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आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप सब ग्राह्य है फिर चाहे वह प्राचीन हो या नवीन । जैसे साँप कंचकी को छोड़ता है वैसे ही हमें भी निस्सार तत्त्व के प्रति व्यामोह नहीं रखना चाहिए। क्षेत्र और समय की आवश्यकतानुसार हम अपने आचार-व्यवहार में परिवर्तन कर सकते हैं जो कि नीति सम्मत है।
नीति का लोहा चित्त की भट्टी में चिन्तन की अग्नि में परितप्त कर संयोजनात्मक कदम बढ़ाकर पोटो, बुरी तरह पीटो परिमार्जन के हथोड़ों से स्वयं लोहार बन अन्धविश्वास, पुरानी परम्पराओं के रजकण, नव निर्माण के सांचे में ढाल दो उसे। उपस्थित होगा एक नया रूप, परिष्कृत संस्कृति का स्वरूप। .
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