक कब्र है जिसे लोग बड़ी श्रद्धा से पूजते हैं। आज मैं तुम्हें बताता हूं कि वह कब्र इसी गधे की माँ की है। ___ इसी को कहा जाता है अन्धविश्वास । कुछ लोग अपनी आजीविका के लिए इन अन्ध विश्वासों को धर्म का मुकुट पहना देते हैं। और, इस तरह धर्म के नाम पर For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप अन्धविश्वास वर्धमान होते जाते हैं। जब तक ये अन्धविश्वास समाप्त नहीं होंगे तब तक धर्म का प्रकाश विस्तार नहीं पा सकता। सचमुच अन्धविश्वास के अन्धियारे को दूर करने के लिए विवेकशीलता का चिराग अपेक्षित है। तुम उत्साह की बात करते हो मगर बेलगाम घोड़ा है ज्ञानरहित उत्साह । उत्साह सही हो अन्यथा क्षति ही क्षति है अन्धे उत्साह से अन्धा उत्साह और अन्धा विश्वास दोनों बिना लगाम के घोड़े हैं। उस घोड़े पर बैठकर भीड़ भरे राजपथ पर दौड़ना खतरे से भरा है। जो लोग अन्धे को मार्गदर्शक बना लेते हैं, वे अभीष्ट रास्ते से भ्रमित हो जाते हैं। लकीर के फकीर भी अन्धे होते हैं। वे दूसरों की आँखों के आश्रित होते हैं। जानते हैं आप कि लीक, लीक कौन चलता है ? अन्धनिष्ठावान चलता है लोक-लीक। लोक-लीक गाड़ी चले, लोक ही चले कपूत । लोक छोड़ तीनों चलें, शायर, सिंह सपूत ॥ अतः हमें अन्धविश्वासों को खदेड़ना है। हमें अनुकरण नहीं; सत्य का अनुसन्धान करना है। लीक-लीक नहीं चलना है। मुझे तो अन्धविश्वासों की छाया भी पसन्द नहीं है। मैं अन्धविश्वास का भी समर्थक नहीं हूं। और उस मार्ग को अपनाने वालों को भी मैं अच्छा नहीं समझता। इसलिए धर्म एवम् सत्य की स्थापना के लिए अन्धविश्वासों को जड़ से उखाड़ फेंक देना चाहिए । प्रज्ञा के आधार पर । _अन्धविश्वासों की तुम्बी की बेलों को तो मूल से ही उखाड़ा जाता है, किन्तु धर्म के अंगूर-तरुओं की आचार व्यवहाररूपी डालियों का तो देशकालानुरूप ही काट छाँट किया जाता है। समय पर आवश्यकतानुसार अंगूरों पर कलम करना ही अंगूरों की वृद्धि का तरीका है। इसी प्रकार हमारे आचार एवं व्यवहारों में भी यथावश्यक फेर बदल करने से लाभ ही है न कि हानि । आचार व्यवहार, की जीवन्तता तो देशकाल और परिस्थिति पर ही निर्भर है। उत्तराध्ययन सूत्र चूणि में तीर्थ करों के लिए कहा गया है कि देशकालानुरुपम् धर्मकथययन्ति तीर्थ कराः। तीर्थकर भी देश और काल के अनुसार ही धर्म का उपदेश देते हैं । सामान्य दृष्टि से तो देशकाल और परिस्थिति को समझते हुए ही सारे आचार For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप और व्यवहारों का पालन किया जाता है, लेकिन स्वयं तीर्थ कर भी देश और काल के अनुसार ही धर्म का कथन करते हैं । हम स्वयं हमारे जीवन में ही देख लें। शरीर हमेशा एक जैसा नहीं रहता । वह कभी बढ़ता है, कभी घटता है और कभी हम पुनर्जन्म ग्रहण करते हैं । आचार और व्यवहार भी हमेशा एक जैसे नहीं होते हैं । उनमें परिवर्तन आता ही रहता है । इसलिए महावीर स्वामी ने उत्पात, व्यय और धौव्य की त्रिपदी को हमारे सामने प्रस्तुत किया था। ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही उत्पात, व्यय और धौव्य के ही प्रतीक है । जिस किसी भी वस्तु का जन्म होता है उसकी स्थिति भी होती है और वापस समापन भी होता है । कल भिखारो थे वे आज परिवर्तन प्रकृति का नियम है । प्रकृति के इस नियम को मैं तो क्या, सभी लोग स्वीकार करते हैं और बड़े विनम्रभाव के साथ । फिर चाहे वह जड़ हो या चैतन्य | जो कल राजा थे, वे आज निर्धन हैं और जो धनवान् हैं । भारत की स्वतन्त्रता से पहले जो लोग निर्धन थे, वे नेता आज बड़े-बड़े पद पर और काफी समृद्ध देखे जाते हैं और जो वर्तन की यह महिमा है । इसीसे ही क्षणमात्र है और दुख सुख का स्थान ग्रहण कर लेता । भाटा ये सब प्रकृति के परिवर्तनशील धर्म हैं । राजा थे, वे आज असमृद्ध है । परिमें सुख दुःख का स्थान ग्रहण कर लेता बढ़ती घटती, उतार-चढ़ाव, ज्वार हर चीज हर समय के लिए एक जैसी नहीं रहती है । उसमें परिवर्तन आ ही जाता है । स्वयं प्रकृति जिन वृक्षों को, फलों, फलों और पत्तों को धारण करती है । एक दिन वह भी आता है जब प्रकृति उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर डालती है । वास्तव में ऐसा होना भी चाहिए । जिन वृक्षों के पत्ते पीले पड़ गये हैं, उन्हें संजो-संजो कर रखने से नये पत्ते पैदा नहीं हो पायेंगे । उनके लिए जरूरी है कि वे पत्ते गिराए जाएँ । इसीलिए सुमित्रानंदन पन्त ने कहा गा कोकिल बरसा पावक कण | नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन ॥ पुरातन हमेशा अच्छा होता है ऐसी बात नहीं है, नवीन हमेशा अच्छा होता है, यह भी बात सही नहीं है । देश और काल के अनुरूप कभी प्राचीन भी बुरा हो जाता है और कभी नवीन भी घातक सिद्ध हो जाता है । हम आज को ही क्यों लें । स्वयं तीर्थङ्कर आदिनाथ से भी हम इस बात को जोड़ें तो भी यह बात बिलकुल सही प्रमाणित होती है कि हमारे आचार और व्यवहार देश तथा काल के अनुसार परिवर्तित हो सकते हैं । ऋषभदेव ने कठोर चर्या की अचेलक नग्नता को स्वीकार किया था. लेकिन ऋषभ के बाद ही दूसरे तीर्थङ्कर अजितनाथ ने कठोर चर्या को मृदुचर्या में परिवर्तित कर दिया था । अचेलक For Personal & Private Use Only ३७ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप परम्परा सचेलक परम्परा में बदल गयी थी। क्योंकि धर्म जब मनुष्य के लिए पालन करने योग्य नहीं रह जाता भारभूत तथा अस्वाभाविक हो जाता है तो उस धर्म में कुछ परिवर्तन करना ही पड़ता है। दूसरे तीर्थङ्कर अजितनाथ से पार्श्वनाथ की परम्परा तक लगभग मृदु चर्या फिर कठोरचर्या में बदल गयी थी। क्योंकि उस मृदुचर्या में कई प्रकार के आघात और व्याघात आने लग गये थे। अतः महावीर को देश तथा काल के अनुरूप ही अपनी चर्या को कठोर बनाना पड़ा। महावीर स्वामी ही नहीं, उनके शिष्य गौतम और श्रमण केशी जब परस्पर मिले तो देश और काल के अनुसार परम्पराओं में काफी परिवर्तन हुआ था। सबसे बड़ा परिवर्तन तो चातुर्याम धर्म का पंचयाम धर्म के रूप में परिवर्तित हो जाना है। स्वयं तीर्थकर ने भी देश और काल के अनुरूप ही आचार व्यवहार का उपदेश दिया । आचार और व्यवहार की उन्होंने प्रेरणा दी, उसमें परिवर्तन भी किया। ऋषभदेव ने असी मसि और कृषि का उपदेश दिया, लेकिन महावीर स्वामी ने उसका उपदेश नहीं दिया। एक समय होता है, एक परिस्थिति होती है कि स्वयं तीर्थङ्कर को भी उन सबके लिए प्ररणा देनी पड़ती है। धर्म देश और काल के अनुरूप ही निर्मित हो जाता है। आचार और व्यवहार देश और काल के अनरूप ही परिवर्तित होने लग जाते हैं। __ श्रमण-वर्ग के लिए लिखना बिलकुल निषिद्ध था। निशीथ सूत्र में स्पष्ट रूप में कहा गया कि साधु-वर्ग कलम के द्वारा लिख नहीं सकता। लेकिन देश और परिस्थिति को देखते हुए देवधिगणि को यह परम्परा और इस आगम आज्ञा दोनों को ही तोड़ना पड़ा और आगमों को उन्होंने लिपिबद्ध करवाया। जैन धर्म में देवर्धिगणि ही लेखनी चलाने वाले सबसे पहले आचार्य हुए और लेखनी चलाने वाले का जो निषेध था, उसको तोड़ने वाले भी देवधिगणि ही थे, लेकिन यह परम्परा का तोड़ना भविष्य के लिए बड़ा ही कल्याणकारी हुआ। आज यदि देवधिंगणि उस परम्परा को नहीं तोड़ते, देश और काल की आवश्यकता के अनुसार आगमों को लिपिबद्ध नहीं करवाते तो आज महावीर स्वामी की वाणी एवं जैन धर्म की परम्परा कुछ भी अवशेष नहीं रहती। इसलिए देश और काल के अनुरूप आचार तथा व्यवहार में परिवर्तन किया जा सकता है। यदि हम आगमों पर दृष्टिपात कर तो एक नहीं ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जिसमें देश और काल के अनुरूप आचार व्यवहार में परिवर्तन किया गया था, जैसे कि हम पात्र को लें। सबसे पहले पाणिपात्र की ही प्रथा थी। साधु लोग हाथ में भोजन करते थे, लेकिन इसमें परिवर्तन आया और आचारांगसूत्र में श्रमण को एक पात्र रखने का निर्देश दिया गया। कुछ समय के बाद वृहत् कल्प भाष्य आदि ग्रन्थों से पता चलता है कि आर्यरक्षित सूरि ने जब देखा कि एक पात्र में असुविधा होती है, साधु जिस पात्र में भोजन को उसी पात्र को शौच आदि अन्य आवश्यक क्रियाओं में उपभोग For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप करें तो यह बात उन्हें अच्छी नहीं लगी और उन्होंने दो पात्र रखने का निर्देश दिया। इस पर समाज में काफी हो-हंगामा हुआ होगा। लेकिन देश और परिस्थिति को देखते हुए आचार और व्यवहार में परिवर्तन लाना ही पड़ता है। श्रमण-वर्ग को तो हम एक किनारे रखें, समाज पर हम आयें। एक जमाना था जब पर्दा प्रथा नहीं थी। महावीर के समय में पर्दा-प्रथा नहीं थी, उससे पहले तो थी ही नहीं। लेकिन महावीर स्वामी के बाद पर्दा-प्रथा आनी शुरू हो गयी और मध्यकाल में तो पर्दा-प्रथा इतनी भयंकर हो गयो कि स्त्री असूर्यम्पश्या हो गयी उसको स्वतन्त्रता परतंत्रता में बदल गयी थी। एक जमाना था जबकि पर्दा नहीं था। एक जमाना आया जब पर्दा आया और आज वह जमाना आ गया है कि पर्दा-प्रथा वापस उठने लग गयी है। अब तो क्लब्स में वस्त्रप्रथा ही हटने लग गयी है। इसी तरह से मृत भोज हुआ करता है। इसी तरह से हम दहेज प्रथा को ले सकते हैं, इसी तरह से हम विधवा-विवाह को ले सकते हैं, इसी तरह से हम ले सकते हैं सती होना यानी चिता में जलकर मर जाना, इन सारी की सारी प्रथाओं में समय समय पर परिवर्तन आया ही है। देश क्षेत्र और समय के अनुसार परिवर्तन होता ही गया। आज भी कितने-कितने प्रकार के परिवर्तन हुए हैं हमारे आचार और व्यवहार में। न केवल श्रावक वर्ग में अपितु श्रमण वर्ग में भी बहुत प्रकार के आचार और व्यवहार में परिवर्तन आये हैं। सौ वर्ष पूर्व कोई जैन साधु बम्बई नहीं जाता था। जब मोहनलाल जी महाराज बम्बई चले गये थे तो लोगों में काफी हुड़दंग मची थी। बहुत से बड़े-बड़े आचार्य इसका विरोध करते थे कि कोई भी साधु बम्बई में न जाये। लेकिन आज अनेक आचार्य लोग तरसते हैं बम्बई जाने के लिए कि एक चार्तुमास तो कम से कम बम्बई हो ही। आज समय की माँग है, उस क्षेत्र में श्रमण वर्ग की आवश्यकता है। अतः जाना जरूरी हो गया है । तो ये कोई गलत काम थोड़ी ही है कि श्रमण-वर्ग वहाँ जाता है। इसी प्रकार मूर्तिपूजा को लिया जा सकता है। आज से लगभग पाँच सौसात सौ वर्ष पहले मूर्तिपूजा के साथ आडम्बर बहुत अधिक जुड़ गया था भक्तिवशात भावपूजा गौण और द्रव्य-पूजा मुख्य हो गई। स्थानकवासी और तेरहपन्थी सम्प्रदाय के धर्मप्रवर्तकों ने क्रांति मचाई, जो कि जरूरी भी हो गई। यदि वे ऐसा न करते तो जैनत्व को बड़ा आघात लगता है। लेकिन वे अतिवादिता को छू बैठे, सीमा का उल्लंघन कर दिया उन्होंने । लक्ष्मण-रेखा खींची तो थी रक्षा के लिए मगर जब उसका उल्लंघन करेंगे तो सिर पर खतरा आयेगा ही सीता की तरह। वस्तुतः भिक्खुगणि आदि को विरोध तो करना था द्रव्य-पूजा में समागत आडम्बर का, किन्तु वे मूर्ति For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप का ही विरोध कर बैठे। फेंकना था सड़े हुए फलों को, किन्तु उन फलों के साथ रहे अच्छे फलों को भी फेंक दिया। उनमें यदि प्रखर प्रज्ञा होती तो वे शराब की दूकान के किनारे गिलास में दूध पीने वाले व्यक्ति को शराबी नहीं समझते । बन्दर को उड़ाना तो था मक्खी को, जो राजा की छाती पर बैठी थी मगर जब न उड़ी तो उसने मक्खी पर तलवार चलायी। बिचारा बन्दर उतनी दूर की कैसे सोचेगा कि मक्खी पर तलवार मारने से राजा भी मर जायेगा। मक्खी पर हाथ से मारने की जरुरत थी, तलवार से नहीं। पूर्वजों की संतति अच्छी निकली। यह अहोभाग्य की बात है। आज मैं देखता हूँ कि बहुत से स्थानकवासी और तेरापन्थी इस बात को समझ चुके हैं। कुछेक कट्टरपन्थियों के कारण वे मूर्तिवाद का सार्वजनिक रूप से समर्थन नहीं कर पा रहे हैं। मगर अधिकांश स्थानकवासी वगैरह लोग व्यक्त-अव्यक्त रूप में स्वीकार करने लग गये हैं। स्तूप, चित्र, आदि के रूप में तो खैर स्वीकार करते ही हैं। जो कि मूर्ति की मान्यता का ही मात्र एक रूपान्तरण है। सुना जाता है कि आचार्य तुलसी जैसे मूर्तिपूजाके विरोधी सम्प्रदाय वालों ने भी राजस्थान के दो-चार जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया है। अब तो अनेक अमूर्तिपूजक साधु-साध्वियां, श्रावक-श्राविकाएं जैन मन्दिरों में, जैन तीर्थों में दर्शन-वन्दन-पूजन भी करने जाते हैं। उनका विरोध नहीं है। अच्छी बात है यह । वस्तुतः सत्य को ठुकराया नहीं जा सकता। इतिहास पर लात नहीं मारी जा सकती। एक समय में मूर्ति का समर्थन, फिर विरोध और अब वापस समर्थन - यह सब देशकालानुरूप परिवर्तन है । __ एक समय था जब कोई साधु लाउडस्पीकर पर बोलता तो समाज में काफी हो हल्ला मच जाता। बड़े-बड़े लोग इसका विरोध करते थे। मैंने सुना है कि भीलवाड़ा में जब सुशीलकुमार जी का चातुर्मास था तो वे लाउडस्पीकर पर बोलने लगे। आचार्य तुलसी जी ने इसका विरोध किया। वह एक समय था उस समय उसका प्रचलन नहीं था, लेकिन उन्होंने जब इसकी उपयोगिता समझी तो वे सभी बड़े धड़ल्ले के साथ अब लाउडस्पीकर में बोलते हैं। ___ इसी तरह जैसे सपनों की बोलियाँ होती हैं चैत्यवासियों ने सपनों को बोलियों का प्रचलन किया। इसमें है कुछ भी नहीं। जिस दिन कल्पसूत्र पढ़ते हैं उस दिन न तो सपने दिखाई दिये त्रिशला रानी को और न महावीर का जन्म हुआ। मन्दिर संचालन या मन्दिर के जीर्णोद्धार के लिए या अन्य कार्यों को दृष्टि में रखते हुए इस प्रथा को उपयोगी समझा गया। लोग कम से कम पर्युषण में अवश्यमेव ही अपने धर्मस्थानों में पहुँचते हैं। अतः मन्दिरों के जीर्णोद्धार इत्यादि कार्य करवाने के लिए इस परम्परा में कुछ न भी होते हुए भी चाल रखा गया। इसकी उपयोगिता थी, इसीलिए चाल रखा गया। आज भी इसकी उपयोगिता है। इसीलिए चाल ही रखा जा रहा है। For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार व्यवहार हो देशकालानुरूप ४१ इस तरह हम कोई भी प्रथा को ले लें देश और काल के अनुसार न केवल आचार और व्यवहार में अपितु हर चीज में परिवर्तन आया ही आया है। लेकिन वह परिवर्तन तभी करना चाहिए जब उस परिवर्तन के द्वारा उसका भविष्य कुछ लाभदायक सिद्ध होता हो। केवल नवीनता के आग्रह में अपनी प्राचीन परम्परा को तोड़ देना भी अच्छा नहीं है। पुराना हमेशा कूड़ा-कचरा होता है, यह बात कहनी भी अच्छी नहीं है। आजकल विज्ञान को पूर्णरूपेण सही कहना यह भी बात अच्छी नहीं है यदि अणुबम या चार सौ बीस टन का एक हाइड्रोजन बम गिर जाय तो जो आदमी विज्ञान को अच्छा बताते हैं वे लोग ही भस्म हो जायेंगे और शेष लोग विज्ञान का नाम सुनते ही काँप उठेंगे। नवीन चीज हमेशा अच्छी नहीं होती और पुरानी चीज हमेशा बुरी नहीं होती लेकिन पुरातन का मोह भी अच्छा नहीं है और नवीनता का आग्रह भी अच्छा नहीं होता। एक समय होता है जब वर्षा होती है तो अच्छा लगता है। चारों तरफ अकाल है, सूखा पड़ गया है उस समय यदि वर्षा होती है तो वर्षा उपयोगी है। उस समय वर्षा किस काम की जब चारों तरफ बाढ़ ही बाढ़ आयी हुई हो। समय के अनुसार ही वर्षा अच्छी लगती है। होली के दिन लोग रंग डालते हैं। वह होली के दिन ही अच्छा लगता है। दीपावली के दिन उन रंगों से सने हुए वस्त्र यदि कोई पहनता है तो वे रंग भरे वस्त्र बड़े बुरे लगते हैं। शिव अपने समय ही कल्याणकारी होता है, जब वह बिगड़ जाता है तो बड़ा प्रलय मचा देता है। उसका तांडव नृत्य संसार के लिए बड़ा विनाशकारी हो जाता है। अत: देश और काल के अनुरूप ही प्रत्येक चीज में परिवर्तन होता है। देश और काल के अनुरुप ही प्रत्येक कथन में परिवर्तन होता है। यदि परम्परा अच्छी नहीं है तो उन्हें तोड़कर नये को ग्रहण कर लेना चाहिए। ____अब बहुत से लोग ऐसे भी है जो नयी चीज अच्छी होते हुए भी नयी चीज को ग्रहण नहीं करते बस पुराने को ही पकड़े रहते हैं। यह यथार्थतः दुराग्रह है। जिस व्यक्ति की आँखों पर दुराग्रह की पट्टी बन्धी है, उसे वास्तविक तथ्य का सम्यक् दर्शन नहीं हो सकता। इस पट्टी को बाँधकर चलना भूल-भुलैया के अन्ध गलियारों में भटकना है। इसलिए सत्य के राजमार्ग को पाने के लिए उबरना अनिवार्य है। सारहीन को परित्याग करने में उलझन नहीं होनी चाहिए। जैसे शरीर भोजन लेता है साथ ही उत्सर्ग करता है। अगर ऐसा न हो तो शारीरिक क्रियाएँ नहीं हो सकती, बन्द हो जाएगी। बचपन में जो पैन्ट-कोट पहनते थे, उन्हीं को सारे जीवन में नहीं पहना जा सकता। नया पैन्ट-कोट सिलाना ही पड़ेगा। नयी चीज अच्छी है तो उसको भी ग्रहण करना पड़ेगा। नई चीज हमेशा बुरी नहीं होती, उसमें हैं कोई अच्छी बात भी होती है। For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप वस्तुतः हम जिस युग पैदा हुए हैं हमारे लिए तो वही युग सबसे अच्छा है । महावीर स्वामी के लिए उनका अपना युग अच्छा था । हमारे लिए तो वही युग अच्छा है, जिस युग में हम जीते हैं । इसीलिए हम अपने युग पर लांछन नहीं लगा सकते हैं । ठीक है महावीर और ऋषभदेव के माता पिता बहुत उच्च थे लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हमारे माता-पिता नीच हैं । उनकी अपनी कोटि होती है हमारे माता पिता की अपनी कोटि है । अपने-अपने स्थान पर दोनों ही उच्च हैं । पुरातन भी अच्छा है, नवीन भी अच्छा है दोनों ही अच्छे हैं अपनी अपनी उपयोगिता के समय । अब जैसे कि राजेन्द्रसूरि ने एक परम्परा को तोड़ा । परम्परा चली आ रही थी चार थुई की । यानी चार स्तुति बोलते थे । राजेन्द्रसूरि की बात काफी तर्क पूर्ण है । लेकिन लोग स्वीकार नहीं कर सकते । उन्होंने तीन थुई का प्रचलन शुरू किया उनका कहना भी ठीक था एक सीमा तक कि सामायिक में प्रतिक्रमण में देवी-देवताओं का आह्वान करना और 'पुत्र कलत्र बहुवित्त' इत्यादि शब्दों का उच्चारण करना सामायिक जैसी आध्यात्मिक प्रक्रियाओं में अच्छी बात नहीं है । I सामायिक में देवी-देवताओं की स्तुति की परम्परा को उन्होंने तोड़ा । त्रिस्तुति - परम्परा बनी । लेकिन लोग चौथी स्तुति को क्यों पकड़े हुए हैं इसका भी अपना कारण है । यदि वह वास्तव में फालतू ही होती तो लोग उसे छोड़ भी देते । ऐसे क्रांतिकारी आचार्य कम होते हैं । आचार्य राजेन्द्रसूरि का कथन अपनी सीमा तक ठीक था । लेकिन दूसरे मूर्तिपूजक जैन लोग फिर भी चौथी थुई को क्यों बोलते हैं, इसे समझें । वस्तुतः श्रावक जब साधना में संलग्न होता है तो स्वाभाविक है कि जब वह आत्मरमण करेगा, आत्मसाधना और ध्यान योग में तल्लीन होगा तो कोई उपसर्ग, परिताप भी आ सकता है । कोई असुरीय- परीषह भी आ सकता है । इसलिए श्रावक चतुर्थ-स्तुति के द्वारा देवी-देवताओं का आह्वान करते हैं ताकि हम जो साधना कार्य कर रहे हैं, उसमें कोई तरह से विघ्न न आ जाय । यदि विघ्न आ जाता है तो हमने जो चतुर्थ स्तुति बोली है उसके द्वारा वह विघ्न दूर हो जाय । लक्ष्मण ने तो यही किया था । लक्ष्मण ने रेखा खींच दी थी । सीता रेखा से कहीं बाहर न निकल जाय इसलिए वह रेखा खींची गयी थी । जो रेखा खींचो जाती है उसका अपना उद्देश्य होता है । प्रत्येक रेखा किसी न किसी भावी शुभ के लिए खींची जाती है । कालकाचार्य ने पञ्चमी सवत्सरी की परम्परा को बदलकर चौथ की परम्परा चलायी । आज यदि उस परम्परा को कोई वापस पंचमी में बदलता है तो वह कार्य गलत नहीं माना जायेगा । वैसे तो संवत्सरी तीज की कीजिए चौथ को कीजिये और चाहे दूज को कीजिए और चाहे रोजाना कीजिए उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है । धर्म-ध्यान के लिए, साधना के लिए तो सारे दिन एक जैसे ही होते हैं । इसलिए यदि कोई उपयोगिता समझता है संवत्सरी की चौथ को वापस पञ्चमी में करने की तो वह कार्य भी अच्छा है । ४२ For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप ४३ एक परम्परा तो बड़ी विकास अवरोधक है और वह साध्वियों के प्रवचन के सम्बन्ध में । बहुत से गच्छ वाले साध्वियों का प्रवचन देना एवं उनका प्रवचन सुनना अनुचित समझते हैं। तपागच्छ आदि में तो श्रावक लोग साध्वियों को वन्दना करना भी गलत मानते हैं। यदि साध्वियों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है तो हम यह कैसे कह सकते हैं कि महावीर भगवान ने नारी जाति का उद्धार किया और उसे भी एकाधिकार रखने वाले मानव के समान ही सामाजिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में एकसम स्थान दिया। मल्ली ने स्त्री होते हुए भी तीर्थङ्करत्व प्राप्त किया। साध्वी मृगावती ने कैवल्य प्राप्त किया। साध्वी चन्दना ने प्रवर्तिनी पद को अलंकृत किया। साध्वी याकिनी ने हरिभद्रसूरि को पथभ्रष्ट होने से बचाया। महारानी विक्टोरिया इन्दिरागांधी, एलिजावेथ, टेरेसा ये सारी नारियाँ हैं किन्तु इनकी महनीयता सर्वविदित हैं। साध्वी कनकप्रभा श्री, मणिप्रभा श्री, मृगावती श्री, जैसी विदुषी और प्रखर वक्त्री जैन साध्वियाँ तो आजकल जैन समाज पर छाई हुई हैं। ऐसी स्थिति में साध्वियों को प्रवचन और वन्दन का निषेध वास्तव नारी जाति का अपमान है। और अपमान करने वाले भी हम ही लोग हैं, जो उसी की रत्नकुक्षी से उत्पन्न हुए हैं। यह कैसा दुर्भाग्य है ? मैं बहुत से पुरुषों के मुंह से तुलसीदास का एक पद्य बहुत बार सुनता हूँ ढोल, गॅवार, शूद्र, पशु, नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी। मैंने सुना है । एक पति ने यही पद अपनी पत्नी से कहा और पूछा कि क्या तुम इसका अर्थ जानती हो ? पत्नी ने कहा इसका अर्थ तो बिलकुल स्पष्ट है। इसमें एक जगह मैं हूँ और चार जगह आप । तो मैं तो यही कहंगा कि आज के प्रगतिशील युग में हमें साध्वियों को सार्वजनिक प्रवचन देने की छट देनी चाहिए और उनके चारित्र को महत्व देकर उनका आदर-सत्कार भी करना चाहिए। ___आशय यह है कि पुरानी परम्परा कोई भी तोड़े लेकिन परम्परा तभी तोड़नी चाहिए जब उसके द्वारा हजार गुना लाभ होता हो। मेरी तो प्राचीन के प्रति कोई घृणा अथवा राग भावना नहीं है और नवीन के प्रति कोई दुराग्रह भी नहीं है । मैं तो कहता हूँ नवीन को भी ग्रहण करना चाहिए और प्राचीन को भी। प्राचीन परम्परा को तोड़ना नहीं है, अपितु प्राचीन परम्परा के मन्दिर का जीर्णोद्धार करना है। उसका पुनरुद्धार करना है, ताकि जो परम्परा आज प्राण से शून्य हो गयी है उस परम्परा में वापस प्राण प्रतिष्ठा हो जाये। उसमें रक्त का संचार हो जाये । वह मन्दिर भी उतना ही सुन्दर बन जाये, आज भी जितना कि आज से हजारों साल पहले भी था। 'मेरे विचार से न तो प्राचीन अच्छा है, न नवीन बुरा है और न नवीन बुरा है, न प्राचीन अच्छा है। प्राचीन और नवीन दोनों का विवेकमूलक समन्वय ही हम सब के लिए कल्याणकारी, हितकर सिद्ध हो सकता है।' For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप अतः इस दृष्टि से यदि परिवर्तन करना जरुरी है तो परिवर्तन करना भी चाहिए। किन्तु कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो परिवर्तन तो करते हैं लेकिन बाहर में दिखाते हैं कि हम तो उसी परम्परा पर चल रहे हैं। बाहर से तो डींगे हाँकते हैं लेकिन भीतर से सब कुछ बदला हुआ है। क्या फर्क पड़ता है यदि बाहर के चोले को भी वैसा ही कर दें जैसा भीतर का चोला है। जैसे कि उदाहरण हूँ-कुछ परम्पराएं जैन धर्म में यह बात कहती है कि धर्मशाला बनाना या मन्दिर बनाना ये सब पाप के काम है। मन्दिर बनाते हैं, या मूर्ति बनाते हैं, तो पृथ्वीकाय की हिंसा हुई, अभिषेक किया अप्काय की हिंसा हुई, दीपक जलाया,अग्नि व वायु की हिंसा हुई, फूल चढ़ाये, वनस्पतिकाय की हिंसा हुई । ठीक है हिंसा हुई मान लिया। लेकिन एक बात पूछता हूँ कि जो लोग यह बात कहते हैं उनको कहिये यदि तुमने मकान बनाया है तो तुम देखते नहीं हो कि नालन्दा का विश्वविद्यालय खण्डहर हो गया । इतने बड़े-बड़े राजमहल थे, आज सब पर कौवे बोलते है फिर तू मकान क्यों बना रहा है ? फिर मकान बनाने का हिंसामूलक कृत्य क्यों कर रहे हो। ईट, चूना, पत्थर को सजाकर उस पर क्यों गुमान करते हो ? खैर चलो माना कि मकान शरीर को आवश्यकता है। तुम धर्मशाला क्यों बनाते हो ? जब एक तरफ कहते हो कि धर्मशाला बनाना है पाप है तो फिर उसको 'धर्मशाला' क्यों कहते हो 'पापशाला' क्यों नहीं कहते। जबकि दुनियां में ऐसा कोई मूर्ख आदमी नहीं जो धर्मशाला को पापशाला कह दे। लोग उसको धर्मशाला ही कहेंगे। लेकिन धर्मशाला बना करके भी कहेंगे कि धर्मशाला बनाना पाप है। वे पाप का पुतला खुद बनाते हैं। मैं कहता हूँ कि धर्मशाला के बाहर बोर्ड लगाना चाहिए 'पापशाला' जबकि बोर्ड लगाते हैं धर्मशाला का। नवीन को ग्रहण भी करते हैं लोग, और पुराने का ढ़ोल भी पीटते हैं। यदि नई चीज अच्छी हैं तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए और यदि पुरानी चीज बुरी है तो उसको छोड़ देना चाहिए। नई चीज बुरी है तो उसको छोड़ देना चाहिये पुरानी चीज अच्छी है तो उसको ग्रहण कर लेना चाहिए। फल का ग्रहण होता है, काँटों को ग्रहण कर क्या करेंगे। अपने लिये और दूसरों के लिए, दोनों के लिए दुःखकर है काँटे तो। वास्तव में सत्य किस परम्परा में है, इसको देखना है। परम्परा क्या है, यह नहीं देखना है। किस परम्परा में, किस वस्तु में सत्य का दर्शन होता है, कौन सी परम्परा आत्मा के लिए, समाज के लिए सबके लिए कल्याणकारी है, वही परम्परा हमें अपनानी है। प्राचीन और नवीन दोनों का विवेकमूलक समन्वय करते हुए हमें देश और काल के अनुरूप आचार-व्यवहार में यदि परिवर्तन तथा परिवर्धन भी करना पड़े तो हम उसका निःसंकोच परिवर्धन करें। नवीनता में अगर सार है तो वह उपादेय है। तथ्यरहित प्राचीनता भी हेय है। 'सार-सार को ग्रही रहे, थोथा देइ उड़ाय । असार तत्त्व को पकड़कर क्या करेंगे ? सारतत्त्व को ग्रहण करें। जिसमें सत्य है, वह For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप सब ग्राह्य है फिर चाहे वह प्राचीन हो या नवीन । जैसे साँप कंचकी को छोड़ता है वैसे ही हमें भी निस्सार तत्त्व के प्रति व्यामोह नहीं रखना चाहिए। क्षेत्र और समय की आवश्यकतानुसार हम अपने आचार-व्यवहार में परिवर्तन कर सकते हैं जो कि नीति सम्मत है। नीति का लोहा चित्त की भट्टी में चिन्तन की अग्नि में परितप्त कर संयोजनात्मक कदम बढ़ाकर पोटो, बुरी तरह पीटो परिमार्जन के हथोड़ों से स्वयं लोहार बन अन्धविश्वास, पुरानी परम्पराओं के रजकण, नव निर्माण के सांचे में ढाल दो उसे। उपस्थित होगा एक नया रूप, परिष्कृत संस्कृति का स्वरूप। . For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदयात्रा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रवचन-समय ११ जुलाई १९८५ प्रवचन-स्थल जैन भवन, कलकत्ता For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न है : आज विज्ञान के युग में जब आवागमन के द्रुतगामी साधन उपलब्ध हैं और मनुष्य शब्द का गति से यात्रा करने की तैयारी कर रहा है, तब पदयात्राओं के महत्व का प्रतिपादन करना क्या युक्ति संगत है ? आज का युग विज्ञान युग कहा जाता है । किन्तु युग कोई आज का युग नहीं है । हजारों साल पहले भी विज्ञान का युग था । जिन-जिन चीजों का आज आविष्कार हुआ है उन सभी वस्तुओं का, उन सभी आविष्कारों का मूल स्रोत बहुत पहले ही कहा जा चुका है, लिखा जा चुका है। विज्ञान ने ऐसा कोई भी आविष्कार नहीं किया जिसके बारे में संक्षिप्त अथवा विस्तृत रूप में प्राचीन ग्रन्थों में उल्लेख न हुआ हो । मूल आधार तो प्राचीन काल का ही है, बोज तो पहले का ही है आज का विज्ञान केवल उसे अंकुरित करता है । बीज बहुत पुराना है, अनादिय है । हम कोई भी उदाहरण ले सकते हैं, जैसे प्रश्नकर्त्ता के अनुसार आवागमन के द्रुतगामी साधना | किन्तु ये कोई आज के आविष्कार नहीं है । इनके बारे में हमने अनेक शास्त्रों में अनेक ग्रन्थों में कुछ न कुछ उदाहरण अवश्य पाये हैं जैसे विमान । रामायण में उल्लेख है कि हनुमान सात समुद्रों का उल्लंघन करके, सात समुद्रों को पार करके सीता तक पहुँचे अथवा जब लक्ष्मण मूर्छित हो गये तब हनुमान आकाश मार्ग से संजीवनी बूटी लेने के लिए पहुँच । हवा में उड़ने की कल्पना, मनुष्य हवा में भी उड़ सकता है, ऐसी अवधारणा हजारों साल पहले आ चुकी थी । हमने तो उन्हीं नियमों के आधार पर एक नये ढंग का विमान बना लिया । निश्चित रूप से आज विज्ञान ने हमें द्रुतगामी साधन उपलब्ध कराये हैं । अब मनुष्य शब्द की गति से यात्रा करने की तैयारी कर रहा है । हालांकि विमान यात्रा यह कोई निन्दनीय नहीं है । आकाश से चलना इसकी हम पूर्णरूपेण निन्दा नहीं कर सकते । ऐसे अनेक-अनेक उदाहरण है जिनसे ज्ञात होता है कि प्राचीन ऋषि महर्षि आकाश में चलते थे, आकाशचारी होते थे । वे गगन में विहार करते थे । अन्तर इतना ही है कि वे अपनी तपः शक्ति के आधार पर - स्वशक्ति के आधार पर ही आकाश में उड़ते थे और हम पराधीन होकर आकाश में उड़ते हैं । आकाश में वे भी उड़ते थे इसलिए आकाशचारी कहलाते थे । एतदर्थ हम यह तो कह ही नहीं सकते कि हवा में चलना, गगन में विहार करना गलत है । पानी की नौका में, जहाज में, केवल महावीर ही नहीं बल्कि उनके पश्चात् होने वाले ने भी नौका जहाज इत्यादि का प्रयोग किया था । ऐसे ढेर सारे उदाहरण है हमारे पास जिनमें मुनियों द्वारा नौका का उपयोग किया गया है। महावीर स्वामी स्वयं नौका में चढ़े थे फिर भी वे जिन्दगी भर पदयात्रायें ही करते रहे । नौका का यदि वे आचार्यों और मुनियों For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० पदयात्रा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उपयोग नहीं करते तो उनकी पद-यात्रायें अवरुद्ध हो जाती अतः नौका का उपयोग अनिवार्यता होने पर ही किया जाता था। मैंने भी किया है जियागञ्ज-अजीमगञ्ज दोनों के बीच में नदी है, किन्तु पुल नहीं है। अतः नौका का उपयोग हुआ। पहले जो मुनि आकाशचारी थे, वे आकाश में तभी उड़ते जबकि अत्यन्त ही आवश्यक हो जाता कि यदि हम इस सिद्धि का उपयोग नहीं करेंगे तो किसी बड़े कार्य से लाभान्वित न हो पाएंगे। जैन आचार्य तो यहाँ तक कि भगवान की पूजा करने के लिए पुष्पलाने हेतु भी आकाश में उड़े और पुष्प लाये स्वयं अपने साथ में पुष्प लेकर आये, लेकिन वह एक परिस्थिति थी। उन आचार्यों के लिए जैन धर्म के गौरव की रक्षा करने के लिए उन्हें ऐसे कार्य भी करने पड़े जो उनके लिये अकरणीय हैं । प्रश्न ठीक है कि मनुष्य शब्द की गति से यात्रा करने की तैयारी कर रहा है। वस्तुतः यात्रा मनुष्य का स्वभाव बन गया है। जैसे ही यात्रा रुकी वैसे ही मोक्ष हुआ। जब तक यात्रा है तभी तक उसका जीवन है उसका अस्तित्व है, उसकी गति है, प्रगति है। यात्रा रुकी कि उसका परिश्रम रुक गया। यात्रा की व्याकुलता, यात्रा कि विह्वलता, यात्रा का कष्ट और दुख सब कुछ समाप्त हो जाता है । चली आ रही है संसार की यात्रा पर दूर-सुदूर से निरन्तर गतिशील जीवन की नौका छ छ कर जन्म-मरण के जर्जरित तटों को। सुदीर्घ काल की यात्रा से यात्रा को विकलता से विह्वल, व्याकुल मुक्ति-बोध होगा इसी अन्तस-चेतना से प्राप्त होगा जिस क्षण आत्मा का द्वीप। आज मनुष्य केवल शब्द की गति से यात्रा करने की तैयारी कर रहा है। वह केवल शब्द की गति से यात्रा करना ही नहीं चाहता उसकी तो इच्छा है कि वह For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदयात्रा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ५१ मन की गति से यात्रा करे । शब्द तो कब पहुँचेगा । लेकिन मनोगति उससे भी पहले पहुँच जायेगी । राकेट, अपोलो हवाई लूना इन सबसे पहले पहुँचेगा हमारा मन । मनुष्य तो चाहता है कि मैं मन की गति की तरह पहुँच जाऊँ किन्तु चाहने से ही तो कुछ नहीं हो सकता । चाहना और करना दोनों में बड़ा अन्तर हो जाता है । चाहता तो बहुत कुछ है । शब्द की गति से पहुँचना चाहता है । शब्द की गति यह बिल्कुल वैज्ञानिक परिभाषा आ गयी । शब्द में भी गति है । विज्ञान ने यह स्वीकार कर लिया शब्द जो हम यहाँ बोल रहे हैं वह केवल जैन भवन में ही नहीं है, वह निखिल ब्रह्मांड में शब्द पहुँच रहा है । सारे संसार में जहाँ तक संसार है वहाँ तक यह बोला जाने वाला शब्द पहुँच रहा है केवलज्ञानी - परम ज्ञानी कोई अपने ज्ञान के द्वारा उन शब्दों को पकड़ते थोड़े ही हैं । शब्द तो तरंगित होते हैं, ध्वनित होते हैं । । आप तालाब के पास जाइये एक छोटा सा कंकड़ लीजिये और तालाब में फेंक दीजिए । कंकड़ के द्वारा जो लहरें उठेंगी, वे लहरें उतनी दूर तक जायेंगी जहाँ तक तालाब है । तालाब का जहाँ तक पानी है वहाँ तक उसकी तरंगें पहुँचेगी । महावीर ही एक ऐसे हुए सबसे पहले जिन्होंने कहा कि शब्द में गति है । उनके पहले जितने भी दर्शन हुए, सब यही कहते थे कि जहाँ तक शब्द सुनाई पड़ता है वहीं तक शब्द पहुँचता है । लेकिन आज विज्ञान ने यह बात स्वीकार कर ली है, प्रमाणित की है कि बोला जाने वाला शब्द हवा की तरङ्गों के साथ सारे संसार में पहुँचता है | केवलज्ञानी - परमज्ञानी उन शब्दों को बीच में ही पकड़ लेते हैं । जो प्रश्न पूछा करना पड़ता वह स्वतः परम ज्ञानी कोई फालतू कहाँ हुआ था और फिर टेलीविजन है । यहाँ पर चित्र कोई नहीं है लेकिन टेलीविजन की मशीन चलाई जाए, चित्र सामने आ जाएगा इसी तरह से रेडियो को ले लें । वैसे ही जो परम ज्ञानी- केवलज्ञानी हैं, उनकी आत्मा में वे शब्द प्रतिध्वनित होंगे। जायेगा उसका उत्तर देने के लिए परम ज्ञानी को प्रयास नहीं अनायास ही निकलता है । परम ज्ञानी पूर्वभव बताते हैं । थोड़े ही है कि आप पहुंच जाइए और कहें कि मेरा पूर्व जन्म वे अपने ज्ञान बल के आधार पर आपके लिए भटकें और दस मिनट समय खराब करें | परम ज्ञानी व्यक्ति से तो आपने पूछा कि इस आत्म टेलीविजन में अपने आप सारे चित्र आ जाते हैं । आत्मा के दर्पण में अपने आप सब कुछ प्रतिबिम्बत होने लगता है । सारे चित्र इसलिए कह दिये जाते हैं बिना होता परम ज्ञानी में 1 यदि प्रयास रहा तो परम ज्ञानी निस्प्रयास होते हैं । दुनियाँ में जितने महापुरुष हुए, जिन्होंने शब्द की गति के विज्ञान को जाना, उन्होंने कभी कोई शास्त्र नहीं लिखा । कृष्ण, महावीर, बुद्ध किसी ने भी नहीं लिखा स्वयं | कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया, किन्तु उसे लिखा नहीं । महावीर ने For Personal & Private Use Only प्रयास के । प्रयास नहीं कभी नहीं हुआ । वे तो Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदयात्रा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में गौतम को वक्तव्य दिये, मगर उसे ग्रन्थों में आबद्ध नहीं किया। बुद्ध ने आनन्द से हुई बातों को कभी लिपिबद्ध नहीं किया। उन्होंने तो बस कहा। वस्तुतः उन मनीषियों को यह ज्ञात हो गया था कि हम जो कह रहे हैं. वह ग्रन्थों से भी अधिक चिरकाल तक रहेगा। ग्रन्थ काल-कवलित हो सकते हैं, शब्द तो स्थायी हैं। न काटे जा सकते हैं, न जलाये जा सकते हैं, वे तो सुने जा सकते हैं। इसीलिए महापुरुषों के शब्द आज भी जीवित हैं। परिव्याप्त हैं वे संसार में विद्युत् तरंगों की भाँति । आज भी यदि हम चाहें तो कृष्ण, महावीर, बुद्ध के शब्दों को सुन सकते हैं । शब्द हर जगह पहुंचता है। इसीलिए मनुष्य शब्द की गति से यात्रा करने की तैयारी कर रहा है। यात्रा यह बहुत अनिवार्य है। यात्रा शिक्षा का एक साधन है। अनेक-अनेक स्थानों में जाने से अनेक-अनेक स्थानों के दर्शन से हमारे ज्ञान में अभिवृद्धि होती है। यूरोप में तो विद्यालय की शिक्षा पूर्ण होने के बाद जब तक यात्रा नहीं की जाती तब तक शिक्षा को अधूरी समझा जाता है। इसीलिए हम देखते है इन सड़कों पर कि बहुत से विदेशी लोग, नवयुवक लोग यहाँ पर पहुंचते हैं। और देश का पर्यटन करते हैं, देश की संस्कृति को पहचानते हैं। असली शिक्षा तो इस पर्यटन से मिलती है, स्वयं के अनुभव से, स्वयं के देखने से मिलती है न कि केवल पढ़ने से। भारतीय लोग कितने हैं जो विदेशों में जाकर गली-गली में भटके । लेकिन विदेशी लोग भारत में पहुँचते हैं दूसरे देशों में भी पहुँचते हैं। पर्यटन के बल ज्ञान हासिल करते हैं। बिना यात्रा की शिक्षा पूरी होती ही नहीं है। हिमालय के बारे में हमने पढ़ा हिमालय बर्फ से आच्छादित है, गौरीशंकर के पहाड़ है। इतना सुन्दर है हिमालय कि देखते ही मनुष्य मुग्ध हो जायेगा। पढ़ लिया हमने किताबों में यह सब किन्तु वह शिक्षा तभी हम सम्यक रूपेण समझ पायेंगे जब हम स्वयं हिमालय में चले जायेंगे किताबों में हिमालय के बारे में जो हमने पढ़ा और जो हम स्वयं हिमालय पर जाकर देखेंगे उसमें जमीन आसमान का फर्क होगा। किताबों में पढ़ी हुई शिक्षा कल भूल जायेंगे लेकिन आँखों से देख कर पायी गयी शिक्षा हम जिन्दगी भर मरते समय तक नहीं भूलेंगे। मनुष्य शब्द की गति से यात्रा करने की तैयारी कर रहा है और मैं समझता हूं कि यात्रा निश्चित रूप से जरूरी है। मैं स्वयं भी पाँच साल से यात्रा कर रहा हं निरन्तर । तो मुझे इसके अनुभव हुए हैं कि यात्रा अनिवार्य है और जिसमें भारत जैसे देश में जो कि नदियों और पहाड़ों का देश है, प्रकृति की सुषमा से भरा-पूरा है, तीर्थ-महिमा से मंडित है उसमें पद यात्रा करना कितने आनन्द की बात है। पदयात्रा करके देखिए तो सही कितना आनन्द मिलता है आपको पदयात्रा में आप पायेंगे कि वास्तव में विमान यात्रा की अपेक्षा पदयात्रा ज्यादा गौरवपूर्ण है, आनन्द दायक है। For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदयात्रा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पद-यात्रा यानी जीवन यात्रा । जैसे जीवन में एक-एक सांस ली जाती है, वैसे ही पद यात्रा में एक-एक कदम चला जाता है । पद-यात्रा दौड़ नहीं गंगा का शान्त प्रवाह है । उसमें ब्रह्मपुत्र नदी जैसी भयंकरता नहीं, प्रतिस्पर्धा नहीं । पदयात्रा यानी मन्द मुस्कान, खिलखिलाकर हँसना नहीं । पद-यात्रा यानी दीप का प्रकाश, सूर्य की चकाचौंध नहीं । पद-यात्रा सचमुच एक गतिमान जीवन हैजीवन मानो निर्मल गंगा मलयुक्त होगी हो अबरुद्ध, बहाव है जब तक गंगा में तभी तक है वह स्वच्छ शुद्ध । छल-छल-छल-छल कल-कल कल-कल कितनी मीठी यह अनुगूंज, बहते चल रे, चलते चल रे पूनम होगी यदि है दूज ॥ जैसे सुदि पक्ष का चन्द्र दूज के दिन बड़ा छोटा है लेकिन धीरे-धीरे एक-एक त कर वह वृद्धि को पाता है । और, अन्त में पूर्णिमा के दिन पूर्णता को उपलब्ध कर लेता है । पद-यात्रा बिल्कुल ऐसी ही है-चन्द्रयात्रा की तरह । ५३ किसी देश की मूल आत्मा को यदि पहचानना है तो पदयात्रा ही सबसे बढ़िया साधन है । ग्रामीण अंचलों की मूल आत्मा पदयात्रा के द्वारा ही पहचानी जा सकती हैं । देश की मौलिक संस्कृति, देश के मूल निवासियों की नागरिकता, भारतियों की भारतीयता यदि ये सब चीजें कहीं पहचानने के लिए हम जायें तो गाँव गाँव में जायें और उसके लिए सबसे बढ़िया और सबसे सस्ता साधन पदयात्रा है । देश-दर्शन, स्वाध्याय, सत्संग, ज्ञानार्जन ये सब पदयात्रा के माध्यम से स्वतः हो जाते हैं । गाँव-गाँव में जाते हैं और अनुभव संस्कृति है । पद-यात्री निकटता से हर चीज को देख सकता है । उसमें यांत्रिकता नहीं, हार्दिकता होती है । वह जितनी सहजता और समीपता से लोगों के जीवन, भावों तथा सांस्कृतिक मूल्यों का आकलन कर पाता है, वह द्रुतगामी वाहन- यात्रियों के लिए शक्य नहीं है । इसलिए वह प्रभावना कर बैठता है । करते हैं कि इस गांव की कैसी एक व्यक्ति जापान से भारत आता है दिल्ली पहुँच गया दिल्ली घूम लिया । वापस जापान चला गया कहेंगे भारत घूम आये । अरे भारत पोड़े घूमे हैं आप तो जापान में ही घूमे हैं । दिल्ली जापान ही तो है और क्या है ? गाँव-गाँव में जाते तो आपको असली भारत का पता लगता, नहीं तो आपको क्या पता लगेगा । जो दिल्ली में है वह टोकियो में भी मिल जायेगी । शहरों की सभ्यता तो जो जापान में For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदयात्रा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में है वह दिल्ली में भी मिल जायेगी। लेकिन ग्रामीण सभ्यता को पहचानना है तो हमें गाँवों-गांवों में पर्यटन करना होगा। धर्म-कर्म शहर में थोड़े ही है; यहाँ तो दिखाना अधिक है। असली धर्म तो गाँवों में है। आज हम, मैं अपने ऊपर ही कहता हूं यदि विमान यात्रा करता हूं तो उसमें कितने लोगों को घाटा होगा । मुझे दिल्ली से कलकत्ता आना है। हवाई जहाज में चढ़ा यहाँ पहुँच गया। मार्ग में कितने ही गाँव आये हैं, जितने भी धर्म अनुयायी हैं सब हमसे अछूते रह गये और हम उनसे अछूते रह गये । हमारी जाति अस्पृश्य जाति हो जायेगी। वे बिचारे गाँव गाँव में रहने वाले कब मुनियों का सत्संग कर पायेंगे। पदयात्रा ही ऐसा साधन है जिनके द्वारा उन्हें उनके धर्म का उपदेश मिल जाता है इनके गुरुओं का दर्शन हो जाता है उपदेश मिल जाता है। वे हिन्दू है तो उन्हें ज्ञात हो जाता है कि हिन्दू धर्म क्या है और हम हिन्दू हैं और यदि वे जैनी हैं तो उन्हें यह बोध हो जाता है कि हम जैनी हैं और हमारा जैन धर्म क्या है। आपको सच्ची श्रद्धा गांव में ही मिलेगी। हमारे आचार और विचार की गंगा यमुना को गांव गाँव में प्रवाहित करने वाली है यह पद यात्रा। इस पद-यात्रा के बहाव ने कितने-कितने लोगों के पापों का प्रक्षालन किया है बड़ी प्रभावना हुई इस पद-यात्रा के कारण भारतीय संस्कृति की। एक पदयात्री साधक हजारों-हजारों लोगों को निर्मल करता है। यह ठीक वैसे ही जैसे एक दीपक से हजारों दीपक जलाये जाते हैं। मेरी एक कविता है कि ज्योति से ज्योति अगिन ज्योतियां, बढ़ता यों ज्योतित संसार । नदी से नदी असीम नदियां, निर्मित उससे पारावार । ज्योति ज्ञान की, नदी प्रेम की, स्पर्श करें धारा में धार । कहां रहेगा तमस्-राज्य फिर, अकाल-पीड़ा बारम्बार ॥ पद-यात्रा में ज्ञान की ज्योति और प्रेम की सरिता घर-घर पहुंचाई जाती है। पद-यात्रा के द्वारा एक-एक को सुधारने का प्रयास किया जाता है। 'कहाँ रहेगा तमस्-राज्य फिर'-अन्धियारे का प्रभुत्व तमसावृत्त वातावरण हर घर से हटाने का माध्यम है पद-यात्रा। यदि हम पद-यात्रा को छोड़ देंगे तो हमें बहुत-बहुत घाटा होगा। नुकशान ही नुकशान होगा फायदा कुछ नहीं होगा शहर वालों को तो घण्टाभर क्यों, चौबीस के चौबीस घण्टे समझा दो लेकिन चौबीस घन्टे के बाद तो जैसे ही अपनी दुकान में For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदयात्रा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ५५ गये वापस वही गृहस्थी वही चोरी-चपेटी सब कुछ वही । ग्रामीण को कह दिया सुन लिया बात ठीक है जंच गयी वापस वैसा कभी नहीं करेंगे । भले ही दो पैसा कम -- आमदनी हो लेकिन वैसा काम नहीं करेंगे । तो पद यात्रा, मैं विमान यात्रा का विरोधक नहीं हूं लेकिन पद यात्रा के महत्व को तो इन्कार नहीं किया जा सकता, उसको नकारा नहीं जा सकता । उसके महत्व पर यदि कोई लांछन लगाता है तो गलत है । विमान यात्री जब विमान यात्रा करेगा, तो विमान यात्रा की महिमा गायेगा यहाँ तक तो बात जंचती है, किन्तु उन्हीं के द्वारा पद यात्रा का विरोध करना जंचता नहीं है । किसी को विमान यात्रा भा गई, वह विमान यात्रा करे । किसी को पद यात्रा भा गई, वह पद-यात्रा करे । विमान यात्रा में फायदा केवल शीघ्रगम्यता और समय का है । इसके अलावा कोई फायदा नहीं है । घाटा अधिक फायदा कम है इसमें । अब मैं देखता हूं कि जो जैनसाधु लोग विमान यात्रा करते हैं, वे भीतर से बड़े घबड़ाए हुए से लगते हैं । उन्हें समाज का सबसे बड़ा भय है । इसीलिए कुछेक साधु लोग वाहन - यात्रा तो करते हैं किन्तु कहते यही हैं कि हम पैदल विहार करके आये हैं । कारण उन्हें डर है कि यदि वे यह कह देंगे कि हम वाहन से आए हैं तो शायद समाज सम्मान की दृष्टि से उन्हें न देखें । इस तरह सत्यमहाव्रत का पालन करने वाला समाज भीरु व्यक्ति असत्य का अनुसरण कर लेता है । मैं जब बनारस में था, तो ऐसी घटना घटी थी एक प्रतिष्ठित सन्त आये रात के साढ़े सात बजे, बड़े पढ़े-लिखे थे । स्थानकवासी थे, खैर, उससे मतलब नहीं । हमने उनका प्राथमिक स्वागत किया । किन्तु वहाँ के डायरेक्टर को शंका हो गई कि सूर्यास्त हुए दो-सवा दो घन्टे हो गये और अब जैन मुनि उसमें भी फिर स्थानकवासी का पदार्पण | बात कम जंची । जाँच-पड़ताल की। जो रिक्सा या टैक्सी वाला उन्हें लेकर आया था, उसको क्या मालूम, उसने उस आश्रम के एक कर्मचारी से यह जिक्र किया । उसने डायरेक्टर को बताया और उन्होंने हमें । जबकि वे सन्तजी इस तरह से बोलते थे कि मैं इस इस मार्ग से होता हुआ आया हूँ, पैदल चलकर । आखिर जब रहस्योद्घाटन हुआ, तो उन्होंने यह स्वीकार कर लिया कि मैंने वाहन का उपयोग किया था । अब मैं कहता हूँ कि ठीक है, वाहन का उपयोग किया, तो फिर उसे छिपाने की जरूरत ही क्या है । यदि समाज से इतने अधिक डरते हो, तो वाहन पर चढ़ते ही क्यों हो । पैदल चलो और सम्मान पाओ । रही बात हमारे द्वारा उन्हें नमन की, तो हम तो हर एक को आदरणीय समझते हैं । सारी मानव-जाति एक है । क्षुद्र से क्षुद्र जीव में भी चेतना की अनन्त ज्योति रहती है तो वे तो आखिर सन्त हैं । क्रियाओं के द्वारा ही किसी सन्त की परीक्षा करना मैं अच्छा नहीं मानता । और बाहरी जो ऊपर For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ पदयात्रा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में का देखता है, उसे सागर खारा लगता है। भीतर-अन्दर की ओर झाँको, तो मोतीरत्नों की भी सम्भावना होती है। हम उपाध्याय अमरमुनि से मिले। परस्पर प्रभावित हुए। हमने उन्हें नमन किया और उन्होंने हमें गले से लगाया। कुछ लोगों को यह बात कम जची। उस समय वहाँ पर श्री गणेश ललवानी, श्रीमती राजकुमारी बेगानी वगैरह थे, उन्हें यह कार्य अच्छा लगा और उन्होंने हमें कहा कि आपने तो वास्तव में अपने गच्छ के अनुकूल और गौरवपूर्ण कार्य किया है। खैर ! यह तो अपना अपना दृष्टिकोण है। पर गुणग्राहकता होनी चाहिये। गृहस्थ-श्रावक भी तो कई तरह के होते हैं, अच्छे बुरे परन्तु सबको परस्पर जय-जिनेन्द्र या प्रणाम करना चाहिए-यह एक व्यावहारिक संस्कृति है। तब फिर साधु लोग यदि एक दूसरे का अभिवादन नहीं करेंगे, तो फिर साधुता कहाँ ? आचरण और निश्चय में बाद में प्रवेश करो, पहले व्यवहार को देखो। कौन कैसा है, उससे हमें कोई प्रयोजन नहीं है, हमें तो अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व को पूरा कर देना चाहिये। वाहन यात्रा के सम्बन्ध में जब और भी दूसरे मुनिगण कभी-कभी मुझे कुछ कहते हैं तो मैं उनसे यही कहता हूँ कि हमारी चाल भले ही कछआ-छाप हो लेकिन हम आपकी खरगोश-चाल से पीछे नहीं रहेंगे। विजय कछुए की होती है, जो जितेन्द्रिय, है और यतनापूर्वक चलता है। यदि कोई यह पूछता है कि आज के विज्ञान के युग में आवागमन के द्रुतगामी साधन उपलब्ध हैं और मनुष्य शब्द की गति से यात्रा करने की तैयारी कर रहा है तो पद यात्रा के मार्ग का प्रतिपादन करना क्या युक्ति संगत है। ___ मैं कहता हूँ यह तो इतना युक्ति संगत है कि इसकी युक्ति को तो कोई काट ही नहीं सकता। रवीन्द्रनाथ टैगोर सम्पन्न व्यक्ति थे, लेकिन फिर भी वे जब भी यात्रा करने के लिए निकलते तो ऐसी ट्रेन में ऐसी रेल में बैठते जो पहुंचाने में अधिक से अधिक समय ले। जब उनसे पूछा गया कि आपका टिकट कटा है एक्सप्रेस गाड़ी की प्रथम श्रेणी का। आप उसमें क्यों नहीं जाते ? तो रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा कि मुझे एक्सप्रेस नहीं चाहिए, मुझे प्रथम श्रेणी नहीं चाहिए। मैं तो जनता रेल में जाऊँगा जनता ट्रेन में ही जाऊँगा। वह धीरे-धीरे जाती है। इससे प्रकृति के सौन्दर्य का पान होता है। सच तो यह है कि पदयात्री को जैसा प्रकृति के सौन्दर्य का भान होता है, वैसा वाहन यात्री को कहाँ हो सकता है। रेल में अथवा हवाई जहाज में बैठे और गंतव्य स्थल पहुँच गये। प्रकृति का आनन्द हम नहीं ले पाये। प्रकृति का आनन्द लेने के लिए हमें पैरों-पैरों ही चलना पड़ेगा। थोड़ी साधना करनी पड़ेगी। प्रकृति का आनन्द मुफ्त में नहीं मिलता। शारीरिक कीमत चुकानी पड़ती है। जाता है व्यक्ति स्वयं प्रकृति का आनन्द पाने के लिए। हम लोगों में तो बहुत बार बातचीत होती है कि देखो कितना बढ़िया है यह सीन। चारों तरफ कितनी अच्छी सीनरी दिखाई For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदयात्रा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पड़ रही है। बहुत बार तो हमें ऐसा लगता है कि आज हम यदि पदयात्रा न करें तो इस सीनरी से वंचित रह जायेंगे। कहाँ भीड़ से संकुल यात्रा और कहाँ नीरव तथा पदयात्रायें। वाहन यात्रा तो पराधीनता है और पदयात्रा स्वाधीनता है। जब इच्छा चल पड़े। वाहन यात्रा में ऐसा नहीं होता। जब ट्रेन अथवा हवाई जहाज का समय है उसी समय हमें जाना पड़ेगा। पदयात्रा अरे ! जब इच्छा हुई निकल पड़े। कहते हैं न, बहता पानी रमता जोगी। जब उसकी इच्छा हुई रमण करने के लिए चला गया निकल पड़ा। इसमें किसी की अधीनता स्वीकार नहीं करनी पड़ती और दूसरे में वाहन यात्रा बड़ी खर्चीली यात्रा है। बड़ा खर्चा लगता है उसमें और साधु, सन्त, साधु को तो वाहन यात्रा करनी ही नहीं चाहिए। क्यों ? क्योंकि जो व्यक्ति वाहनयात्रा करेगा उसे पैसा रखना ही पड़ेगा। पैसा कमाने के लिए, पैसा जुगाड़ करने के लिए कोई न कोई अटकलबाजी लगानी ही पड़ेगी। बिना अर्थ के वाहन-यात्रा नहीं हो पायेगी। अत्थो मूलं अणत्थाणं यह आगम वाक्य है। अर्थ अनर्थ का मूल है अतः एक अपरिग्रही और अहिंसक साधक के लिए अर्थ जुटाना न केवल उसके चरित्र सम्बन्धी पतन का माध्यम होगा अपितु उसे पूजीपति और सेठ साहुकारों का आश्रय भी स्वीकार करना पड़ेगा। वह पराधीन हो जायेगा। उसका स्वावलम्बीपन और निरपेक्षता पूर्ण जीवन वाहन यात्रा में बिलकुल खतम हो जाता है अहिंसा का महान आदर्श धूमिल हो जायेगा। ऐसी स्थिति में वह साधक या साधु नहीं रहेगा अपितु सांसारिक वृत्तियों में रचा-पचा गृहस्थ ही होगा। यह तथ्य हम दशवैकालिक सूत्र में देख सकते हैं। आज हमें कोई अपेक्षा नहीं है। ठीक है, मार्ग में सुविधा न होने के कारण पदयात्रियों को अपनी व्यवस्थायें करवानी पड़ती है। इतना होते हुए भी वह स्वावलम्बी है, निरपेक्ष है। आपने नहीं दिया कोई बात नहीं, हमारे तो 'माई-माई बहुत ब्याहीं', आगे फिर देखेंगे। चलते चलो मञ्जिल वञ्जिल पूछे कौन, चलो जहां तक रस्ता जाए। घाट का पानी घाट लगे और बहता पानी बहता जाए। बढ़ते चलो आगे चलते ही चलो। जो साधक अध्यात्म जगत में रमण करता है। उसके लिए तो मैं जहाँ तक सोचता हूँ पदयात्रा ही उचित और युक्त है। अन्यथा समाज को भी घाटा, हमको स्वयं को भी घाटा पर कल्याण के लिए यदि हम वाहन को अपनाते हैं, तो हमारे लिये पर कल्याण के लिए भी बाधक है, स्वकल्याण में भी बाधक है। मैं आपसे कहूंगा कि अरे भाई ! मुझे यहाँ से दिल्ली जाना है हवाई जहाज में। पन्द्रह सौ रुपया टिकट दर है, व्यवस्था कर देना। वे किसी भी हालत में नहीं करेंगे। कोई भी नहीं करेगा और हम कह देंगे हम यहाँ से दिल्ली जा रहे हैं। दस हजार का खर्चा है पदयात्रा से जायेंगे। दस क्या पन्द्रह लगेंगे तो पन्द्रह की भी For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ पदयात्रा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में व्यवस्था हो जायेगी । उस पन्द्रह को खर्च करने में उसे असुविधा नहीं होगी, लेकिन डेढ़ हजार खर्चा करने में उसे पचास तरह से विचार करना पड़ेगा। यही तो साधना है | साधना मार्ग अपनाने के बाद भी यदि यह सोचा जाय कि समय ज्यादा लग जायगा तो साधना कैसी । मैं आपको एक बात बताऊँ । जब मैंने खादी पहनना शुरू किया तो उस समय जब खादी खरीद की गयी लगा कि बाप रे बड़ी महंगी है खादी तो । यानी यह बीमारी तो औषधि से भी ज्यादा महंगी पड़ी। आखिर एक वरिष्ठ श्रावक हमारे पास आये और बड़े महाराज जी से बात बात में कह दिया कि भाई नाम तो खादी है लेकिन खर्चा इतना लग जाता है कि हमारे तीन के कपड़े बन जाये तो भी इनका एक का नहीं बनता । उन्होंने कहा कि आपके दस साधुओं के कपड़े का खर्चा यदि एक साधु पर लगता है तो हम खादी पहले बनवायेंगे मील के कपड़े को अपेक्षा । इसी को तो विवेक कहते हैं । तो मैंने यह अनुभव किया कि आज वाहन यात्री जितने भी हैं, देख लीजिए उसकी कितनी कदर है । और जो साधु वाहन यात्रा करते हैं उनमें भी जैन साधु । वह जैन संघ द्वारा ज्यादा श्रद्धा केन्द्र नहीं बन पाता । लोग उनकी तुलना चैत्यवासी या शिथिलाचारी साधुओं से करते हैं । जबकि बहुत जगह हमने देखा पदयात्री साधु भले ही कुछ पढ़ा लिखा हुआ न हो भले ही उसके पास कुछ न हो, लेकिन फिर भी उसको कुछ सूझ-बूझ है । वह पूज्य की दृष्टि से देखा जाता है । आज जब राजनेता चन्द्रशेखर ने अपनी पार्टी का प्रचार करने के लिए पद यात्रा का माध्यम लिया तो देश के सारे अखबार भर गये, केवल पदयात्रा के द्वारा पदयात्रा के कारण । सभी लोग पदयात्रा की महिमा गाने लगे क्योंकि उन्होंने पदयात्रा का अनुभव उसी समय किया जब स्वयं चले । सभी अखबारों में पदयात्रा ही पदयात्रा और यह निश्चित है कि वह व्यक्ति भले ही न जीता हो, लेकिन उसको बहुत बड़ी सफलता मिली पदयात्रा के द्वारा । हम तो आजकल यह भी सुनते हैं कि दूसरी पार्टी कांग्रेस आई वह भी अपनी पार्टी का प्रचार करने के लिए अपने नेताओं को प्रेरणा दे रही है कि पदयात्रा करो । अब उनको होश आया है कि हम पदयात्रा करें । वाहन यात्रा से तंग आ गये हैं लोग । वे चाहते हैं कि अब पदयात्रा करें। इसके द्वारा भी हम प्रचार करें प्रसार करें। हम जब इधर बंगाल में आये न । तो कहते हैं कि हम बनारस से आये हैं । आपनी बनारस थेके एसेछेन दादा ! बनारस थेके पाये पाये, हेटेहेटे । उनको बड़ा आश्चर्य होता । पदयात्रा इतनी लम्बी ! जबकि हम तो सारी जिन्दगी ही ऐसे चलते रहते हैं । उनके लिए बड़ा आश्चर्य और हमारे लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं । जैसे वाहन यात्रा एक साधन बन गई वैसे पदयात्रा एक साधन बन गया । For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदयात्रा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में __तो प्रश्नकर्ता ने जो प्रश्न किया है कि क्या पदयात्रा का प्रतिपादन करना युक्ति संगत है ? पदयात्रा का प्रतिपादन करना निश्चित रूप से युक्ति संगत है। मैं इसलिए नहीं कहता कि मैं स्वयं पदयात्री हूँ। मैं तो सत्य बता रहा हूँ। जो सत्य है वह कह रहा हूं। मैं क्या हूँ यह नहीं बताना चाहता हूं। सत्य क्या है यह बताना चाहता हूं। यह बात अलग है कि मैं स्वयं उस सत्य का पालन करता हूँ। ज्ञात सत्य का पालन और पालित तथा आचरित सत्य का ज्ञान दोनों एक तराजू के दो पलड़े हैं। . For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शवाद-यथार्थवाद प्रवचन-समय ११ जुलाई १९८५ प्रवचन-स्थल जैन भवन, कलकत्ता For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न है : सत्य आदर्शवाद में है या यथार्थवाद में ? यदि यथार्थवाद में है तो आदर्शवाद की इतनी महिमा क्यों और यदि आदर्शवाद में सत्य है तो यथार्थवाद का क्या अर्थ ? __ मानव जीवन के दो पहलू हैं। एक तो वह जो हमें दिखाई देता है और दूसरा वह जिसे हम चाहते हैं। जो दिखाई देता है, वह यथार्थवाद है। जिसे हम चाहते हैं वह आदर्शवाद है। दिखाई तो हमें देता है जीवन दुखों से भरा हुआ, लेकिन चाहते हैं हम, जीवन को परम सुखी बनाना। चाहना अलग चीज है और जो सत्य दिखाई देता है, वह अलग चीज है। जो दिखाई देता है उसमें तो हम देखते हैं कि चारों तरफ अन्याय, अत्याचार, अराजकता और अनैतिकता है। लज्जा और मर्यादा के मकड़ीजाल के भीतर हमें व्यभिचार ही व्यभिचार दिखाई देता है। जो दिखाई देता है उसे देखकर आदमी दुःखी हो जाता है। जो दिखाई देता है वह हमेशा यथार्थवाद ही होता है। किन्तु जो हमें दिखाई देता है उसके परे भी कोई चीज है। जो जीवन में दृष्टिगोचर होता है उसके परे भी कोई स्वरूप है। इस जीवन से परे भी कोई जीवन है। इस संसार से परे भी कोई संसार है। इस पति से भी परे कोई पति है। इस सुख से परे भी कोई सुख है। यही तो है आदर्शवाद । ___ यथार्थवाद में तो जहाँ फूल हैं, वहाँ काँटें भी हैं। जबकि आदर्शवाद में केवल फूल ही फूल हैं, वहाँ काँटों का नामोनिशान भी नहीं है। इसलिए आदमी देखता तो है काँटों को और फूलों को-दोनों को ही, लेकिन जिसे चाहता है वह केवल फूल ही फूल हैं । आदमी काँटे को कभी नहीं चाहता है। बस, काँटे को न चाहना केवल फूल ही फूल को चाहना ही आदर्शवाद है। यही अन्तर है आदर्शवाद और यथार्थवाद में। वस्तुतः मनुष्य का जीवन कंटकाकीर्ण है। यह जीवन दुःखों और कष्टों से भरा हुआ है। जन्म और मरण मनुष्य-जीवन की सबसे बड़ी और सबसे चरम वेदना है। जन्म और मृत्यु से बढ़कर और कोई दूसरा कष्ट नहीं है हमारे जीवन में। हमारा जीवन तो प्रायश्चित है जन्म-मरण की वेदना के रूप में। जीवन, जन्म और मरण ये जो दो वेदनायें हम भोगते हैं, उसके बीच का एक पछतावा है। और यह पछतावा करते-करते आदमी अपनी सारी जिन्दगी में चैन की एक साँस भी नहीं ले पाता। जब भी देखें उसके जीवन में आकुलता है, व्याकुलता है, कष्ट आये हुए हैं, जीवन दुखों से भरा हुआ है। लेकिन इतना होते हुए भी मरना कोई नहीं चाहता। जन्म और मरण अपने आप में बहुत बड़ी वेदनायें हैं लेकिन आदमी यही कहता है कि जीवन तो वरदान है। वास्तव में जीवन मिला है पश्चाताप करने के लिए। लेकिन वह जीवन हमारे लिए वरदान सिद्ध हो जाता है और इसीलिए आदमी दीर्घायु होने की कामना करता For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शवाद-यथार्थवाद है। पैरों से पंगु हो गया है, हाथ की अंगुलियां सड़ रही हैं, मुंह से लार टपक रही है, बिस्तरों पर सोये पड़े रहते हैं, घर वालों के लिए केवल बोझ बने हैं लेकिन फिर भी आदमी दीर्घायू ही चाहता है। नारी भयंकर से भयंकर वेदना प्रसव-वेदना सहती है कितनी भयंकर वेदना होती है प्रसव की, इसका अनुभव तो स्वयं नारी ही कर सकती है। हम लोग तो केवल सुनते हैं। परन्तु जब सुनते और पढ़ते हैं कि प्रसव के समय कितनी वेदना होती है । ओह ! उसे पढ़ते समय हम लोगों के भीतर एक चीख उठ जाती है, लेकिन इतना होते हुए भी हर स्त्री अपने जीवन में कम से कम एक बार तो गर्भवती होना ही चाहती है । किसी न किसी प्रयास से एक पुत्र को पैदा करना ही चाहती है। वह लालायित रहती है, बेटे को पाने के लिए भले ही सहनी पड़े उसे बड़ी-बड़ी वेदनाएँ। क्योंकि उसमें आशा का संचार है। आदमी रोग की शय्या पर पड़ा है, लेकिन फिर भी किसी आशा की सम्भावनायें लिये हुए हैं। गर्भवती है। प्रसव-वेदना सहती है स्त्री, आशा को लिये हुए ही सहती है। बस यह आशा का संचार ही आदर्शवाद है जीवन का । भले ही कोई भी पहल ले लें। भले ही काव्य साहित्य को ले लें। भारतीय जीवन में तो कम से कम, आदर्शवाद की ही झलक दिखाई देगी और इसीलिए भारतीय संस्कृति आदर्शवाद को ही यथार्थवाद कहती है । काव्य के जितने लक्षण बताये गये हैं वे सब के सब वस्तुतः आदर्शवादात्मक दृष्टिकोण को ही लिए हुए हैं। इसीलिए भारतीय काव्य, भारतीय महाप्रबन्ध, भारतीय नाटक, उनका अन्त कभी भी दुखान्त नहीं होता कोई भी नाटक, महाकाव्य या महाप्रबन्ध ऐसा नहीं मिलता, जिसका अन्त दुखान्त हुआ हो। हर नाटक का, हर उपन्यास का अन्त भारत में सुखान्त ही करते हैं। उसका मूल दृष्टिकोण आदर्शवाद ही हैं। आजकल भारत में जो फिल्में चलती हैं उनमें भी हम देखते हैं कि उनका समापन भी अधिकांशतया सुखान्त ही होता है, दुखान्त नहीं होता। शुरूआत में दिखा देते हैं माँ के दो बेटे अलग-अलग हो गये, बीच की पूरी फिल्म में दोनों भाईयों के बीच में या तो युद्ध दिखायेंगे, लड़ाई दिखायेंगे, संघर्ष दिखायेंगे और जब फिल्म समाप्त होगी तो दोनों भाई एक दूसरे से गले मिलते हुए दिखाई देते हैं। इसीलिए भारतीय फिल्मों में किसी भी तरह की प्रेरणा नहीं है क्योंकि जब आदमी फिल्म-हाल से फिल्म देखकर निकलता है तो उसके मन में एक खुशियाली होती है कि दोनों भाई मिल गये । उसका मूल कारण यही होता है कि भारत हमेशा आदर्शवाद के दृष्टिकोण को ही केन्द्र बिन्दु रखता है। जबकि पाश्चात्य जगत में, विदेशों में जो भी फिल्में बनती हैं, जो भी नाटक होते हैं उनका समापन हमेशा दुखान्त ही होता है। आदमी जब फिल्म हाल से निकलता है तो पाश्चात्य लोग कहते हैं कि वह किसी न किसी प्रेरणा को लेकर बाहर आना चाहिए। पाश्चात्य फिल्म इस तरह की होती है कि जैसे एक आदमी दूसरे For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शवाद-यथार्थवाद आदमी के पेट में छुरा घोंपता है तो छुरा घोंपने के कारण उसका कितना दुष्परिणाम उसे भोगना पड़ता है। बस वह दुष्परिणाम भोगते-भोगते ही फिल्म का समापन कर देते हैं। आदमी जब फिल्म देखकर बाहर निकलता है तो उसके भीतर एक विचित्र प्रकार की बेचैनी आ जाती है कि अरे यदि मैं भी किसी के पेट में छरा घोपूगा तो मेरी भी यही दशा होगी। अतः पाश्चात्य फिल्मों के द्वारा यथार्थवाद की झलक हमेशा दिखाई देगी और भारत हमेशा आदर्शवाद को मुख्यता देता है। आदर्शवाद वास्तव में भारत की उपज है और यथार्थवाद पाश्चात्य की उपज है। भारत में आज से नहीं अपितु हजारों-हजारों वर्षों से हमेशा आदर्शवाद की ही परम्परा रही है और पाश्चात्य जगत में शुरू से ही हम चाहे जिसके नाटक, चाहें सेक्सपीयर के नाटक, चाहे जिस साहित्य को उठाकर पढ़ लें, लेकिन यथार्थवाद का दृष्टिकोण ही वहाँ मुख्य होगा। भारत में तो बड़ी महिमा गाते हैं आदर्शवाद की। शील का जैसा परिपाक भारतीय साहित्य में मिलता है वैसा परिपाक और कहीं नहीं मिलेगा लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पाश्चात्य-जगत् जो कि आदर्शवाद की उपेक्षा करता है वह सही नहीं है। जो वह भारत के आदर्शवाद को केवल एक कल्पना का कबूतर कहता है और यह कर भारतीय आदर्शवाद की खिल्ली उड़ाता है वह ज्यादा सही नहीं है। आदर्शवाद में कुछ कल्पना आ सकती है लेकिन आदर्शवाद असत्य से भरा हआ नहीं रहता, यथार्थवाद का विरोधी नहीं होता। शकुन्तला का प्रणय, राधा और मीरा की प्रेम-भावना, सीता का त्याग, राम की मर्यादा, भीष्म का ब्रह्मचर्य यद्धस्थल में कृष्ण का उपदेश—ये सब जीवन की ठोस अनुभूतियों को व्यक्त करते हैं। इनको हम केवल कल्पना ही नहीं कह सकते। ऐसा कहने में पाश्चात्य-जगत् चाहे जो कहे क्योंकि पाश्चात्य-जगत् में तो मूलतः उमर खय्याम की 'खाओ पीओ और मौज उड़ाओ' की भूमिका है। इस खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ से ही राजनीति में मार्शदर्शन पैदा हआ और मनोविज्ञान में फ्रॉयडवाद का जन्म हुआ था। फ्रॉयड के सिद्धान्त और मार्क्स दर्शन के सिद्धान्त काम और क्षुधा की शान्ति करने के लिए ही पनपे हैं। इसलिए मार्क्स के जितने भी सिद्धांत हैं और फ्रायड के जितने भी सिद्धान्त हैं सारे के सारे सिद्धान्तों में काम और क्षुधा की कैसे तृप्ति हो, यही बात मुख्यतः मिलेगी। ठीक है, काम और क्षधा से जीवन की एक महत्वपूर्ण प्रवृत्तियाँ है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि काम और क्षुधा से परे कोई आदर्श और यथार्थ होता ही नहीं है। आजकल भारत में जो आदर्शवाद के लिए डींगे हाँकी जाती हैं, वह आदर्शवाद तो बिल्कुल असत्य से भरा हुआ है। आज का जो आदर्शवाद है, वह तो ऐसा बन गया है कि कहेंगे कुछ और करेंगे कुछ उसमें विकृति आ गई है। मैंने पढ़ा है कि बड़ौदा में जहाँ सयाजीराव गायकवाड़ की अध्यक्षता में अहिंसा पर एक संगोष्ठी आयोजित की गई थी तो संगोष्ठी में एक युवक खड़ा हुआ For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ आदर्शवाद यथार्थवाद । और अहिंसा पर भाषण देने लगा । भाषण बड़ा जोशीला था । लोग बड़े ही प्रभावित हुए कि क्या कला है आदमी के पास बोलने की अहिंसा पर एक आदमी ने कितने नये-नये प्रकार की रहस्यों का उद्घाटन किया है। लोग बड़े प्रभावित हुए वह युवक करीब आधे घण्टे बोला होगा कि अचानक उसने देखा कि मेरी ललाट पर पसीना आ गया है । उसने पसीने को पोंछने के लिए जेब से रूमाल निकाला । जब रूमाल निकालकर पोंछने लगा तो उसे यह ध्यान नहीं रहा कि रूमाल में तो वह चीज थी जिसका मैं भाषण में विरोध कर रहा हूँ । वह चीज नीचे गिरी और फूट गयी । लोगों ने उसके ऊपर पत्थर मारे और कहा कि जो आदमी अण्डे का विरोध करता है, उसी आदमी के जेब से यदि अण्डा निकल जाये तो वह अहिंसा का आदर्श और अहिंसा का यथार्थ कहाँ रहा ? आज का आदर्शवाद और यथार्थवाद तो बड़ा ही छिछला हो गया है पहले जमाने का जो आदर्शवाद हम पढ़ते हैं वह वास्तव में यथार्थवाद से भरा हुआ था । आजकल लोग जिस साम्यभावना का विकास करवा रहे हैं आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व तो बिल्कुल ऐसी ही साम्यभावना थी । सैकड़ों वर्ष पूर्व एक भिक्षुक, एक साधु की बहु कद्र होती थी जितनी कि आज एक प्रधान मन्त्री की भी नहीं होती है । भिक्षुक, जिसके पास रहने के लिए झोंपड़ी नहीं, पहनने के लिए कपड़ा नहीं, खाने के लिए भोजन की व्यवस्था नहीं, लेकिन फिर भी उसके चरणों में स्वयं राजा आकर झुकता था यही तो भारत की आदर्शवादिता है । पाश्चात्य जगत् में भी यह आदर्शवादिता हमें दिखाई दे जाती है । जब रोम के नेता जिसका नाम कूरियस था. सेमाइट जाति के लोग उसके पास पहुँचे और कहा कूरियस ! यदि तुम हमारे पक्ष में आ जाओ तो हम तुम्हें उतना सोना देगें, जितना तुम्हारे शरीर का भार है । कूरियस उस समय खाना पका रहा था । कूरियस ने कहा कि तुम लोग कितने महामूर्ख आदमी हो कि जो कूरियस गाजर पका पका कर अपना जीवन चला सकता है वह तुम्हारे सोने से कभी भी आकर्षित नहीं होगा । उसके लिए सोना और अर्थ की कीमत ही नहीं है । उसके लिए तो आदर्श ही बहुमूल्यवान है । आज का जो आदर्शवाद और यथार्थवाद है वह प्राचीनकाल के आदर्शवाद और यथार्थवाद से बहुत ही विचित्र है । आज का जो यथार्थवाद है, ठीक है वह बहुत सीमा तक उचित है । और इस यथार्थवाद की आज अपेक्षा भी थी । क्योंकि लोग केवल आदर्शवाद को ही पकड़े हुए थे । यथार्थ क्या है लोग इससे अलग हो गये थे । लेकिन पाश्चात्य - जगत् की इस भावना को भी हम स्वीकार नहीं कर सकते कि भीष्म का ब्रह्मचर्य, राम की मर्यादा, महावीर और बुद्ध का त्याग – ये सब केवल कल्पनायें हैं ये भी सत्य हैं । ये भी यथार्थ से पूरित आदर्श हैं । 1 For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शवाद-यथार्थवाद आज के जो यथार्थवादी हैं उनका दृष्टिकोण मुख्यतः उद्धार के हो लिए तो है फिर वह चाहे नारी हो चाहे शोषित मजदूर हो अथवा चाहे वृद्ध किसान हो लेकिन उनका उद्धार बड़ा विचित्र है। जहाँ पर आज का यथार्थवाद यह कहता है कि नारी को उसका अधिकार मिलना चाहिए। वहाँ तक तो ठीक है। लेकिन जहाँ पर यथार्थवाद यह कहता है कि नारी केवल एक मनुष्य के अधीन नहीं रह सकती वह स्वतंत्र है। जिस तरह से पुरुष स्वतन्त्र है एक से अधिक नारी रखने के लिए, वैसे ही नारी भी स्वतन्त्र है एक से ज्यादा पुरुष रखने के लिए। यहाँ पर भारतीय आदर्शवाद पाश्चात्य आदर्शवाद से बिलकुल अलग हो जायेगा । आज का यथार्थवादी दृष्टिकोण कहता है "मुक्त करो नारी को मानव ! चिरबंदिनी नारी को। युग-युग की बर्बर कारा से ! जननी सखी प्यारी को । मुक्त करने की बात तो ठीक है। जहाँ पर नारी के लिए यह कहाँ जाता है अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी। आंचल में है दूध और आंखों में पानो ॥ ये बात बिलकुल ठीक है । एक ओर तो आँखों से आँसू बहते हैं क्योंकि पुरुष केवल उसको अपनी जूती समझता है और नृशंष्यता व अत्याचार करता है। वहाँ पर तो यथार्थवाद की यह पुकार निश्चित रूप से नये आदर्शवाद को जन्म देगी। यथार्थवाद की जो यह पुकार है जैसे हम शोषित मजदूरों और शोषित किसानों के लिए भी लें तो यह कहना यथार्थवाद का सही है कि एक ओर तो गरीब आदमी को खाने के लिए रोटी नहीं मिलती, वहीं पर धनियों के कुत्ते महलों में रहते हैं और उनके खाने के लिये दूध-मलाई, और जलेबियाँ दी जाती हैं। गरीब को रहने के लिए झोंपड़ी नहीं है, वहीं पर अमीरों के कुत्तों के रहने के लिए अच्छे-अच्छे मकान होते हैं। गरीब को हवा खाने के लिए हाथ पंखी नहीं है वहीं पर अमीर के कुत्तों के लिए एयरकण्डिशन लगे हुए हैं। गरीब को स्नान करने के लिए एक बाल्टी पानी नहीं मिलता अमीर के कुत्ते शैम्पू और लक्स साबुन से नित्य स्नान करवाये जाते हैं। जहाँ पर गरीब जिन्दा है लेकिन जिन्दा होते हुए भी उसका पालन-पोषण नहीं होता वहीं पर अमोर आदमी मर जाता है तो मरने के बाद उसका शृंगार किया जाता है। उसको वह रूप दिया जाता है जो कि वह जिन्दों को नहीं देता। यदि आदमी जीवित आदमी पर इतना खर्चा कर दे तो शायद उसके मरने की नौबत नहीं आती लेकिन मरने के बाद हम सजाते हैं। उसका शृंगार करते हैं। शव को भी हम रूप और रंग देते हैं । कब्रों और स्मारकों के सम्मान जन-जीवन की उपेक्षा न तो आदर्शवाद है और न ही यथार्थवाद है। पन्त ने कहा है शव का दें हम रूप रङ्ग, आदर मानव का ? मानव को हम कुत्सित, चित्र बना दें शव का ? For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ आदर्शवाद-यथार्थवाद गत युग के बहु धर्म-रूढ़ि के ताज मनोहर, मानव के मोहान्ध हृदय में किये हुए घर । भूल गये हम जीवन का सन्देश अनश्वर मृतकों के हैं मृतक जीवितों का है ईश्वर ! यथार्थवाद और आदर्शवाद की यहीं पर टक्कर होती है। यथार्थवाद और आदर्शवाद दोनों का हमें सामंजस्य करना होगा। गरीब लोग ये नहीं कहते हैं कि हमें मोती दो। वे तो कहते हैं कि हमें रोटी दे दो। मोती तो हम तुम्हें देते हैं। कम से कम हमें रोटी तो दे दो। लेकिन वे लोग गरीब को रोटी भी नहीं दे पाते। लेकिन आज के राजनीतिक लोगों की नजरों में तो है लंगोटी और बड़ी बड़ी बातें करते हैं। गाँधी की लंगोटी का आदर्श दिखाते हैं। गाँधी ने जो एक एक घर में जाकर और आदर्शवाद की स्थापना की थी, वह आदर्शवाद उनमें नहीं है। राजनीति में यदि आदर्श हो तो वह राजनीति अमृत है। यथार्थ और आदर्शवाद एवं यथार्थवाद से रहित होकर भाषण तो दिये जा सकते हैं, नारे तो लगाये जा सकते हैं, किन्तु वह केवल, चीखना-चिल्लाना होगा। यथार्थवाद अकेला ही शिव और सुन्दरकर नहीं होता है। यथार्थवाद तभी कल्याणकारी और लोकमङ्गलकारी होता है जब वह आदर्शवाद से समन्वित होता है और इसी तरह आदर्श भी केवल सच्चा आदर्शवाद नहीं होता यदि वह आदर्शवाद से समन्वित नहीं है तो जैसे कैबरा डान्स, डिस्को डान्स में, स्ट्रीपिरीज डान्स में नग्नता का सौन्दर्य है। आजकल नग्नता को भी एक सौंदर्य माना जाता है। ठीक है, वह यथार्थ का ही प्रगटन है, क्योंकि भीतर से सभी आदमी नंगे हैं, लेकिन यह उनका नग्न सौंदर्य आदर्श पूर्ण नहीं है। कोई भी आदमी नग्न को देखेगा तो या घृणा के मारे अपनी आँखों को बन्द कर लेगा या फिर उसके भीतर मनोविकार पैदा हो जायेंगे। तो यह यथार्थवाद यथार्थ होते हुए भी लोगों के लिए अमङ्गलकारी है। नग्न सौन्दर्य को आदर्श का आवरण देना ही होगा। अन्यथा वह यथार्थवाद समाज के लिए घातक सिद्ध हो जाता है। इसीलिए आज पाश्चात्य-जगत में खाओ पीओ और मौज उड़ाओ की निम्न भौतिक भूमिका ही रह गयी है क्षुधा को शान्त कर लो, काम पिपासा को शान्त कर लो, बस इतना सा ही रह गया है वहाँ का जीवन-दर्शन, वहाँ की विचार धारा। अतः दोनों का सामञ्जस्य होना चाहिए। पुनरुद्धार होना चाहिये। ____ मैंने पढ़ा है, जब सिकन्दर भारत पर आक्रमण करने आया था उस समय की बात है कि सिकन्दर पोरस की राज्य-सभामें बैठा हुआ था। दोनों बातचीत कर रहे थे। इतने में ही दो प्रजाजन वहाँ पर पहुंचे और न्याय की माँग की। तो पोरस ने कहा कि मैंने इस आदमी से एक साल पहले १० एकड़ जमीन खरीदी थी। अब बरसात का मौसम आ गया तो मैंने हल जोतवाना शुरू किया। जब हल जुत रहा था तो For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्शवाद-यथार्थवाद अचानक जमीन में से एक घड़ा निकला। वह घड़ा स्वर्ण मुद्राओं से भरा हुआ है। मैंने वह घड़ा ले जाकर इस आदमी को दिया जिससे कि मैंने जमीन खरीदी थी। क्योंकि मैंने तो केवल जमीन ही खरीदी थी न कि यह स्वर्ण-मुद्रा का घड़ा। इसलिए इस स्वर्ण मुहरों से भरे हुए घड़े पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। लेकिन यह आदमी घड़ा लेता ही नहीं है और कहता है कि जब जमीन को मैंने बेच दिया है तो उस जमीन से यदि सोना भी निकलता है तो उस पर भी मेरा अधिकार नहीं और उसमें यदि खेत से कुछ उगता भी नहीं है तो उससे भी मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। दूसरे आदमी को पोरस ने कहा कि भाई ! जब वह देने को तैयार है तब तुम इस स्वर्ण मुद्राओं को क्यों नहीं लेता तो उस आदमी ने कहा कि मेरा अधिकार ही नहीं है इस पर। जमीन मैंने बेच दी है अब उसमें जो भी निकलेगा सब पर उसका अधिकार है। मैं इसको नहीं लगा। बड़ी समस्या आ गयी। हम लोगों के तो स्वर्ण की मुहरें निकलती ही नहीं है और निकल जाये तो कोई किसी को खबर ही नहीं देता। जबकि पोरस के सामने दो व्यक्ति ऐसे खड़े हैं एक कहता है कि स्वर्ण मुहरों से भरा घड़ा मैं नहीं लूगा और दूसरे ने कहा कि मैं नहीं लगा। उसके सामने बड़ी विचित्र समस्या है। सिकन्दर ने सोचा पोरस इसका कैसा न्याय करता है । मैं भारत के आदर्शवाद के बारे में काफी सुन चुका हूं। आदर्श प्रजाजन में तो देख रहा हूं, राजा में कैसा आदर्शवाद है यह अब देखने जैसा है पोरस ने दोनों से पूछा कि क्या तुम्हारे कोई सन्तान है ! एक ने कहा हाँ, मेरे एक पुत्र है। दूसरे ने कहा कि मेरे एक पुत्री है। पोरस ने कहा कि तब एक काम करो और वह यह कि तुम दोनों अपनी सन्तानों का परस्पर विवाह करवा दो और दहेज के रूप में यह धन का घड़ा दे दो। सिकन्दर चकित था इसे कहते हैं यथार्थ आदर्शवाद ।। ___ यथार्थ का आदर्शात्मक और आदर्श का यथार्थात्मक प्रस्तुतिकरण कितने सुन्दर ढंग से हुआ है । आज भी ऐसा ही दृष्टिकोण जरूरी है। सत्य हालांकि यथार्थवाद में है किन्तु वह यथार्थवाद किस काम का, जो आदर्श पूर्ण न हो और वह आदर्श भी नकाम है जो यथार्थ की हिंसा कर दे। यथार्थ की आदर्शात्मक अभिव्यक्ति होनी चाहिये। इसी तरह आदर्श की भी यथार्थ तथा सत्य पूरित अभिव्यक्ति होनी चाहिए। सत्य तो है, यथार्थ और आदर्श के संगम में। ऐसा सत्य ही शिव और सुन्दर रूप है। For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसीहि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया प्रवचन स्थल जैन भवन, प्रवचन समय ११ जुलाई १९८५ For Personal & Private Use Only कलकत्ता Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न है : मन्दिर आदि में आते समय 'निसीहि-निसीहि' कहना क्या केवल कहना ही है, या इसका कोई आन्तरिक एवं सैद्धान्तिक मम भी है ? निसीहि द्वन्द्वातीत अवस्था तक पहुँचने की एक मनोवैज्ञानिक एवं सैद्धान्तिक पद्धति है । निसीहि चित्त एवं मस्तिष्क को शुभतम करने की प्रक्रिया है । निसीहि से अशुभ की निर्जरा होती है। मन्दिर, उपाश्रय या गुरु-चरणों में उपस्थित होते समय निसीहि निसीहि कहने का मतलब यही है कि इधर-उधर के बाह्य विकल्पों और द्वन्द्वों का निषेध एवं निराकरण करके धर्म-साधना के मार्ग में प्रस्तुत होना। मस्तिष्क में जितना भी कूड़ा-कचरा भरा है, सबको खाली कर देना। सारे सांसारिक सम्बन्धों से सम्बन्ध विच्छेद कर लेना । खोपड़ा बिल्कुल खाली रहना चाहिए, मन्दिर में प्रवेश करते समय मन्दिर में जाते समय यदि मस्तिष्क का पात्र सर्वथा खाली होगा तभी उसमें परमात्मत्व का अमृत-रस भरेगा। गुरु-चरणों में जायेंगे, निसीहि-निसीहि कहकर यानी हमारे मस्तिष्क का पात्र बुद्धि का पात्र रिक्त होगा, तभी गुरु उस पात्र को भरने में समर्थ हो पायेगा। भिखारी का पात्र अगर पहले से ही भरा है, तब दाता उसमें और क्या डालेगा। किसी को कुछ पाना है तो यह सर्वप्रथम सूत्र है कि अपने पात्र को खाली रखो। पहले प्यास जगाओ, फिर प्याऊ के पास जाओ। __आस्पेसंकी जब गुरजिएफ के पास ज्ञान लेने गया, तब गुरजिएफ ने उसे एक पन्ना दिया और कहा कि तुम्हें क्या आता है ? तुम्हें जो भी आता हो, इस पन्ने में लिख दो गुजरिएफ की यह एक साधनामूलक प्रकिया थी। आस्पेसंकी प्रसिद्ध कवि, दार्शनिक और विचारक। किन्तु वह एक शब्द भी पृष्ठ में न लिख सका। उसे यह बोध हुआ कि गुरजिएफ से यदि मुझे कुछ पाना है तो मुझे अज्ञानी बालक की तरह पेश आना होगा। बिल्कुल अबोध आस्पेसंकी उसी क्षण गुरजिएफ के चरणों में आ गिरा और कहा कि मैं कुछ नहीं जानता। मेरे पास लिखने को कुछ नहीं। गुरजिएफ बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे बहुत कुछ दिया। उसका पात्र आत्मज्ञान से लबालब कर दिया, बाहर छलकने जितना। किन्तु लोग जाते हैं मन्दिर, गुरुद्वारों में कुछ न कुछ लेकर जाते हैं। वे न भरे होते हैं न खाली। उनकी ‘अधजल गगरी छलकती' है। भरा हुआ नहीं छलकता, अद्ध भरित घड़ा छलकता है। छलकने का मतलब ही है कि घड़ा न तो भरा है, और न खाली। 'भरिया जो छलके नहीं छलके सो अद्धा। वे गुरुद्वारों और मन्दिरों में जाकर भी वैसे ही पात्रवाले रह जाते हैं, जैसे पहले थे। कोल्हू के बैल की यात्रा समझो। For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ निसीहि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया जो लोग मस्तिष्क में कूड़ा-कचरा लेकर जाते हैं विचारों का विकल्पों का, उनके भीतर परमात्मा के अमृत-स्रोत का विस्फोटन किस प्रकार से हो पायेगा । चट्टानों के हटाने के बाद स्रोत फूटता है। चट्टाने स्रोत की अवरोधक हैं। इसलिए सबसे पहले भगवान् महावीर ने बताया निसीहि-निसीहि । चट्टानों को हटा दो । गीता की भाषा में उसी के बाद स्थित प्रज्ञा का झरना कलकल निनाद करता हुआ दिखाई देगा। बाह्य विकल्पों एवं द्वन्द्वों का निषेध कर दो बिल्कुल। सारे कूड़े-कचरे को निकालकर बाहर फेंक दो। मन शुद्ध हो। विचार शुद्ध हो शरीर शुद्ध हो। आत्मा तो स्वतः शुद्धता की भूमिका पर आ जायेगी। निसीहि-क्रमिक यात्रा है। अशभ से शुभ की ओर और शुभ से शुद्धत्व की ओर यात्रा गतिमान हो। अशुभता और मलयुतता को तलाक दें। इसे थोड़ा समझे। कोई आदमी गन्दे हाथों वाला है। हाथ में कीचड़ लगा हुआ है या शौच-क्रिया के हाथ हैं, तो क्या वे परमात्मा या माता-पिता के चरणों को स्पर्श करने योग्य हैं ? नहीं है। उन गन्दे हाथों से कोई भी आदमी न तो भोजन करेगा, न मिष्टान्न खायेगा। स्वच्छता प्रथम आवश्यक है। इसी तरह कोई पात्र गन्दा है। उस गन्दे पात्र में दूध डालने से कोई फायदा नहीं है। पात्र झठा है तो झठे पात्र से कोई भी व्यक्ति पानी नहीं पीयेगा। बच्चे लोग स्लेट-पाटी लिखते हैं। अगर पाटी पहले से ही भरी हुई है, यानी लिखी हुई है तो उस पर और कुछ लिखने का कोई सार नहीं हैं, जब तक कि पहले का लिखा हुआ मिटा न दें। तो मन्दिर, उपाश्रय या गुरु-चरणों में जहाँ भी जाते हैं, सबसे पहले मन के इस कूड़े-दान को साफ करें। स्लेट-पाटी पर नये लेखन हेतु पहले के लिखे हुए को हटाना होगा। जमीन पर बैठने से पूर्व जमीन का परिष्कार करना होगा। परमात्मा के पवित्र चरणों का स्पर्श करना है, तो पहले गन्दे हाथों को धोना होगा। यदि पात्र में दूध डालना है तो पहले पात्र को साफ करना होगा। मस्तिष्क में जितना भी कूड़ाकचरा भरा है, वासना एवं विकार है, सबको निकाल दें। निसीहिरूप 'फिल्टर मशीन' में अपने विचारों के जल को निर्मल तथा स्वच्छ कर लें। 'सार-सार को गहि रहे थोथा देई उड़ाय'-यह कबीर की भाषा है। मैंने सुना है। दो मित्र पिकनिक करने के लिए कलकत्ता के इस बड़े बाजार से रवाना हुए। पहले मित्र ने कहा कि अरे यार ! बड़ी दुर्गन्ध आ रही है। दूसरे ने कहा कि 'दुर्गन्ध ? यह स्थान ही ऐसा है। न सफाई, न कोई बात। आगे चल रहे हैं ईडन गार्डन ।' वहाँ शुद्ध वातावरण है।' बात जच गयी। दोनों चल पडे । ईडनगार्डन पहुँचे तो भी दुर्गन्ध वैसी की वैसी। पहला मित्र चकित हुआ। फलों के बीच भी दुर्गन्ध ? मन उचटा । मजा सारा किरकिरा हो गया। चलो, बूटानिकल गार्डन जो कि भारत का सबसे बड़ा और अच्छा बगीचा है। पर, वहाँ पर भी वही गन्ध । For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसीहि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया ७५ अबकी बार पहले मित्र को लगा कि जरूर कोई इसमें राज है। उसने अपने मित्र से कहा कि यार ! यह दुर्गन्ध और कहीं से नहीं, तेरे भीतर से ही आ रही है। क्या आज स्नान किया ? दूसरे ने कहा कि सुबह से दो बार स्नान किया है हबली में। पहले मित्र ने कहा कि भले ही तुमने दो बार क्यों दस बार स्नान किया हो, मगर दुर्गन्ध तुमसे ही आती है। अपना कमीज और अपना पेंट खोलो। दूसरे ने कहा कि यह क्या बदमतीजी है । लेकिन पहला अड़ गया। आखिर उसने अपना कमीज और अपनी पैंट को खोलकर दिखा दिया। दोनों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि पैंट भीतर से सड़ी थी और गन्ध दे रही थी। पहले मित्र ने कहा कि यह क्या है ? दूसरा बोला, यह कोई आज का थोड़े ही है, कई दिन पहले का है। पहला बोला कि फलों की सैर करने से पहले अपनी गन्दगी तो दूर करो। वरना फूलों की सुगन्ध स्वयं को दुर्गन्ध के सामने फीकी-फीको मालूम पड़ेगी। सड़े वस्त्र को धोना ही निसीहि है। क्यों तू मैली चादर ओढ़े धर्म-जलाशय में तू धोले। बिलकुल सही बात है यह। कर्म कलंक युगों से संचित प्रज्ञा के अधर यू बोले । निर्विकार और वीतराग बन, कर्मों की कथरी को धोले ॥ आत्म-वस्त्र कर्म के कलंक से मैला है। धोना है इसे । धोना यानी निसीहि से गुजरना है। निसीहि-नीसीहि- यह महावीर स्वामी का बड़ा जबर्दस्त शब्द है। निसीहि द्वन्द्वातीत अवस्था तक पहुँचने की न केवल सैद्धान्तिक बल्कि मनोवैज्ञानिक पद्धति है। सारा योग-शास्त्र इस निसीहि शब्द में आया हुआ है। योग-शास्त्र का प्रथम चरण है यह निसीहि योग की एक प्रकिया है-वह है विरेचन की। आदमी योग शुरु करता है तो सबसे पहले उसे विरेचन करना पड़ता है। विरेचन यानी कि खाली करना अपने को। और वह विरेचन योगशास्त्रीय लोग साँसों के द्वारा करवाते हैं। प्राणायाम की तीन विधियां होती हैं,-पूरक, कुम्भक और रेचक । प्राण-वायु को बारह अंगुल प्रमाण बाहर निकालकर उसे वहीं रोके रखना पूरक है। इसी प्रकार प्राण-वायु को भीतर रोक देना कुम्भक है और प्राण-वायु का बाहर-भीतर रेचन करना रेचक है। प्राणायाम की ये विधियाँ मस्तिष्क की शुद्धि एवं मन की एकाग्रता में परम सहायक बताई जाती है। निसीहि प्राणायाम का अर्थ और इति दोनों है। प्रारम्भ भी निसीहि है और समापन भी निसीहि । यानी पानी से भाप, भाप से बादल, फिर बादल से पानी इसी को कहते हैं 'वाटर सायकिल' । For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसीहि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया भगवान महावीर का निसीहि और योगशास्त्र का विरेचन बिल्कुल एक ही हैं। 'मन एक, दुइ गात'। दोनों का अर्थ एक समान है, अन्तर शब्दों का है। शब्द दो हैं, किन्तु शब्दार्थ एक। यों समझिये कि ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। इसीलिए महावीर का निसीहि योगकुण्डलिनी उपनिषद तथा पतंजल-योगदर्शन के काफी साम्य है। महावीर के निसीहि दृष्टिकोण का प्रभाव परवती सभी योगशास्त्रियों पर रहा है। महावीर के सत्य को सभी ने सत्य रूप स्वीकार किया। ध्यान, साधना और योग में यात्रा करने का प्रस्थान-बिन्दु बना निसीहि । निसीहि और विरेचन दोनों को यदि तुलनात्मक अर्थ की दृष्टि से देखा जाये तो निसीहि विशेष अर्थ-गाम्भीर्य रखता है। विरेचन में तो मात्र अशुभ का निष्कासन होता है, जबकि निसीहि में न केवल अशुभ का विरेचन होता है, अपितु शुभ का प्ररूपण भी होता है। अशुभ के तुम्बे की लताओं को जड़ से उखाड़ कर फेंका जाता है और शुभ का मधुर बीजारोपण होता है। एक बाल्टी में वर्षा का पानी भरा है। उसमें मिट्टी आदि भी है। उसमें फिटकड़ी डालकर पानी को गोलाकार घमाओ। गन्दगी नीचे बैठ जायेगी, और पानी साफ दिखायी देने लगेगा। यह हुआ विरेचन । किन्तु इससे पानी पूर्णरूपेण स्वच्छ नहीं हुआ। निसीहि की क्रिया अभी समाप्त नहीं हुई। वास्तव में निसीहि की क्रिया अब शुरु होगी । और वह यह कि पानी को अलग वर्तन में निकाल लो और नीचे जमे कचरे को बाल्टी से बाहर फेंक दो। पुनः वह पानी बाल्टी में डाल दो अब पानी अच्छी तरह से निर्मल हो गया। तो योगशास्त्र में जो विरेचन की प्रक्रिया बतलाई गई, योग प्रारम्भ करने से पहले, वैसे ही महावीर बताते हैं निसीहि की प्रक्रिया, विरेचन की प्रक्रिया, कि तुम अपनी आत्मा में परमात्मा को प्रगट करना चाहते हो, निज में जिनत्व की शोध करना चाहते हो तो सबसे पहले निसीहि को घटित करो। संसार से जितने भी सम्बन्ध हैं, जितने भी बाह्य विकल्प हैं, सबके सब बाहर छोड़ आओ। निसीहि कहो और मन्दिर में प्रवेश करो। परमात्मा के मन्दिर में जाते हैं, तो केवल परमात्मा के प्रति भक्ति-भावना को ही लेकर जायें। रसमयता मात्र परमात्मा के प्रति हो। कामभोग का रसिक यदि मन्दिर में जाएगा, तो उसके मन में ईश-मन्दिर में भी कामभोग की बातें मंडराएगी। इसलिए मन्दिर में केवल परमात्म-रस हो, क्योंकि 'रसो वै सः' वह रस रूप है। इसके अलावा जिस भी चीज को ले जाएंगे, वह सब कूड़ा-कचरा ही होगा, मात्र पागलपन इकट्ठा करना है। मन्दिर में जाना और जाते समय दूसरे-दूसरे तरह के द्वन्द्वों और विकल्पों को साथ में ले जाना अपने को पागलखाने में ले जाना है। वह व्यक्ति एक पागल की तरह मात्र अपने ही विचारों में खोया है, परमात्मा के प्रति नहीं। For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसोहि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया __मैंने सुना है कि एक आदमी समुद्री मार्ग से पानी के जहाज में विदेशयात्रा के लिए चढ़ा। जहाज चल पड़ा। जहाज के चलते ही वह आदमी कप्तान के पास पहुंचा और कहा कि कैसे साहब पेट्रोल-डीजल सब बराबर ले लिया है। कप्तान ने कहा हाँ भाई, सब ठीक है। डीजल पूरा ले लिया है। तुम जाओ और अपनी कुर्सी पर बैठो। थोड़ी देर बाद वह आदमी फिर कप्तान के पास गया और कहा कि साहब मशीन वरह तो सब ठीक है ? कप्तान आखिर झंझला उठा। उसने कहा कि सब ठीक-ठाक है। ये सब काम हमारा है। तुम क्यों चिन्ता करते हो। तुम तो इस जहाज के कप्तान नहीं हो। यात्री हो यात्रा करो। वह आदमी बोला, साहब ! अभी तो आप गुस्सा करते हैं। लेकिन जब जहाज बीच रास्ते में कहीं खराब हो जाये तो मुझे यह मत कहना कि जरा नीचे उतर कर जहाज को धक्का लगाओ। क्योंकि मैं जितनी बार टैक्सी और बस में चढ़ा हूं, मुझे रास्ते में धक्के देने पड़े हैं। तो लोग भी जब मन्दिर जाते हैं, तो वे भी उसे घर की तरह समझ लेते हैं। कहां टैक्सी-बस और कहाँ जहाज ! कहाँ गृहस्थ में रचा पचा घर और कहाँ मन्दिर । दोनों में कोई तुलना नहीं। जहाज में मन्दिर में जाते हैं तो वहाँ टैक्सी-बस और नीचे उतरकर धक्का लगाने की बात मात्र पामलपन है। इसीलिए मन्दिर में भी वह पागलपन भड़केगा, नीचे उतरकर जहाज को धक्का लगाने जैसा । सच्चा निसीहि न होने के कारण, सच्चा विरेचन न हो पाने के कारण आदमी मन्दिर में जाकर परमात्मा का ध्यान करता है, परन्तु जैसे ही परमात्मा का ध्यान करने बैठा, वैसे ही परमात्मा की प्रतिमा और छबि तो मनोदृष्टि से हट जायेगी और उसके मन में वही घिसे-पिटे पुराने सड़ियल विचार आने शुरु हो जाएंगे। एक के बाद एक, लगातार । एक भेड़ के पीछे दूसरी भेड़, भेड़चाल की तरह । इतने विचार पहले कभी नहीं कौंधे, जितने इस समय कौंधते हैं । कभी बीबी-बच्चे याद आयेंगे, तो कभी कोई रूप सम्पन्न पुरुष-स्त्री याद आयेंगे तो कभी बाजार व्यवसाय । कारण, निसीहि तथा विरेचन वस्तुतः नहीं हो पाया। भला जो व्यक्ति बिना टौर्च लिये अन्धेरे कमरे में जाएगा, तो वह ठोकर खाएगा ही। टॉच जलाओ, अन्धेरा स्वतः साफ। निसीहि बस ऐसे ही है। ___ मैंने सुन रखा है कि एक आदमी को टी. वी. खराब हो गयी। उसे ठीक कराने के लिये वह रिपेयरर के पास ले गया। कहा कि मेरा टेलीविजन खराब हो गया है। यह चलता ही नहीं। इसे ठीक कराना है। कितना रुपया लोगे ? रिपेयरर ने कहा, बाबु ! रुपये पैसे का सवाल तो बाद में, पहले यह मालूम पड़े कि खराबी क्या है। रिपेयरर ने जैसे ही टेलीविजन खोला तो देखा कि उस टेलीविजन के डिब्बे में पांच-सात चहिया मरी हुई है। चूहियों की गन्दगी भी भीतर पड़ी है। रिपेयरर को लगा कि इस टेलीविजन में केवल सफाई की जरुरत है, और कुछ खराबी नहीं। उसने सफाई कर दी। टेलीविजन शुरु किया और टेलीविजन चल पड़ा। For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसीहि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया यह हुआ विरेचन और निसीहि का आन्तरिक पक्ष लोग मन्दिर जाते हैं क्योंकि उनके जीवन का टेलीविजन अच्छी तरह नहीं चलता । वह खराब है और विचारों के पुर्जे जाम हैं तथा अस्त-व्यस्त हैं । तो मैं कहूंगा कि सफाई करो, विरेचननिसीहि । परमात्मा की अनन्त ज्योति के चलचित्र जीवन के पर्दे पर उभरते हुए परिलक्षित होंगे । ७८ आजकल मैं देखता हूं कि आदमी निसीहि निसीहि कहता तो है, लेकिन वह केवल कहना मात्र है । तोते की रटन की तरह । मालिक ने सीखा रखा है कि 'तोता बिल्ली आए तब उड़ जाना' । बिल्ली उपस्थित होने पर भी तोता केवल यही बोलता है, पुनः पुनः पुनरावृत्ति । बहुत से लोग भी तो ऐसा ही करते हैं । धार्मिक व्यक्ति है, सुना हुआ है कि जिनेश्वर के मन्दिर में प्रवेश करते समय निसीहि निसीहि तीन बार कहना चाहिये । बस कह डाला । यही तो भूल है । वस्तुतः निसीहि निसीहि तीन बार कहना नहीं चाहिए, अपितु निसीहि - निसीहि तोन बार करना चाहिये । कहने पर नहीं, बल्कि करने पर जोर हो । कथनी नहीं, करनी प्रबल हो । टन भर कथनी और कण भर की करनी- दोनों में कणभर की कथनी ज्यादा उत्कृष्ट है । लोग निसीहि के मर्म को और उसके रहस्य को समझते नहीं हैं । बस, केवल कहता है, निसीहिनिसीहि । अरे भाई ! यह क्यों भूल रहे हो कि मुँह मीठा तो लड्डू खाने से होगा न कि लड्डू-लड्डू कहने से । मन्दिर में प्रवेश करने का पहला द्वार ही निसीहि है । ध्यान बाद में घटेगा, साधना बाद में घटित होगी । आत्मानुभूति या परमात्मानुभूति की बातें तो बाद की हैं, सबसे पहले घटना घटेगी निसीहि की । टाँग टूटेगी, तो अस्पताल जायेंगे 1 बीज होगा तो वृक्ष बनेगा । निसीहि ही नहीं, तो आत्मा, परमात्मा की बातें ढपोर शंख की तरह होगी । ढपोरशंख उसे कहते हैं यानी कि उसको कहो कि शंख महाराज एक लाख रुपये दे दो। तो ढपोर शंख कहेगा, अजी। दो लाख ले लो । आदमी कहेगा कि अच्छा ठीक है, दो लाख दे दो तो शंख कहेगा, दो लाख का क्या देना, चार लाख ले लो । मांगने वाला कहेगा ये तो और अच्छी बात है । चार लाख दे दो । ढपोरशंख कहेगा आठ लाख ले लो । बस ढपोरशंख दुगुना - दुगुना कहेगा मात्र देने-लेने का वहाँ काम नहीं । जो केवल बोलता है, कहता मात्र है, वह ढपोर शंख तो उल्टा भारभूत है । उठाकर नाली में फेंको ऐसे वक्ता ढपोरशंख को । जोर कहने पर निसीहि कहो मत करो । नहीं करने पर हो । यानी कि मस्तिष्क में जितना भी भार है, निसीहि उस भार से छुटकारा दिलाने में सहायक है । निसीहि तनाव से मुक्ति का उपाय है । निसीहि अन्तर्यात्रा एवं मन को केन्द्रित करने का सोपान है । निसीहि, व्यक्ति जो इधर-उधर भटक रहा है, 1 For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसीहि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया उस भटकाव को रोकने का साधन है। निसीहि यानी कि आत्म-विरेचन है। निसीहि यानी कि मस्तिष्क-शुद्धि है। निसीहि यानी निर्विकल्प समाधि है। निसीहि यानी संसार में जिन-जिन से भी सम्बन्ध है, उन-उन से मुक्ति-बोध पाने का माध्यम है। निसीहि यानी स्वयं की स्वयं में वापसी। प्रतिक्रमण, पर्युषण और प्रत्यावर्तन ये सब निसोहि को ही उपलब्ध होने के माध्यम हैं। सचमुच, भगवान तक और आत्मा तक पहुँचने का रास्ता निसीहि ही है । निसीहि होने के पश्चात् शेष रहता है मात्र अतीन्द्रिय सुख । यानी आत्म-जात निराकुल और द्वन्द्वातीत सम्यक् आनन्दानुभूति । सब कुछ आ गया इस निसीहि में। निसीहि गुप्तिधर्म से भी श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययन सूत्र आदि में अष्टप्रवचनमाता का विधान है। पांच समिति और तीन गुप्ति-ये हुई अष्ट प्रवचन माता । समिति है यतनाचारपूर्वक प्रवृत्ति और गुप्ति है समितियों में सहयोगी मानसिक वाचिक और शारीरिक प्रवृत्तियों का गोपन। जबकि निसीहि में, पहले गुप्ति काम करेगी। मतलब यह है कि पहले सभी प्रवृत्तियों का गोपन करो और तत्पश्चात् प्रवृत्तियों का विरेचन करो। निसीहि रूपी राजहंस के द्वारा अशुभ और शुभ प्रवृत्तियों को अलग-अलग करो। पानो अलग, दूध अलग - प्राचीन भारतीय न्याय पद्धति की तरह । शुभ प्रवृत्तियों का दीपक जीवन से जोड़ें, ताकि अशुभ प्रवृत्तियों का अन्धकार समाप्त हो। तत्पश्चात् समिति-आश्रित बनें यानी यतनाचारपूर्वक, उपयोग और विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करें। तो सर्वस्व समाहित है निसीहि में। साधना के वृक्ष की जड़ों को सुरक्षित करने वाला है यह । ताकि बहिरात्मा के दीमक उसे भीतर ही भीतर खोखला और श्रीशून्य न कर दे । आदमी यदि इसे समझ जाये तो उसे बहुत कुछ मिल गया। मूल सूत्र उसने हस्तगत कर लिया। किन्तु लोग मन्दिर में जाते हैं, कूड़े-कचरे के साथ । साधना-वृक्ष का सिंचन करते हैं, दीमकों के साथ। ___ आप सुनते होंगे कभी कभी कि अमुक साधु वापस गृहस्थ हो गया। आखिर क्या कारण ? मूलतः जब उसने सन्यास धारण किया था, उस समय या तो भावावेश था या फिर अन्य कोई कारण । और, जिस आदमी ने दीक्षा में सच्चा निसीहि किया, संसार और मनोगति की सच्ची समीक्षा की, विकल्पों का विरेचन करके दीक्षा का सम्यक संकल्प किया, वह आदमी कभी पथच्युत नहीं हो सकता। दुर्भाग्य या दैव. विडम्बना हो, तो अलग बात है आर्द्र कुमार आदि की भाँति । मैं सुनता हूं मन्दिर में बहुत बार कि लोग एक तरफ तो हाथ से भगवान की पूजा करते हैं और दूसरी तरफ मुंह से बिदाम की कतलियों की बातें करते हैं। विरेचन न होने के कारण लोगों को मन्दिर में भी कतलियाँ राजभोग जैसी चीजें याद आती हैं। लोग मन्दिर में बातें करते हैं शादी-विवाह की । तुम्हारा पुत्र कितना बड़ा है ? बीस For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . निसीहि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया वर्ष का। तब वह लड़की ठीक बैठेगी। यही सब बातें। तो फिर जब ध्यान करने बैठते हैं तो स्वाभाविक है कि ध्याता के सामने वही दर्शित होगा जो उसके मन में छिपा है। मन में छिपे भाव ही विचार बनते हैं। मन के बीज से ही विचारों की लताएँ फैलती हैं। मेरे पास अनेक लोग आते हैं और कहते हैं कि ऐसे तो विचार शान्त रहते हैं, कोई ज्यादा नहीं पैदा होते, किन्तु ध्यान करते समय तो पता नहीं इतने विचार कहाँ से आ जाते हैं ? मैं कहता हूं कि तुम्हारे लिए अभी ध्यान फलीभूत नहीं होगा। ध्यान के लिए योग्य पात्रता चाहिये। अभी तो विरेचन को तुम अपनी साधना का अङ्ग बनाओ। बिना विरेचन के ध्यान में विचारों की आँधी उठेगी कभी व्यवसाय के विचार तो कभी रूपसुन्दरियों के विचार-दुनिया भर के सारे विचार तुम्हें कष्ट देंगे। वे विचार कहेंगे कि तुम कहाँ मन्दिर में आकर बैठे हो, चलो बाहर संसार की सैर करने खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ, सैलानी जीवन जियो। उमरखय्याम की बातों को चरितार्थ करो। कहाँ आसन लगाकर बैठे हो। बस, विरेचन न होने के कारण विचारों का ध्याता पर साम्राज्य हो जाता है और इस तरह ध्याता अपने विचारों के पराधीन बन जाता है। वह भूल-भूलैया के अंध गलियारों में भटक जाता है। . इसीलिए तंजलि ने विधान किया विरेचन का और महावीर ने निसीहि का। महावीर का इस सम्बन्ध में पतंजलि पर स्पष्ट प्रभाव रहा। मन्दिर-प्रवेश और साधना-प्रवेश के लिए यह वरदान रूप है। निसीहि-प्रक्रिया का प्रथम सूत्र है अहंकार का विरेचन | कारण, लोग मंदिर में जाते समय भी अहंकार के गज पर सवार होकर जाते हैं, जो कि उन्हें दलदल में ले जाता है। मन्दिर जानेवाले भक्तों का अहंकार आधुनिक गोल्ड मेडल है। किसी के कमीज पर ट्रस्टी का गोल्ड मेडल है, तो किसी की कमीज पर पद्मश्री का गोल्ड मेडल है, तो किसी की कमीज पर समाज-रत्न का गोल्ड मेडल है। ये गोल्ड मेडल मष्तिष्क में रहते हैं। अहंकार के रूप में इनकी चमक प्रकट होती है। गोल्ड मेडल यानि कि अहं के मेडल, अहं के पोषक तत्त्व। . आदमी मन्दिर में जाता है, अहंकार के इन गोल्डमेडल्स को लेकर। जबकि अहं और मैंपन के भाव मन्दिर में साथ ले जाएंगे, तो फिर मन्दिर भी एक सांसारिक घर हो जायेगा। वह देवालय नहीं रहेगा फिर अपितु अहं पोषक केन्द्र बन जायेगा। मैं का अहंकार कर्ता होने की दुर्बुद्धिका परित्याग कर ज्ञाता-द्रष्टा बन । अहंकार के ये गोल्डमेडल वास्तव में जीवन की कमीज पर भार ही होंगे। निसीहि अर्थात् निर्भार होने का पथ । For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसीहि : मानसिक विरेचना की प्रक्रिया ८१ मन्दिर में कभी-कभी तो यह भी देखा-सुना जाता है कि कुछेक लोग अपशब्द और गालियाँ तक भी प्रयोग कर लेते हैं। कभी-कभी तो नौबत यहाँ तक आ जाती है कि लोग लड़ाइयाँ भी कर बैठते हैं मन्दिर में। जबकि मन्दिर में तो किसी तरह की ध्वनि न हो, ऐसा प्रयास रखना चाहिये, ताकि अन्य लोगों को अड़चन न हो। अब बाजार में लड़े तो बाजार में लोग उसकी हड्डी पसली एक कर दें। इसलिए लड़ते हैं मन्दिर में ताकि कोई कुछ ज्यादा बोल न सके । मन्दिर में भले आदमी आने वालों की भी कमी नहीं है । अत: सामने वाला आदमी तो हाथ उठा ही नहीं पायेगा। तो लोग मन्दिर में लड़ाइयाँ शुरू करते हैं, गाली गलोच शुरू कर देते हैं मन्दिर में ही गुस्से के अंगार उगलते हैं। यानि समाज को वे यह साफ जाहिर कर देते हैं कि हमारे संस्कार कैसे हैं ? इस तरह पूजा-स्थल और साधना-स्थल यों समझो कि एक छोटा युद्धस्थल बन जाता है, घरेलू महाभारत । दो दिन पूर्व मैं महर्षि ब्रह्मानन्द सरस्वती के जीवन के बारे में पढ़ रहा था। ब्रह्मानन्द सरस्वती की एक घटना बड़ी अच्छी लगी। ब्रह्मानन्द जब युवक थे, तो गये हिमालय में । हिमालय में जाकर देखा कि बहुत-से लोग साधना कर रहे हैं। शान्त-मूर्तियाँ लग रही हैं वे। ब्रह्मानन्द किसी ब्रह्म-दर्शी की खोज में थे। आखिर उन्हें एक सन्त-योगी के बारे में जानकारी मिली, जो सर्वज्ञ वीतरागी सन्त माने जाते थे। ब्रह्मानन्द पहुंच गये उनके पास और कहा महाराज ! आपके योग-ध्यान एवं वीतरागता की चर्चा मैंने सुनी है। आप शान्त-मूर्ति हैं। भगवन् ! मैं बहुत दूर से आया हूं आपके पास। ठंड भी लग रही है। क्या थोड़ी-सी आग मिलेगी आपके पास ? तो महाराज ने कहा कि तुम नहीं जानते कि हम वे साधु हैं जो आग रखना तो दूर छूते भी नहीं ? ब्रह्मानन्द बोले कि ओह ! समझा परन्तु थोड़ी-सी तो होगी? थोड़ी-सी से काम चल जायेगा। मैं बर्फ हो रहा हूं। जैसे कलकत्ता के भिखारी लोग होते हैं न, मांगते हैं एक रुपया; तो सेठ कहते हैं कि जा भाई आगे जा कुछ नहीं है। तब भिखारी कहता है कि बाबू अठन्नी दे दो। वह कहता है कि कुछ नहीं है चला जा। तो भिखारी कहता है अरे बाबू ! चवन्नी दे दो।' अबे कहा न, इतनी बार कह दिया, कम सुनता है। तो भिखारी फिर कह देता है कि अच्छा बाबू रहने दो चवन्नी, अठन्नी, रुपया। प्यास बहुत तेज लगी है, पाँच पैसा ही दे दो। एक गिलास पानी खरीदकर पी लगा। वैसे ही ब्रह्मानन्द ने कहा कि थोड़ी-सी आग दे दें। देखिये, इत्ती सी। तो उस साधु ने कहा कि अरे ! मैंने कहा न कि हम साधु हैं और आग को साधु छू नहीं सकता। तब आग हम कहाँ से रखेंगे। For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ निसीहि : मानसिक विरेचना की प्रक्रिया ब्रह्मानन्द अब भी शान्त थे। उन्होंने कहा कि जरा देखिये ! आपके आस पास कहीं छिपी मिल जाये किसी कोने में हो। थोड़ी सी होगी तो भी काम चल जायेगा। मात्र रत्ती भर । अच्छा केवल चिनगारी। उस साधु के साथ ऐसा व्यवहार करनेवाला यह पहला आदमी था। बेवकूफी को भी हद हो गई। वह भी अव्वल दर्जे की। तो उस साधु ने कहा कि तूं मुझे क्या समझता है ? इतनी बार कह दिया कि मेरे पास आग नहीं है, लेकिन देख रहा हूं कि तूं बार-बार मुझसे आग ही आग मांग रहा है। अभी श्राप दे दिया तो तू खुद भाग बन जायेगा। साधु आग बबूला हो गया । तो ब्रह्मानन्द सरस्वती ने कहा यदि आप किसी का भला नहीं कर सकते तो बुरा करने का अधिकार कहाँ से प्राप्त हुआ। यदि आपके पास आदमी को आग करने जैसी शक्ति है तो आप बर्फ के एक टुकड़े को आग में बदल दें और एक ठिठुरते इन्सान को बचाएं। इसमें आपकी साधुता है। बुरा करने के लिए तो सारी दुनिया है किन्तु जो हमेशा दूसरों का भला करता है, वही सन्त हैं। और, आप तो कहते हैं कि मेरे पास आग नहीं है तो फिर ये आग की लपटें कहाँ से आ रही हैं। सन्त ने कहा कि क्या, आग की लपटें ? हाँ, ब्रह्मानन्द बोले कि आग की लपटें। आपके भीतर अभी तक क्रोध-कषाय है। जो कि भयंकर आग है। मैं गुरु की खोज में हूं, ऐसा गुरु जो यथार्थ में वीतराग हो, कषाय-मुक्त हो। शान्ति और प्रबुद्धता उसका लक्षण है। अच्छा मैं चला। वह साधु ब्रह्मानन्द को निहारता रहा। तो लोग यही करते हैं। मन्दिर में भी जाते हैं, हिमालय में भी जाते हैं लेकिन विरेचन न हो पाने के कारण, निसीहि जीवन्त न हो पाने के कारण उनके भीतर क्रोध की लाल लपटें निकलती रहती हैं, अहंकार के गोल्ड मेडल रहते हैं, वासनाओं का कचरा रहता है । निसीहि के बिना जो लोग हिमालय में जाते हैं, मन्दिर में जाते हैं या गुरु-चरणों में जाते हैं वे लोग केवल पागलपन को एकत्रित कर रहे हैं। जब आदमी के विचारों पर एक ही विचार से सम्बन्धित अनेक विचार इकट्ठा होते हैं, सतह पर सतह जमते जाते हैं, प्रकट नहीं करते, वे ही विचार ज्वालामुखी की तरह मानसिकभूमि में भड़कते हैं। आदमी उसे सहन नहीं कर पाता। वह सुधबुध खो बैठता है । लोग उसे पागल कहने लगते हैं। जैसे पागल आदमी के लिये अपनी पगलाई जताने के लिए एकान्त और भीड़ दोनों समान है वैसे ही लोगों के लिए संसार और मन्दिर एक समान हो जाता है। वे मन्दिर में भी भगवान से धन, पुत्र, ऐश्वर्य की मांग करेंगे। वे यह भूल जाते हैं कि भगवान् न तो किसी का कुछ छीनते हैं और न किसी को कुछ देते हैं। और यदि छीना-झपटी और देने-लेने का सम्बन्ध मन्दिर से जोड़ रहे For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसी हि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया ८३ हैं तो वह अध्यात्म-स्थल नहीं, अपितु एक सांसारिक व्यवसाय स्थल होगा । संसार तो कीचड़ है और मन्दिर उससे ऊपर - एक निर्मल कमल । इसीलिए ज्ञानी मनीषी कहते हैं कि सबसे पहले विरेचन करो, निसीहि हो । मन्दिर में प्रविष्ट हो गये हो तो बाहर के सारे द्वन्द्वों से मुक्ति पा लो । निसीहि का मतलब ही है तनाव से मुक्ति । आज के युग का सबसे भयंकर और असाध्य रोग है मानसिक तनाव । चिकित्सकों के द्वारा इस रोग की चिकित्सा कष्टकर है। महावीर दुनिया के महान् चिकित्सक हुए । उन्होंने इस रोग को दूर करने की यौगिक एवं प्राकृतिक चिकित्सा ढूंढ निकाली और वह है निसीहि । मानसिक तनाव से मुक्ति पाने की यह अचूक दवा है । आप लोग अन्त्येष्टि मस्तिष्क को, चैतसिक जीवन को संस्कारित करने का तरीका है यह । जैसे साबुन के द्वारा बर्तन का संस्कार होता है, व्याकरण के द्वारा भाषा का संस्कार होता है, वैसे ही निसीहि के द्वारा मस्तिष्क और मन का संस्कार होता है । संस्कार करते हैं । यानि कि मुर्दे को जलाते हैं, शव को । बस, निसीहि में यही करना है कि मस्तिष्क में जो कूड़ा है, जो शव सड़ रहे हैं, उनका अन्त्येष्टि संस्कार करना है । यही धर्म है क्योंकि मन्दिर के गृह में मुर्दों का कोई काम नहीं है । ये तो विपर्याय दुर्गन्ध फैलाएँगे । मन्दिर में तो चाहिये जीवन तथा जीवन्तता । तो मन्दिर में जाओ, चाहे उपाश्रय स्थानक में जाओ या गुरु चरणों में जाओ, कहीं भी जाओ, निसीहि सबसे पहले जरूरी है । आदमी के अन्दर जो घास का ढेर है और उस ढेर में जो सूई खो गई है, बस उस सूई को बचा लो । घास के ढेर में सूई की खोज - यही साधना है । तो भस्म कर दो घास के ढेर को । मन्दिर में प्रवेश करते समय लक्ष्य केवल सूई की खोज का रहे । इसके अलावा जितने भी द्वन्द्वों, सांसारिक संयोगों के घास के पुलिन्दे हैं, सबसे मुक्ति पाकर मन्दिर में प्रवेश करो । जैनागम स्थानांगसूत्र में साधु के लिए श्रमण, भिक्षु मुंड, साधु, मुनि, यति आदि १० नाम प्रयुक्त हुए हैं, किन्तु उनमें मुनि शब्द का प्रचलन अधिक हुआ । बड़ा सोच-समझकर इस शब्द का प्रयोग हुआ । जैनियों के सबसे महत्वपूर्ण शब्दों में एक है यह । बड़ी अर्थवत्ता है इस शब्द की । मुनि यानि कि जिसका मन मौन हो गया है । भीतर में अब किसी तरह का द्वन्द्व नहीं है । कोलाहल रहित और द्वन्द्व से अतीत विचारों की उपज - - यही मुनित्व की अभिव्यक्ति है । जो परमात्मा के मन्दिर में जाता है, वह बिल्कुल मुनि के रूप का ही होना चाहिये । मन्दिर में प्रविष्ट हुए धर्म - साधना में उपस्थित होने के लिए । चरणों में समर्पित हो गये और कहा कि भगवान ! हम आपके चरणों में गये और आपने जो मार्ग बताया है, उसे हम अंगीकार करते हैं । और, कहते ही वह आवस्सहि कहता है और पुनः संसार में लौट आता है । For Personal & Private Use Only परमात्मा के समर्पित हो यह कहते Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसीहि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया भगवान् महावीर ने ऐसे व्यक्तियों के लिए शब्द प्रयोग किया भक्त । यानि कि जो भगवत्ता को पाने के लिए प्रयासशील है, वह भक्त । लेकिन भगवत्ता उसे ही मिलेगी जिसके जीवन का पात्र मंजा - मंजाया साफ-सुथरा है । विरेचित जीवन के पात्र में ही परमात्मा का अमृत भर सकता है । 'अमीर' बन जायेगा वह । इसके अलावा और कोई आदमी भर नहीं सकता । भगवत्ता कोई भीख थोड़ी मांगो और मिल गई । भगवत्ता में रमण करने से भगवत्ता मिलती है । कहना भी ठीक नहीं, प्रकट होती है । तो मनुष्य अथवा जो कोई व्यक्ति मन्दिर में जाता है, परमात्मा के चरणों में जाता है, सबसे पहले निसोहि की प्रक्रिया को करें । योगशास्त्र की विरेचन को सबसे पहले कर लें 1 तभी वह आगे बढ़ पायेगा । उसका विकास — एवलूशन तत्पश्चात् ही सम्भव है । वरना मन में जो कूड़ा-कचरा होगा, मन्दिर में भी जायेंगे, तो मन्दिर में भी ध्यान में वही कूड़ा-कचरा आयेगा । मैंने सुना है कि एक आदमी अपनी पतंग उड़ा रहा था। इतने में ही आकाश में एक आदमी पहुंचा हेलिकॉप्टर लेकर । उस आदमी के हाथ में एक काँटेदार झाड़ था । उसने उस झाड़ को दे मारा पतंग की डोर पर । उसकी पतंग बिचारी बीच में ही कट गई । और, वह पतंग को झाड़ में लेकर अपने हेलिकॉप्टर को आगे रफ्तार से बढ़ा ले गया । इसी तरह जो व्यक्ति मन्दिर में जाता है, वह आदमी पतंग तो उड़ाता है मन्दिर में, किन्तु उसके भीतर जो दूसरे दूसरे प्रकार के द्वन्द्वमूलक जो-जो भी भाव हैं, वे हेलिकॉप्टर बनकर और अपने झाड़-झंखाड़ों के द्वारा या ढेरिया डालकर और जो परमात्मा के मन्दिर में पतंग उड़ रही है, वह टूट जाती है । केवल कहना तो मन्दिर में आदमी जाये, लेकिन बिल्कुल निसीहि रहकर । नहीं है अपितु निसीहिमय होना है । निसीहि हुआ नहीं और निसीहि कह दिया यह तो सब बकवास है । 'गुणविहीना बहु जल्पयन्ति' निसीहि आन्तरिक भावों से हो फिर तो 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी' । इसलिए भीतरतम में जितनी भी वृत्ति में आसक्ति और विचारों में आग्रह तथा संघर्ष है सब शान्त हो । मन में जितने भी द्वन्द्व हैं, सबका विरेचन हो । जीवन के पात्र को इतना निर्मल करके जायें कि भगवान् यदि उसमें दूध डाले तो वह दूध गंदगी के कारण फटे नहीं । पात्र ऐसा हो इतना पवित्र हो कि यदि उसमें अमृत भी उड़ेला जाये तो वह आदमी उसे पाकर अमर हो जाये । ८४ अंश भर विष हो; पात्र भर अमृत को भी विष कर देता है । शब्द-कोश में तो विष और अमृत दोनों का उत्पत्ति स्थान अलग-अलग बताया गया है । किन्तु जीवन - कोश में दोनों का उत्पत्ति स्थान एक ही है। जीवन में जहाँ विष पैदा होता है, ही है, कि मिलती है, For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसोहि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया -५ वहीं अमृत पैदा होता है। वास्तव में अमृत का विकृत रूप ही विष है। और विष का सुकृत रूप ही अमृत है। इसलिए जीवन को अमृतमय बनाने के लिए विकृत विष का निसीहि और संस्कार होना आवश्यक है। पात्र की स्वच्छता ही अमृतमुखता है। अमृत-जिज्ञासु व्यक्ति मन्दिर में हाथ भी इतने पवित्र लेकर जाये, ताकि उन हाथों के द्वारा परमात्मा का चरण-स्पर्श कर सके। जिह्वा इतनी पवित्र बनाकर जायें ताकि उस जिह्वा के द्वारा परमात्मा के आदर्श गुणों का रसास्वादन कर सके । परमात्मा का जो आदर्श प्रकाश है, उसे वह प्राप्त कर सके। वह हाथ किस काम का जिसने भगवान् के चरणों में पुष्पांजलि अर्पित न की हो। वह जीभ भी अर्थहीन है, जिसने भगवत्ता के रस का आस्वादन न किया हो ! वह कदम भी बेकार है जो भगवान के मन्दिर की ओर न बढ़े हों। वह नेत्र ज्योतिहीन है, जिसने परमात्मा का पावन दर्शन न किया हो। 'अहं ब्रह्मास्मि' को प्रगट करने का यही सूत्र है। कबीर कितनी अलमस्ती में कहता है लाली मेरे लाल को, जित देखौं तित लाल । लाली देखन में गई, मैं भी ह गई लाल ॥ आज से अब हम मन्दिर जाएं, गुरु-चरणों में जाएं, साधना शुरु करें, नये ढंग से। योग्य और स्वच्छ पात्र बनकर जाएं तभी साधना के शिखर पर आरोहण होगा। एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचने के लिए निर्भार हो जाएं। साधना के पथ पर फिर से कदम बढ़ाइये। अपने को पहले बिल्कुल खाली बनाइये। कूप ऊपर का पानी लेना न चाहता, अन्दर के झरनों से ही वह भर जाता। शून्य करने का कुछ-कुछ श्रम तो उठाइये । अपने को बिल्कुल खाली बनाइये ॥ कितने भरे हैं अन्दर, कुछ न समाता, अद्भुत कुछ घटनेवाला, घटने न पाता। व्यर्थ के विकल्पों में गोते न खाइये । अपने को पहले बिल्कुल खाली बनाइये ॥ शक्कर भरी हो चाहे धूली भरी हो, सोना की सांकल हो या लोहा जड़ी हो। शुभाशुभ दोनों त्याज्य, शुद्ध बन जाइये। अपने को पहले बिल्कुल खाली बनाइये ॥ साधना के पथ पर फिर से कदम बढ़ाइये। अपने को पहले बिल्कुल खाली बनाइये । For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष : आज भी सम्भव प्रवचन-समय प्रवचन-स्थल जैन भवन, कलकत्ता २-८-१९८५ For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न है : जैन धर्म के अनुसार इस आरे में मोक्ष नहीं हो सकता, जब कि आप मोक्ष-प्राप्ति के लिए बार-बार जोर देते हैं। जब मोक्ष अभी नहीं मिल सकता तो उसके लिए क्यों तो आप प्रेरणा देते हैं और क्यों ही हम प्रयास करें? जिस आरे में मोक्ष मिलेगा, उस समय ही इसके लिए प्रेरणा-प्रयास करना क्या उचित नहीं होगा? प्रश्न बहुत सुन्दर है, साथ ही साथ महत्त्वपूर्ण भी है। इसे गहराई से समझना होगा, वरना चक जायेंगे। गहराई में जानेवाले को सच्चे मोती मिलेंगे। जो ऊपर-ऊपर बाहर-बाहर रहेगा, उसे समुद्र का खारा जल मिलेगा। अतः गहराई में पैठे और समझे। सर्वप्रथम मोक्ष को ध्यान पूर्वक समझे। मोक्ष शब्द सुनने मात्र से आत्मा में तरंगें उठीं। बड़ा अनूठा शब्द है यह। सदियों-सदियों तक किये गये चिन्तन और साधना का परिणाम है यह मोक्ष । मोक्ष एक प्रत्यय है। मोक्ष की अवधारणा केवल भारत में मिलेगी। स्वर्ग, नर्क की मान्यता सभी देशों में मिलेगी। परन्तु मोक्ष भारतीय मनीषियों की देन है। स्वर्ग में सुख है, पर वह खाओ, पियो, मौज उडाओ की भूमिका है। एक तरह से भौतिक स्तर है वह । नरक में दुःख है। मोक्ष स्वर्ग और नर्क-दोनों के पार है। सबसे उत्कृष्ट स्थिति है यह जीव की। वहाँ न सुख है, न दुःख । वह तो चैतन्य की विशुद्ध दशा का नाम है । वहाँ न जन्म है, न मृत्यु । वहाँ तो मृत्यु रहित जीवन है, जागृति है, चेतना है। कर्ता समाप्त हो जाता है, ज्ञाता रह जाता है। भोक्ता खो जाता है, द्रष्टा प्रत्यक्ष हो जाता है। शाश्वत शान्ति और चिर सौख्य का आस्वादन ही वहाँ शेष रहता है। वस्तुतः आत्म-पूर्णता ही मोक्ष है। क्योंकि जब तक अपूर्णता है, तब तक मोक्ष सम्भव नहीं है । आत्म-ऊर्जा जब तक भिन्न-भिन्न घटकों में, विकल्पों, तृष्णाओं, कामनाओं और वासनाओं में बंटी रहेगी, तब तक वह अपनी पूर्णता को उपलब्ध नहीं कर पायेगी। इस पूर्णता के लिए ही ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक प्रयास करना होता है। इन तीनों का पूर्ण रूप ही आत्म पूर्णता है। और, आत्म-पूर्णता ही मोक्ष है। अपूर्णता प्यास है, जिसे पूर्णता के पानी से शान्त करना है, उस प्यास को बुझाना है। काण्ट ने नैतिक पूर्णता के लिए आत्म-पूर्णता यानी अनन्त तक प्रगति अनिवार्य मानी है। ___ हमें अनुभव होता है अपनी अपूर्णता का। जब अनुभव होता है तो पूर्णता का भी अनुभव होना चाहिये । ध्यान पूर्वक विचार करें तो पायेंगे कि उस अपूर्णता की आत्मा भी पूर्ण ही है। पूर्णता सत्यतः आत्मा की क्षमता है कैपिसिटी है। यह क्षमता For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष : आज भी सम्भव ही मोक्ष की योग्यता है, एबिलिटी है। व्यक्ति के व्यक्तित्व को पूर्णता, सत् के सत्ता को पूर्णता ही आत्मपूर्णता है, मोक्ष है। हाँ ! इस सम्बन्ध में एक बात और जानने लायक है। और, वह यह कि आत्मपूर्णता में युक्तता किसी से नहीं होती। इसमें तो खोना है, रिक्त एवं शून्य करना है, जीवन के पात्र को, आत्मा को। 'जो घर फूके आपना, चले हमारे साथ ।' कबीर ने कहा है कि छोड़ दो सबको। रिक्त हो जाओ तुम तो। यह पूर्ण रिक्तता ही पूर्णता बनकर उभरती है। हकीकत में लोग 'पर' से जुड़कर 'स्व' को खो देते हैं, यह भौतिकी है। अध्यात्म के अनुष्ठान में तो पर को खोकर स्व को पाना है। स्वार्थ सिद्ध करना है। मतलब स्वस्थ होना है। जैसे-जैसे हम पर से मुक्ति पाएंगे, पर यानी चाह, वासना, अहंकार, विकल्प, राग-द्वेष । इनसे जैसे-जैसे हम छटकारा पाएंगे, स्व के हम उतने ही समीप से समीपतम आते जाएंगे। भार जैसे-जैसे कम होगा, जैसे-जैसे निर्भार होंगे, हम ऊपर उभरते जाएंगे, डूबने से बचेंगे। आ जाए 'पर' से 'स्व' मिल जाए 'स्व' में 'स्व' सदा-सदा के लिए प्रकट होगी आत्म-शक्ति को फिर निधूम अनन्य ज्योति । यह स्वारोहण है और इसी से मोक्ष सधेगा। सच पूछिये तो नैतिक जीवन का परम साध्य यह स्व की उपलब्धि ही है, नैतिकता का परमश्रेय मोक्ष की प्राप्ति ही है। इस मोक्ष को नाम हम कुछ भी दें। चाहे महाजीवन कहें, चाहे निर्वाण कहें, परमात्मा, मोक्ष या मुक्ति कहें। भिन्नता नामों की है । यह तो अलग-अलग दार्शनिकों को अलग-अलग शब्दावली है। जैसे दूध एक पर नाम अनेक : क्षीर, खीरो, दूधो, पाल, मिल्क । यह भाषा भेद है। वैसे ही मोक्ष को भिन्न-भिन्न नाम दिये गये हैं। मगर तत्त्व में भिन्नता नहीं। प्रश्न जैन का है। अतः जहाँ तक जैन का प्रश्न है, जैन दर्शन में मोक्ष के लिए मोक्ष, निर्वाण, मुक्ति आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। जैन दर्शन में मोक्ष के दो रूप माने हैं। एक तो है भावमोक्ष और एक है द्रव्य मोक्ष। इनमें राग-द्वेष का मतलब है राग-द्वष से मुक्ति और द्रव्य-मोक्ष का मतलब है निर्वाण पाना, मरणोत्तर मुक्ति की प्राप्ति। इसके लिए दो प्रतीक हैं, अरिहन्त और सिद्ध। अरिहन्त-दशा For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष : आज भी सम्भव ९१ भावमोक्ष है और सिद्धदशा द्रव्य मोक्ष है । यदि हिन्दू शास्त्रों की भाषा में कहूं तो, भाव मोक्ष है जीवन - मुक्ति और द्रव्य मोक्ष है विदेह-मुक्ति । मोक्ष, बस मोक्ष है । उसको किसी उपमा के द्वारा नहीं समझाया जा सकता । कारण, मोक्ष अनुपम है । मोक्ष वस्तुतः अनिर्वचनीय है । भगवान महावीर ने आचारांगसूत्र में यही बात कही है कि 'वहाँ से सारे स्वर लौट आते हैं।' वहाँ तर्क की गुंजाइश नहीं है । वह बुद्धि का विषय नहीं है । वहाँ तक तो आत्मा की पहुंच है । और, आत्मा उसे अनुभव कर सकती है, व्यक्त नहीं । नारदसूत्र में नारद ने इसे कहा है का गुड़ । गूंगा जैसे गुड़ का रसास्वादन कर सकता है, उसका स्वाद कैसा है यह नहीं बता सकता, वैसे ही आत्मा मोक्षानुभव कर सकती है, उसे समझाना कहना शक्य नहीं है । मोक्ष कोई वस्तु तो है नहीं, जो उसे दिखाया जा सके, समझाया जा सके, छुआ जा सके । सचमुच, मोक्ष अनुपम है, अरूपी है, और सत्तावान है । मैं तो कहूंगा कि मोक्ष चेतना का समत्व है, परम शान्ति है, परम आनन्द है, आत्म पूर्णता है, परम पद है, अमृत पद है । अब यह समझें कि इस समय मोक्ष हो सकता है या नहीं । प्रश्न था कि जैनधर्म के अनुसार इस आरे में मोक्ष नहीं हो सकता । इस आरे में इसका मायना है पंचम आरे में । यानी इस समय मोक्ष होना असम्भव है - यह बात जैनाचार्यों ने कही । परवर्ती जैनाचार्यों ने । मैं इस प्रश्न को विचारणीय कह दूँ तो ज्यादा ठीक रहेगा । वास्तव में हमें सोचना है कि क्या इस समय मोक्ष नहीं हो सकता ? यह हमारी प्राचीन परम्परा रही है, यह कहने की कि जो अतीत में सम्भव था, वह वर्तमान में असम्भव है । जो-जो बातें भूतकाल में हो गयी, उन्हें हम कहते हैं कि वर्तमान काल में नहीं होगी । अतीत को किसी ने देखा नहीं है, अनदेखा ही कहते हैं । अतीत के बारे में सुना तो बहुत ज्यादा है कि बड़ा भव्य था अतीत काल, बड़ा सुनहरा था भूतकाल । अतीत की भव्यता के पीछे हम वर्तमान की दिव्यता को हटा देते हैं । अतीत काल भव्य रहा होगा, लेकिन वर्तमान काल भव्य नहीं है, यह बात कहना कोई वैज्ञानिक तथ्यपूर्ण नहीं है । जो चीज भूत काल में सम्भव थी, वह वर्तमान में भी सम्भव है और भविष्यकाल रहेगी । कोई भी चीज ऐसी नहीं है कि जिसका अतीत तो दिव्य रहे और वर्तमान भव्य न बने । किन्तु न केवल जैनधर्म में, अपितु संसार के प्रायः सभी धर्मों में यह बात कही गयी कि जो पहले हो गया, वह अब नहीं होगा । मोक्ष, जो पहले चले गये वे चले गये । अब मोक्ष नहीं जा सकते । में भी सम्भव लेकिन थोड़ा हम दिमागी कसरत करके सोचें कि जो चीज पहले सम्भव थी, अब असम्भव क्यों है ? हाँ ! यह जरूर हो सकता है कि जो चीजें पहले असम्भव थी, वे अब सम्भव होने लग गयी हैं । आज का युग विज्ञान का युग है । और, For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष : आज भी सम्भव विज्ञान का काम ही यही है कि वह हर असम्भव को सम्भव बनाये। जो चीज नहीं हो सकती है, वह हो। बस, विज्ञान का काम इतना ही है। और, विज्ञान का अर्थ तथा उसकी परिभाषा भी यही है। जहाँ भी सत्य की सम्भावना है, कुछ होने की सम्भावना है, वहाँ-वहाँ विज्ञान पहुँचने का प्रयास करता है। हर कोने-कांतर में विज्ञान कार्य करता है। विज्ञान बुद्धि के प्रयोग की उपज है, प्रत्यक्ष प्रमाण है। सत्य तो शाश्वत है। विज्ञान उस पर आये आवरणों और पर्दो को हटाता है। अनावरण करता है। यों समझिये कि स्रोत पर से चट्टानों को हटाने का कार्य विज्ञान करता है। हाँ ! यह बात अलग है कि इसमें समय अल्प भी लग सकता है और ज्यादा भी। ___ जगदीशचन्द्र बसु ने खोज की कि वनस्पति में जीव है। इस तथ्य की सिद्धि के लिए उन्होंने एक सार्वजनिक सभा में वैज्ञानिक तथ्य दिखाये थे। एक आदमी ने कहा कि यदि वनस्पति में जीव है तब तो यह जहर खिलाने से मर जाना चाहिये । बसु ने कहा, निश्चित मरेगा। जहर दिया गया, पर वनस्पति को कुछ नहीं हुआ। लोग बसु की हँसी उड़ाने लगे। बसु ने जहर की बोटल तत्काल पी ली, पर आश्चर्य कि बसु के भी कुछ असर नहीं हुआ। आखिर बसु ने बताया, कि लोगों ने धोखा किया है। यह जहर नहीं है, कोरा पानी है। बड़ा साहस होता है, वैज्ञानिकों में। जो चीज वे कर सकते हैं, वह सार्वजनिक है। जो चीज नहीं हो सकती, उसको भी वे कर दिखाते हैं। बिजली, तारवेतार, टेलीविजन, राकेट-ये सब असम्भव से असम्भवतम कार्य समझिये, पर सब आज सम्भव हो गये हैं। इसलिए आज यह कहना कि अमुक चीज अमुमकिन है, एक तरह से मानवीय ऊर्जा, मानवीय पुरुषार्थ और प्रगतिशील विज्ञान का तिरस्कार है। इससे हमारी आत्म-शक्ति की प्रतिष्ठा भंग होती है। मोक्ष सघन ऊर्जा की यात्रा है। विज्ञान-प्रभावित धर्म और जन दोनों मोक्ष को आज भी होना मान सकते हैं। इसलिए मैं मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्न भी करता हूँ, प्रेरणा भी देता हूँ। मुझे विश्वास है कि मुझे मोक्ष मिलेगा। मेरी मृत्यु जो कि हृदय-गति रुकने से होगी, मोक्ष के फल अवश्य खिलाएगी। इसलिए मोक्ष-प्राप्ति के लिए बार-बार जोर देता हूँ और देना भी चाहिए। क्योंकि मोक्ष है और आत्मदष्टि उपलब्ध हो जाये तो मोक्ष मिलेगा भी। यह नहीं हो सकता कि बौद्ध कह दे कि केवल गौतम सिद्धार्थ ही निर्वाण को पा सकते हैं। वे ही अन्तिम निर्वाणी हुए हैं। जैन कह दें कि महावीर स्वामी या जम्बूस्वामी तक ही मोक्ष हुआ था। अथवा ईसाई कह दे कि ईसा मसीह ही परमात्मा के इकलौते पुत्र हैं, तो यह बात ज्यादा तथ्यपूर्ण नहीं लगेगी। कितनी हास्यभरी बात है यह कि आज मोक्ष नहीं हो सकता। अरे ! पहले बन्धन होता था और आज भी बन्धन होता है। पहले मोक्ष होता था, तो आज मोक्ष For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष : आज भी सम्भव क्यों नहीं होता है ? तब तो आज बन्धन भी नहीं होना चाहिये और यदि बन्धन है तो मोक्ष भी होना चाहिए । जब जन्म है तो मृत्यु भी होगी । खिलना है तो मुरझाना भी होगा । संयोग है तो वियोग भी होगा । उदय है तो अस्त भी होगा । बन्धन है तो मोक्ष भी होगा । यदि हम भविष्य के लिए मोक्ष को रखेंगे तो मोक्ष कभी भी नहीं मिल सकता | जहाँ-जहाँ पर मोक्ष को भविष्य के लिए रखा जाता है, वहाँवहाँ पर बन्धन ही बन्धन होता है, न कि मोक्ष | भविष्य किसने आया है । हर आज अतीत बन जाता है और हर कल आज । कि हर कल आज बनेगा ही। हो सकता है कल ही काल बनकर आचार्य कवीन्द्रसूरि का एक पद्य है कि देखा है, कल किसका काल-काल क्यों करता है रे काल तुझे खा जायेगा । बीत गया अगर काल बावरे, ९३ बीता काल न आयेगा || कल का भरोसा नहीं । मोक्ष होगा, आज, अभी, यहीं । यही वह जीवन है जिसका परमसाध्य मोक्ष है । केवल भूतकाल में ही मोक्ष था और आज नहीं है, वैज्ञानिक एवं तार्किक बुद्धिवालों को यही सबसे बड़ी विसंगतिपूर्ण बात लगेगी और इसीलिए वह इसे स्वीकार भी नहीं करेगा । पर यह जरूरी नहीं उपस्थित हो जाए । जरा मुसलमान मोलवी लोगों को देखो । वे कहते हैं कि मोहम्मद साहब अन्तिम पैगम्बर हुए । उनके बाद इस युग में कोई पैगम्बर नहीं हो सकता । उनकी कोटि का आदमी अब नहीं हो सकता । मुहम्मद की टक्कर का आदमी कभी पैदा हो सकता है - यह बात नामुमकिन है । मुहम्मद ही आखिरी पैंगम्बर हुए । आज यदि दूसरा पैगम्बर हो जाए तो मुसलमानों में बड़ी क्रान्ति मच जाए । लेकिन धर्म की पाबन्दी के लिए यह बात बना दी गयी कि अब दूसरा पैगम्बर नहीं होगा । जो होना था वह हो गया । वर्तमान या भविष्य काल में नहीं होगा । फिर नया पैगम्बर हो गया तो मुहम्मद को लोग विसरा देंगे । उनकी पूछ कम हो जायेगी । इसलिए कह दिया कि मुहम्मद के बाद अब अन्य पैगम्बर नहीं होंगे । यह कितनी मजे की बात है कि मुसलमानों में मुहम्मद से पहले तेवीस पैगम्बर हो गये, इससे भी ज्यादा संख्या मिलती है पर कहते हैं अब नहीं होंगे । यद्यपि अकबर आदि ने प्रयास किया, किन्तु उसका प्रयास मात्र एक महत्वाकांक्षा थी । इसलिए उसका प्रयास एक खोखली राजनीति बनकर रह गयी । बौद्धों के सम्बन्ध में भी यही बात है । गौतम ही अन्तिम बुद्ध हैं । यह वस्तुतः श्रद्धा का बुद्ध हुए, पिटकों में सात बुद्ध होने का उल्लेख है और परवर्ती बौद्धागमों में चौबीस बौद्धों ने भी यही बात कही कि विषय था । गौतम से पहले अनेक For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष : आज भी सम्भव बुद्ध होना बताया है, पर गौतम को, सिद्धार्थ को महत्ता देने के लिए पूर्व की उपेक्षा करनी पड़ी और भविष्य में बुद्धत्व का द्वार बन्द कर दिया और कह दिया कि गौतम अन्तिम बुद्ध हैं। जो बुद्धत्व गौतम बुद्ध से पहले हर एक के लिए सुलभ था, लाखों वर्षों तक सुलभ रहा, गौतम के बाद बुद्धत्व के फूल मुरझा गये। और कहते हैं कि ऐसे मुरझाए, कि फिर दूसरा फूल खिला ही नहीं। यदि उस फूल का बीज ही नष्ट हो गया हो तब तो बात अलग है। पर फिर तो ये फल कभी खिलेंगे ही नहीं। बुद्धत्व अन्धकाराच्छन्न मार्ग में खो जायेगा। और यदि बीज नष्ट नहीं हुआ तो फिर जरूर खिलेगा। अपेक्षा है उसको सींचने की। जैनी कहते हैं कि इस चालू आरे में मोक्ष नहीं हो सकता। इस आरे में तीर्थ कर नहीं हो सकता। कितनी बेढबी बात है यह। अपने हाथों से अपने पैर पर कुल्हाड़ी चलाने जैसी बात है। एक ओर तो जैनदर्शन कहता है कि हर इन्सान ईश्वर बन सकता है। अपने राग-द्वेष रूपी शत्रुओं को परास्त कर वह जब चाहे तब अपना विकास कर सकता है। विकास कर सकता है कहना ठीक नहीं, उसका विकास हो जाता है अपने आप। इसी के विपरीत दूसरी ओर यह कहा जाता है कि मोक्ष, तीर्थ करत्व इस युग में, इस आरे में नहीं होगा। मैं पूछता हूँ कि यदि इस आरे में मोक्ष का अमृत-पान नहीं होगा, तो क्या यह जीवन जहर भरा ही रहेगा। तब तो यह जीवन कोई जीवन थोड़े ही होगा, उल्टा अभिशाप बन जायेगा। इस रहस्य से जो अनभिज्ञ हैं, वे कहते हैं कि महावीर स्वामी अन्तिम तीर्थङ्कर हुए, जम्बू अन्तिम मोक्षार्थी हुए। यह तो जैनाचार्यों की कृपा ही समझूगा कि उन्होंने मोक्ष का द्वार महावीर के बाद भी खुला रखा। बन्द किया जम्बू के बाद। 'जम्बू जड़ गया ताला रे'। ताले बन्द कर दिये, मोक्ष के । पाँचवाँ और छठा आरा समाप्त होगा। यानी कि इक्कीस और इक्कीस बयालीस हजार वर्ष के बाद फिर कालचक्र का दूसरा आधा चक्र प्रधावित होगा। उत्सर्पिणी चक्र के तीसरे-चौथे आरे में फिर मोक्ष और तीर्थङ्कर होंगे। ईसाई कहते हैं कि ईसामसीह, बस वे ही ऐसे व्यक्ति थे, जिनको परमात्मा ने स्वीकार किया। ईसा ही ईश्वर के एकमात्र बेटे थे। जब कि ईसा स्वयं बाइबल में स्थान-स्थान पर कहते हैं कि जो मेरा परमपिता है, वह सबका पिता है। किसी एक का अधिकार या बपौती नहीं है उस पर। वह सबका पिता है, सब उसके बेटे हैं। लेकिन ईसाई पादरी यही कहते हैं कि ईसामसीह ही ईश्वर के एक मात्र बेटे हुए। जब ईसा ही एकमात्र इकलौते बेटे हुए तो ईसाई धर्म के अनुसार यह सारा अस्तित्व फिर क्या है ? जैसे परमात्मा ने ईसा को पैदा किया, वैसे ही दूसरी जन जाति को भी पैदा किया। तो वह पिता ईसा के भी हैं और सबके हैं। लेकिन कहा यही जाता है कि ईसा ही अन्तिम मसीहा हुए। उनके बाद कोई हो ही नहीं सकता For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष : आज भी सम्भव ईसा यद्यपि ईश्वर-पुत्र थे, किन्तु ईसाई तो ईसा को ही ईश्वर मानने लग गये हैं। वे ईश्वर को भूले जा रहे हैं और जिधर अपने को नया दार्शनिक कहे, तो लोग उसे सुख से जीने भी नहीं देंगे। रजनीश बड़ा जबर्दस्त व्यक्ति है, पर देखते हैं आप सभी कि लोगों ने रजनीश का जीना हराम कर रखा है। हाँ ! जैनी लोग रजनीश को कभी बुरा नहीं कहेंगे। क्यों कि रजनीश की जैन धर्म को अनुपम देन है। जन्म से वह जैन है पर वह निष्पक्ष आचार्य है। भगवान महावीर की भाषा में कहूं तो वह सच्चे अनेकान्तवादी हैं। पर लोग नहीं मानते। कोई दूसरे महावीर हो सकते हैं, ईसा हो सकते हैं, राम हो सकते हैं - यह लोगों को जचता नहीं। दयानन्द, विवेकानन्द, रामकृष्ण, रामतीर्थ, राजचन्द्र , अरविन्द, आनन्द, वगैरह लोग ऐसे हैं, जिनके बारे में मोक्ष-प्राप्ति की सम्भावना की जा सकती है। ____ इसीलिए मैं तो कहता हूँ कि ठीक है, उस समय मोक्ष ज्यादा सुलभ था, लेकिन आज असम्भव है यह बात कहना तो अधिक संगति पूर्ण नहीं होगा। आज भी मोक्ष मिल सकता है। यदि कहा जाए कि मोक्ष आज दुर्लभ हो गया है, तो कोई विरोध नहीं है। पर असम्भव है, इसमें विरोध है। अन्तर इतना ही है कि एक समय ऐसा आता है कि जब मोक्ष आसान हो जाता है और एक समय ऐसा होता है कि जब मोक्ष कठिनाई से होता है। महावीर के युग में, गौतम बुद्ध के युग में मोक्ष को पाना बहुत सरल था। कृष्ण के समय ईश्वर को पाना थोड़ा सरल था। आज तो कृष्ण जैसे, महावीर जैसे, बुद्ध जैसे व्यक्ति कम हैं, जो कि सच्चे मोक्ष का मार्ग बता दें। साथ ही अर्जुन, गणधर गौतम, देखो, उधर ईसा का ही प्रचार-प्रसार हो रहा है। जैसे यहूदी कहते थे कि ईसा अपने को ईश्वर-पुत्र कहता है। इसीलिए यह अपराधी है और उन्होंने दण्ड भी दिया, कास पर चढ़ा दिया। वैसे ही यदि कोई आज अपने को ईश्वर-पुत्र कहता है, ईसा की तरह तो शायद ईसाई उसकी वह हालत कर देगा, जो ईसा की हुई थी। वास्तविकता तो यह है कि आज यदि कोई दूसरा ईसा, यदि कोई दूसरा मुहम्मद अथवा दूसरा कोई परम ज्ञानी हो जाए तो वह अपना धर्म अपना मत नया बना लेगा। ईसा नये महापुरुष हुए। उन्होंने अपना धर्म अलग बनाया। जरथुस्त मे अपना मत चलाया। अरस्तु ने अपने गुरु से हटकर बातें बताई। पायथागोरस नये संशोधक हुए। __मगर भारतीय मनीषियों में यह बात नहीं मिलेगी। ये लोग अपने पूर्वजों और बुजुर्ग लोगों से न तो आगे बढ़ना चाहते हैं और न उनके बराबर अपना सिंहासन लगाना उचित समझते हैं। यह भारतीय आदर्श है। यही कारण है कि भारत में अनेक महान् से महान् चिन्तक हुए, लेकिन फिर भी भारत में दर्शन कम हैं। दर्शनों की गणना में केवल षडदर्शन ही है। विदेशों में, पाश्चात्य में जितने दार्शनिक उतने For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ मोक्ष : आज भी सम्भव दर्शन। वे लकीर के फकीर नहीं। महावीर ने जो हर इन्सान में ईश्वरत्व की सम्भावना बताई. वह पाश्चात्य में दर्शन के सम्बन्ध में हैं। कितने दार्शनिक हुए हैं पश्चिम में। रोडले, डेविड ह्यम, हेडफील्ड, कांट, गेटे,—ये सब वर्तमान उपज हैं। वहाँ पर हर व्यक्ति यदि क्षमता हो तो दार्शनिक कह सकता है अपने को। पर भारत में कोई और आनन्द जैसे लोग भी तो कम है, जिन्हें सच्चा मार्ग दर्शाया जा सके। समय प्रतिकूल भी होता है, अनुकूल भी होता है। समय, क्षत्र, भाव प्रतिकूल और अनुकूल दोनों होते हैं। अवसर कभी अच्छा मिलता है और कभी अच्छा नहीं मिलता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अब जिन्दगी में दूसरा अवसर फिर कभी मिलेगा ही नहीं। निलेगा, जरूर मिलेगा। और यदि नहीं भी मिलता है तो अपना क्या जाता है ? यदि हम मोक्ष के लिए प्रयास करते हैं, यह सोचकर कि मुझे इसी जीवन में, इसी जन्म में मोक्ष पाना है और हम प्रयास करते हैं, तथापि यदि मोक्ष नहीं मिलता तो अपने को कोई घाटा तो नहीं है। कुआं खोदते हैं पानी को पाने के लिए। यदि पानी नहीं निकलता है तो घाटा तो कुछ नहीं हुआ। कम से कम शारीरिक परिश्रम तो हो गया। व्यायाम तो हो गया। हाथ-पैर तो कम से कम मजबूत हो गये। मोक्ष के लिए प्रयास किया। कोई बात नहीं, प्रयास पूर्ण नहीं था, मोक्ष नहीं मिलता तो कम से कम स्वर्ग तो मिल जायेगा। वह तो कहीं दूर नहीं जायेगा। कुछ न कुछ तो मिलेगा। मिलेगा जरूर। अभी मिलेगा। यहीं मिलेगा। बाद में कहीं और कभी भी नहीं मिलेगा जो भी मिलना है, अभी मिल सकता है और यहीं मिल सकता है। ___मैंने सुना है, एक ब्राह्मण पण्डित भोजन करने के लिए तैयार हुआ। अचानक उसे याद आया कि बैल को खेत से लाना है। वह खेत की ओर चल पड़ा, साथ में भोजन लिया। सोचा कि आते समय भोजन कर लेगा। बैल पर बैठ गया और रवाना हो गया। भोजन कर रहा है, बैल पर बैठे-बैठे ही। रास्ते चलते एक किसान ने पूछा कि अरे ! तुम ब्राह्मण हो। भोजन करने के लिए पहले गोबर का मांडला बनाना पड़ता है। उस पर रखकर तुम भोजन करते हो। लेकिन इस बैल पर बैठे-बैठे बिना मांडले के कैसे भोजन कर रहे हो ? उसने कहा भाई ! गोबर बैल के भीतर है, कहीं बाहर नहीं। तो बाहर न बनाकर मैंने अन्दर ही गोबर का मांडला बनाया हुआ है। इसलिए कोई दिक्कत की बात नहीं है। जब भोजन करना ही है फिर वह मांडला बनाने की क्या जरूरत ? बाहर से दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं है, गोबर तो बैल के पेट में ही है। . जब मोक्ष को पाना ही है तो फिर तत्पर क्यों नहीं हो जाते। गोबर का मांडला बैल के पेट में है या पीठ पर-इस झंझट में क्यों पड़ते हो? तुम्हें भोजन से मतलब है या गोबर से ? शुक्ति से मतलब है या मोती से ? हमें मतलब है केवल मोक्ष से । समय से मतलब ही नहीं है कि अभी होगा या नहीं। For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष : आज भी सम्भव __मोक्ष कभी समय के साथ बँधा हुआ नहीं है। मोक्ष का मतलब ही है स्वतन्त्रता। सब चीज से स्वतन्त्रता । समय से भी स्वतंत्रता। मोक्ष कभी समय से बन्धा हुआ नहीं रह सकता। हम लोग मोक्ष को समय के साथ बाँध लेते हैं। लोग कहते हैं, पंचम आरा है, भ्रष्ट युग है, पतित युग है। ठीक है. बहुत कुछ कह दिया इस युग के बारे में, लेकिन हम जिस युग में पैदा हुए हैं, हमारे लिए तो यही सबसे बड़ा सतयुग है। रहा होगा किसी और के लिए प्राचीन काल में सतयुग । लेकिन हम जिस युग में पैदा हुए हैं, हमारे लिए तो वही सतयुग है। कोई दूसरा युग हमारे लिए नहीं आ सकता। तो हमें इस कलियुग को भी सतयुग बनाना है हमें इस काँटों भरे युग के पौधे पर भी गुलाब के फूल खिलाने हैं, तभी हमारी महत्ता बनेगी। इसलिए मैं कहता हूं मोक्ष अभी मिल जाएगा। यदि हम पूर्ण प्रयास करें तो इसी आरे में मोक्ष मिल जाएगा। भविष्य के लिए हम मोक्ष को छोड़ते ही क्यों है ? भविष्य के लिए मोक्ष को छोड़ा तो बन्धन बना। मोक्ष हर समय हो सकता है। साधना भी हर समय हो सकती है। ये दोनों कालातीत हैं। यह अलग बात है कि एक समय ऐसा आता है कि जब मोक्ष की साधना सरलता से होती है और एक समय ऐसा होता है जब मोक्ष की साधना करने के लिए थोड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। पर मोक्ष इस समय नहीं हो सकता, मैं नहीं मानता । समय को हम मोक्ष के साथ कभी न बाँधे । क्योंकि इससे बहुत बड़ी क्षति होगी। आदमी के पुरुषार्थ को समन्वय में लाना है, उचित समय आया हुआ है। ___ मोक्ष के लिए प्रयास और पुरुषार्थ करने के लिए मैं इसलिए कहता हूं, क्योंकि वह करने में हम समर्थ हैं मैं यह नहीं कहता कि करो, बल्कि मैं तो यह कहता हूँ कि करना चाहिए। आप कर सकते हैं, आपके भीतर वह शक्ति है। मैं आत्मा की शक्ति को, आपके सामर्थ्य को पहचानता हूं। इसीलिए मैं बार-बार जोर देता हूं मोक्ष के लिए, मोक्ष-प्राप्ति हेतु प्रयास करने के लिए। भाग्य-भरोसे मत रहो। भाग्य हमें मोक्ष दिलाएगा या नहीं दिलाएगा, पक्का नहीं, पर पुरुषार्थ अवश्य दिलाएगा। मैं पुरुषार्थवाद का समर्थक ज्यादा हूं। भाग्य नियतिवाद का अंग है। नियतिवाद के आधार पर सृष्टि केन्द्रित है, मगर मोक्ष पुरुषार्थवाद पर केन्द्रित है। महावीर ने पुरुषार्थ किया, बुद्ध ने भी पुरुषार्थ किया, ईसा ने भी पुरुषार्थ किया था, तब कहीं जाकर सर्वज्ञत्व का बुद्धत्वका ईश्वरत्व का झरना प्रवाहित हुआ था। भाग्य से, नियति से भोजन उपलब्ध हो सकता है, पर खाना स्वयं को ही पड़ेगा, यह पुरुषार्थ तो करना ही पड़ेगा। भाग्य और पुरुषार्थ का समन्वय ही सिद्धि का सोपान है। जहाँ तक जैनों का प्रश्न है, महावीर पुरुषार्थवादी कहे जाएंगे। महावीर का विरोधी व्यक्ति था गोशालक । गोशालक नियतिवादी था। और जैन शास्त्र कहते हैं कि महावीर ने गोशालक के नियतिवाद का विरोध किया था। For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ मोक्ष : आज भी सम्भव हालांकि महावीर ने नियतिवाद को सर्वथा अस्वीकार नहीं किया था। खीर की हण्डी फूटने से पूर्व महावीर द्वारा गोशालक को यहबता देना कि हण्डी फूट जायेगी खीर पकने से पहले ही, तो यह घटना नियतिवाद समर्थक हो गयी। मुझे तो लगता है कि महावीर नियति और पुरुषार्थ के समन्वयकारक साधक थे। ___ यदि हम नियति को ही आधारभूत मानेंगे, तब तो कोई भी व्यक्ति मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करेगा ही नहीं। नियति के आदेशानुसार तो व्यक्ति का बन्धन और मोक्ष सब निश्चित है। बैठे रहो सब यहीं निठल्ले की तरह। सोये रहो आम के पेड़ नीचे, और यह माला फेरते रहो, कि भाग्य में होगा, तो आम अपने आप मुंह में गिर जायेगा। वह कहानी सुनी होगी कि इसी मत का अनुयायी पेड़ के नीचे सोया रहा, पर उसे आम नहीं मिला। सोये-सोये जब नींद आ गई और वापस जब आँख खुली तो पाया कि मुंह पर कुत्ता पेशाब कर रहा है। वस्तुतः नियति के भरोसे आदमी परतन्त्र हो जाता है, और पुरुषार्थ के भरोसे स्वतन्त्र । मोक्ष उपलब्ध पुरुषार्थ से ही होगा। इस बात को भूल जाओ कि मोक्ष अभी होगा कि नहीं, पुरुषार्थ करते रहो मोक्ष के लिए पुरुषार्थ से मुंह मत मोड़ो। यह तो अहोभाग्य समझिए कि आपको अवसर मिला है, मोक्ष पाने के लिए मानव-जन्म मिला है। . जैसे मानव जीवन कठिनाई से मिलता है, वैसे ही अवसर भी कम मिलते हैं। मोक्ष पाने के लिए मानव-जीवन का कीमती अवसर मिल गया है तो बाज की तरह टूट पड़ें उस कबूतर पर । अन्यथा बाद में केवल पछतावा रहेगा। पर चिडिया खेत चुग गई तो बाद में उसे उड़ाने से कोई लाभ नहीं। कृषि सूखने के बाद वर्षा होना जैसे निरर्थक है, वैसे ही अवसर खोने के बाद उसके लिए प्रायश्चित करना। जीवन की सांसों के संग मरण भी लिपटा हुआ है। सासों का उपयोग जीते-जी हो सकता है, मरने के बाद नहीं। जीवन के अन्तिम परिणाम दो ही होते हैं। या तो मौत या मोक्ष दो ही चीज हो सकती है। यदि मोक्ष है ही नहीं, मौत ही है तो जीना बेकार है। पचास साल बाद मरें और आज मरें दोनों में एक ही बात है। जीते इसलिए हैं ताकि पुरुषार्थ करके मोक्ष को पा सकें। मरना ही अन्तिम है और सब मरते ही गये हैं यह बात गलत है। मोक्ष आज किसी को नहीं मिल सकता तो पैदा होना भी कोई काम का नहीं है। मौत तो अन्तिम परिणाम है जीवन का। यदि हम इस जीवन में अमरता को नही पा सकते-अरबों, खरबों, असंख्य वर्षों के बाद पायेंगे, तो हमारा जीवन लेना यह हमारा मनुष्य जन्म, यह महिमा पूर्ण जीवन क्या उपयोगी हो पायेगा ? नहीं। समय यही है मोक्ष को पाने का यहीं पायेंगे ! अभी पायेंगे। मोक्ष पायेंगे संसार से और हम अभी संसार में हैं। मोक्ष यानि मुक्ति/संसार से मोक्ष पाना है जीते जी, मरने के बाद कुछ नहीं बचेगा। राख और खाक ही बचेगा। जीते जी मोक्ष मिलेगा और For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष : आज भी सम्भव वह अभी और यहीं मिलेगा। अभी यानि जीते जी। जो जीते जी नहीं मिला वह कभी नहीं मिल सकता है। यहीं यानि इसी जीवन में। अतः समय यही है कि हम मोक्ष पाने के लिए पुरुषार्थ करें। मैंने सुना है एक घर में चार चोर घुस गये। घर में दो भाई थे। एक सोया था आंगन में और एक सोया था छत पर। आँगन में सोया हुआ भाई जग गया चोर की आहट पाकर। आँगन वाले भाई ने सोचा कि हम तो हैं दो और चोर हैं चार । और, पता नहीं ये लोग अपने साथ क्या लाये हैं। हम कैसे सकेंगे इनके साथ ? बड़ा भाई छत पर सोया हुआ था। आवाज भी तो कैसे दे ? आखिर उसने अंगड़ाई ली और आवाज लगाई कि नारायण भाई नारायण, हम गंगा जी तो जायेंगे। चोरों ने देखा कि एक भाई जग गया है। चलो झट से एक कोने में छिप जायें और देखें कि ये लोग क्या करते हैं। उसने फिर आवाज लगाई कि नारायण भाई नारायण हम गंगाजी तो जाएंगे। ऊपर वाला भाई जग गया उसने सोचा कि गंगा जाने की कोई बात ही नहीं थी। आखिर क्या बात है। वह फिर चिल्लाया कि-. नारायण भाई नारायण हम गंगा जी तो जायेंगे। नारायण ने सोचा कि जरूर दाल में कुछ न कुछ काला है। नारायण ने कहा किहम गंगाजी तो जायेंगे पर घर किसको सम्भलायेंगे ? नीचे वाले भाई ने कहाचरखी बेची पूनी बेची, घर में आग लगायेंगे। पर नारायण भाई गंगा जी तो जायेंगे। बड़े भाई ने सोचा कि वास्तव में कुछ न कुछ रहस्यमय बात है। फिर उसने कहा कि. हम गंगा जी तो जायेंगे, पर मारग में क्या खायेंगे। हरि, जो छोटा भाई था, उसने कहा कि चोरी कर-कर खाएंगे, पर गंगा जी तो जाएंगे। जब यह आवाज जोर से गूंजी कि चोरी कर-कर खाएंगे। तो अचानक देखा कि बाहर से एक आवाज आयी कि चोरी कर-कर खाएंगे तो जूता फड़ा-फड़ पायेंगे। बात सही थी कि यदि चोरी करेंगे तो जूते भी पड़ेंगे। अरे ! कौन है यह कमीना, जो जूता मारेगा हमें । ' बोला, तेरा बाप है कोतवाल। कहा, हमको क्या जूता मारेगा, भीतर आ और देख, तेरे बाप को मार जूते । जो कि मेरे घर में आकर बैठे हुए हैं। कोतवाल For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. मोक्ष : आज भी सम्भव ने कहा-बात क्या है। दोनों भाई बोले-भीतर आओ। दोनों जग गये सारा मुहल्ला जग गया। कोतवाल भी पहुँच गया कहा ये छिपे हैं तेरे चोर । ये चोरी करने आये हैं । जूते देने हैं तो इनको दो। समय पर यदि ये दोनों इस तरह का वार्तालाप नहीं करते तो शायद इनका सारा धन चला जाता। हम भी यदि अभी और यहीं साधना करने के लिए, मोक्ष पाने के लिए, प्रयास नहीं करेंगे तो फिर कब पायेंगे। जीवन को हम ऐसे ही खो देगें। मनुष्य-जीवन, जिसको पाने के लिए हमें जन्मों-जन्मों तक साधना और पुण्य करना पड़ा, उसको पाने के बाद भी यदि मोक्ष नहीं मिलता तो मनुष्य जन्म पाना बेकार होगा। फिर तो मनुष्य जन्म पाया कि पशु-जन्म पाया दोनों में कोई भेद नहीं होगा। मोक्ष पाने के लिए ही तो मनुष्य का जन्म पाया। देव थे भोगों में रमे। वहाँ लगा, मोक्ष यहाँ नहीं मिल सकता । तिर्यन्च में थे, तो भी लगा मोक्ष यहाँ नहीं मिल सकता। नर्क में थे-वहाँ भी लगा कि यहाँ मोक्ष नहीं मिल सकता। तो आखिर कौन सा जीवन ऐसा है जिसको पाने के बाद मोक्ष मिल जाए। न स्वर्ग रहे, न नर्क रहे, न तिर्यन्च रहे। कुछ भी न बचे, मोक्ष मिल जाए अभी और यहीं। आखिर यही एक जन्म ऐसा साबित हुआ कि जिसमें मोक्ष को पाया जा सकता है। यदि हम समय के आधार पर मोक्ष और बंधन की तुलना करेंगे तो जब महावीर स्वामी पैदा हुए, जब राम और कृष्ण हुए, जब ऋषभदेव अथवा तीर्थङ्कर हुए तब भी ऐसा तो नहीं हुआ कि सारे के सारे मोक्ष चले गये। मानलिया जाय कि उस समय अच्छा था। आरा अच्छा था। तभी लोग मोक्ष नहीं गये तो समय के आधार पर आदमी कभी मोक्ष में थोड़े ही जाता है। उस समय भी बहुत लोग ऐसे थे जो महावीर स्वामी को तीर्थङ्कर के रूप में स्वीकार नहीं करते थे। बुद्ध को बुद्ध नहीं कहते थे। बौद्ध लोग राम, कृष्ण और महावीर की निन्दा करते ये लोग और किसी की निन्दा करते होंगे। तो उस समय, समय तो अच्छा था लेकिन समय अच्छा होते हुए भी सब लोग मोक्ष को न पा सके। जब समय अच्छा होते हुए भी सब लोग मोक्ष को न पा सके, तो आज समय अच्छा नहीं है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आज कोई भी व्यक्ति मोक्ष नहीं पा सकता। मोक्ष को पाया जा सकता है। यह हमारे पुरुषार्थ और प्रयास पर निर्भर होता है। हम अपने जीवन के समय का भरपूर उपयोग करें मोक्ष के लिए। समय का हर क्षण स्वर्णकण की तरह कीमती है। समय ही जीवन है। जीवन का निर्माण समय से ही हुआ है। जैसे-जैसे समय बीत रहा है जीवन छोटा होता जा रहा है। उदित सूर्य पश्चिम की ओर बढ़ रहा है। हमें सूर्यास्त से पहले मोक्ष की अदृश्यनिधि को पा लेना है।.. For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर For Personal & Private Use Only .