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________________ प्रश्न है : मन्दिर आदि में आते समय 'निसीहि-निसीहि' कहना क्या केवल कहना ही है, या इसका कोई आन्तरिक एवं सैद्धान्तिक मम भी है ? निसीहि द्वन्द्वातीत अवस्था तक पहुँचने की एक मनोवैज्ञानिक एवं सैद्धान्तिक पद्धति है । निसीहि चित्त एवं मस्तिष्क को शुभतम करने की प्रक्रिया है । निसीहि से अशुभ की निर्जरा होती है। मन्दिर, उपाश्रय या गुरु-चरणों में उपस्थित होते समय निसीहि निसीहि कहने का मतलब यही है कि इधर-उधर के बाह्य विकल्पों और द्वन्द्वों का निषेध एवं निराकरण करके धर्म-साधना के मार्ग में प्रस्तुत होना। मस्तिष्क में जितना भी कूड़ा-कचरा भरा है, सबको खाली कर देना। सारे सांसारिक सम्बन्धों से सम्बन्ध विच्छेद कर लेना । खोपड़ा बिल्कुल खाली रहना चाहिए, मन्दिर में प्रवेश करते समय मन्दिर में जाते समय यदि मस्तिष्क का पात्र सर्वथा खाली होगा तभी उसमें परमात्मत्व का अमृत-रस भरेगा। गुरु-चरणों में जायेंगे, निसीहि-निसीहि कहकर यानी हमारे मस्तिष्क का पात्र बुद्धि का पात्र रिक्त होगा, तभी गुरु उस पात्र को भरने में समर्थ हो पायेगा। भिखारी का पात्र अगर पहले से ही भरा है, तब दाता उसमें और क्या डालेगा। किसी को कुछ पाना है तो यह सर्वप्रथम सूत्र है कि अपने पात्र को खाली रखो। पहले प्यास जगाओ, फिर प्याऊ के पास जाओ। __आस्पेसंकी जब गुरजिएफ के पास ज्ञान लेने गया, तब गुरजिएफ ने उसे एक पन्ना दिया और कहा कि तुम्हें क्या आता है ? तुम्हें जो भी आता हो, इस पन्ने में लिख दो गुजरिएफ की यह एक साधनामूलक प्रकिया थी। आस्पेसंकी प्रसिद्ध कवि, दार्शनिक और विचारक। किन्तु वह एक शब्द भी पृष्ठ में न लिख सका। उसे यह बोध हुआ कि गुरजिएफ से यदि मुझे कुछ पाना है तो मुझे अज्ञानी बालक की तरह पेश आना होगा। बिल्कुल अबोध आस्पेसंकी उसी क्षण गुरजिएफ के चरणों में आ गिरा और कहा कि मैं कुछ नहीं जानता। मेरे पास लिखने को कुछ नहीं। गुरजिएफ बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे बहुत कुछ दिया। उसका पात्र आत्मज्ञान से लबालब कर दिया, बाहर छलकने जितना। किन्तु लोग जाते हैं मन्दिर, गुरुद्वारों में कुछ न कुछ लेकर जाते हैं। वे न भरे होते हैं न खाली। उनकी ‘अधजल गगरी छलकती' है। भरा हुआ नहीं छलकता, अद्ध भरित घड़ा छलकता है। छलकने का मतलब ही है कि घड़ा न तो भरा है, और न खाली। 'भरिया जो छलके नहीं छलके सो अद्धा। वे गुरुद्वारों और मन्दिरों में जाकर भी वैसे ही पात्रवाले रह जाते हैं, जैसे पहले थे। कोल्हू के बैल की यात्रा समझो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003961
Book TitleSamasya aur Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1986
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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