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प्रश्न है : आपने कहा कि भगवान महावीर चमत्कार को नहीं मानते थे जबकि उनके जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिनसे यह लगता है कि वे चमत्कारों में विश्वास रखते थे।
चमत्कार कभी नहीं हो सकता। जहाँ-जहाँ पर चमत्कार की बात है, वहांवहां आत्म प्रवञ्चना है। निश्चित रूप से भगवान महावीर चमत्कार में विश्वास नहीं रखते थे। यदि महावीर चमत्कार में विश्वास रखते हैं, तो उनका जैनधर्म ही गलत साबित हो जायेगा। इसीलिये न केवल भगवान् महावीर ही, अपितु उनके परवर्ती काल में हुए किसी भी जैनाचार्य ने चमत्कार नहीं दिखाया। चमत्कार के आते ही जैनधर्म, हिन्दू धर्म में बदल जायेगा।
जैनधर्म और हिन्दू धर्म में यही सबसे बड़ा अन्तर है। चमत्कार का मायाजाल हट जाये तो जैनदार्शनिकों को सारा हिन्दू दर्शन स्वीकार हो जायेगा। हिन्दूधर्म अधिकतर चलता है ईश्वरवादिता पर । कर्ता, धर्ता, हर्ता यानी सर्वेसर्वा ईश्वर है। बह जिसका चाहे, उद्धार कर सकता है और जिसका चाहे उसे उठाकर पतन के गड्ढे में गिरा सकता है। ईश्वर के लिये संसार शतरंज का खेल है। जबकि जैनदर्शन चलता है कर्मसिद्धांत पर । ईश्वर को यह मात्र नैतिक साध्य के रूप में स्वीकार करता है। जैन दर्शन के अनुसार तो कोई किसी का न तो उद्धार कर सकता है और न ही पतन । जैसा करेगा, वैसा भरेगा।
कोई स्त्री अपने शरीर पर किरासन तेल डालकर और दियासलाई की आग लगाने का कर्म करती है तो वह जलेगी ही। जलना उस कर्म का फल है। यदि नहीं जलती है तो किरासन तेल सही नहीं था, पानी रहा होगा, तेल की जगह। एक ओर तो हो किरासन तेल और साथ में हो दियासलाई की आग तो वहाँ आग लगेगी ही लगेगी, वहाँ बर्फ नहीं जम सकती। ऐसा चमत्कार नहीं हो सकता। जो लोग ऐसा दिखाते हैं, वह एक तरह का मायाजाल है। यह ठीक वैसे ही है जैसे यह संसार है। यहाँ ईश्वर का पक्ष नहीं होता। स्तरीय दार्शनिक श्रीमद्राजचन्द्र ने कहा है :
झेर सुधा समजे नहीं,
जीव खाय फल थाय । एम शुभाशुभ कर्मनो,
भोक्तापणु जणाय ॥ मतलब यह है कि जिस प्रकार जहर खाने वाला उसके प्रभाव से नहीं बच सकता, उसी प्रकार कर्मों का कर्ता भी उनके प्रभाव से नहीं बच सकता। यह बात जितनी तार्किक है, उतनी ही अनुभवसिद्ध । इसमें भ्रम का स्थान नहीं है।
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