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________________ महावीर समाधान के वातायन में ज्यादा जोर देते थे। तपस्यात्मक प्रणाली के द्वारा श्रमण-परम्परा में भी देह-दण्डन की प्रक्रिया चालू थी। केवल ब्राह्मण ही यज्ञ-याग के द्वारा बहिर्मुख कार्य नहीं करते थे, अपितु श्रमण-परम्परा में भी देह-दण्डन आदि तपस्यामूलक, शरीर को कृष करने की प्रणालियाँ प्रचलित थीं। उनमें केवल बहिर्गमन ही था, अन्तर्गमन नहीं था। शायद इसीलिए ही पार्श्वनाथ ने बहिर्मुखता का विरोध करके अन्तर्मुखता के लिए प्रेरणा दी बहिर्मखता की अतिवादिता को पहुँचे हुए कमठ तापस आदि के प्रसंगों एवं उनके साथ हुए वार्तालाप से यह बात समझी जा सकती है। लेकिन पार्श्वनाथ अन्तत: स्वयं अन्तर्मखता की इतनी अतिवादिता में पहुंच गये कि बहिर्मुखता को तिलांजलि ही दे दी। जहाँ ब्राह्मण-वर्ग यज्ञ-याग के द्वारा बाह्य-पक्ष पर ज्यादा जोर देते थे, वहीं पर श्रमणपरम्परा पर भी देह-दण्डन आदि के द्वारा बाह्य-पक्ष पर ही जोर देती थी। पार्श्वनाथ ने अन्तर्मुखता के लिए बहुत प्रेरणा दी। इस सम्बन्ध में पार्श्वनाथ पहले क्रान्तिकारी व्यक्ति हुए, जिन्होंने बाह्य-पक्ष को तिलांजलि देकर आन्तरिक पक्ष के लिए उपदेश दिये। इस प्रकार क्रियाकाण्ड अध्यात्म से जुड़ा। क्रिया की अति उपेक्षा अधिक समय तक टिकाऊ नहीं रही और लोगों को सही सन्तोषजनक समाधान न मिल पाने के कारण बहिर्मुखता और अधिक बढ़ गई । __महावीर के युग में बाह्य-पक्ष इतना अधिक प्रबल था, यज्ञ-याग, पशुवध, पुरोहितवाद-ये सब इतने अधिक हो गये थे, बाहरी साधना इतनी ज्यादा मजबूत हो गयी थी कि पार्श्वनाथ द्वारा प्रेरित अन्तर्मुखता का सिद्धांत गौण ही बन गया था। भगवान् महावीर ने समस्या का जो समाधान किया, उसमें बाह्य पक्ष को भी उतना ही महत्त्व दिया, जितना अन्तर्पक्ष को महत्त्व दिया था। इसी को व्यवहार-नय और निश्चय-नय कह दीजिये। उन्होंने क्रिया पर जितना ज्यादा जोर दिया उतना ही ज्यादा जोर ज्ञान और दृष्टि पर दिया था। जितना बल उन्होंने दृष्टि और ज्ञान पक्ष पर दिया, उतना ही बल उन्होंने क्रिया पर भी दिया। वस्तुतः अन्तः और बाह्य दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। भगवान् महावीर का एक बड़ा महत्त्वपूर्ण वचन है। हयं नाणं किया होणं, हया अण्णाणओ किया। पासंतो पंगुलो दड्डो, धावमाणो य अन्धओ ॥ यह गाथा 'समणसुत्त' की है समाधान के सूत्रों में यह गाथा बड़ी कीमती है, कोहीनूर हीरा। इसकी आगे वाली गाथा भी इसके अधूरेपन को पूरा करती है कि संजोअ सिद्धिइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पराइ। अन्धो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपत्ता नगर पविट्ठा ।। इन गाथाओं का मतलब यह हुआ कि क्रियाहीन ज्ञान निरर्थक है और अज्ञानियों की क्रिया व्यर्थ है। ठीक वैसे ही, जैसे पंगु आदमी वन में लगी आग को देखता है परन्तु देखते हुए भी भागने में समर्थवान न होने के कारण जल मरता है और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003961
Book TitleSamasya aur Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1986
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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