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________________ आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप और व्यवहारों का पालन किया जाता है, लेकिन स्वयं तीर्थ कर भी देश और काल के अनुसार ही धर्म का कथन करते हैं । हम स्वयं हमारे जीवन में ही देख लें। शरीर हमेशा एक जैसा नहीं रहता । वह कभी बढ़ता है, कभी घटता है और कभी हम पुनर्जन्म ग्रहण करते हैं । आचार और व्यवहार भी हमेशा एक जैसे नहीं होते हैं । उनमें परिवर्तन आता ही रहता है । इसलिए महावीर स्वामी ने उत्पात, व्यय और धौव्य की त्रिपदी को हमारे सामने प्रस्तुत किया था। ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही उत्पात, व्यय और धौव्य के ही प्रतीक है । जिस किसी भी वस्तु का जन्म होता है उसकी स्थिति भी होती है और वापस समापन भी होता है । कल भिखारो थे वे आज परिवर्तन प्रकृति का नियम है । प्रकृति के इस नियम को मैं तो क्या, सभी लोग स्वीकार करते हैं और बड़े विनम्रभाव के साथ । फिर चाहे वह जड़ हो या चैतन्य | जो कल राजा थे, वे आज निर्धन हैं और जो धनवान् हैं । भारत की स्वतन्त्रता से पहले जो लोग निर्धन थे, वे नेता आज बड़े-बड़े पद पर और काफी समृद्ध देखे जाते हैं और जो वर्तन की यह महिमा है । इसीसे ही क्षणमात्र है और दुख सुख का स्थान ग्रहण कर लेता । भाटा ये सब प्रकृति के परिवर्तनशील धर्म हैं । राजा थे, वे आज असमृद्ध है । परिमें सुख दुःख का स्थान ग्रहण कर लेता बढ़ती घटती, उतार-चढ़ाव, ज्वार हर चीज हर समय के लिए एक जैसी नहीं रहती है । उसमें परिवर्तन आ ही जाता है । स्वयं प्रकृति जिन वृक्षों को, फलों, फलों और पत्तों को धारण करती है । एक दिन वह भी आता है जब प्रकृति उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर डालती है । वास्तव में ऐसा होना भी चाहिए । जिन वृक्षों के पत्ते पीले पड़ गये हैं, उन्हें संजो-संजो कर रखने से नये पत्ते पैदा नहीं हो पायेंगे । उनके लिए जरूरी है कि वे पत्ते गिराए जाएँ । इसीलिए सुमित्रानंदन पन्त ने कहा गा कोकिल बरसा पावक कण | नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन ॥ पुरातन हमेशा अच्छा होता है ऐसी बात नहीं है, नवीन हमेशा अच्छा होता है, यह भी बात सही नहीं है । देश और काल के अनुरूप कभी प्राचीन भी बुरा हो जाता है और कभी नवीन भी घातक सिद्ध हो जाता है । हम आज को ही क्यों लें । स्वयं तीर्थङ्कर आदिनाथ से भी हम इस बात को जोड़ें तो भी यह बात बिलकुल सही प्रमाणित होती है कि हमारे आचार और व्यवहार देश तथा काल के अनुसार परिवर्तित हो सकते हैं । ऋषभदेव ने कठोर चर्या की अचेलक नग्नता को स्वीकार किया था. लेकिन ऋषभ के बाद ही दूसरे तीर्थङ्कर अजितनाथ ने कठोर चर्या को मृदुचर्या में परिवर्तित कर दिया था । अचेलक Jain Education International For Personal & Private Use Only ३७ www.jainelibrary.org
SR No.003961
Book TitleSamasya aur Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1986
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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