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निसी हि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया
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हैं तो वह अध्यात्म-स्थल नहीं, अपितु एक सांसारिक व्यवसाय स्थल होगा । संसार तो कीचड़ है और मन्दिर उससे ऊपर - एक निर्मल कमल ।
इसीलिए ज्ञानी मनीषी कहते हैं कि सबसे पहले विरेचन करो, निसीहि हो । मन्दिर में प्रविष्ट हो गये हो तो बाहर के सारे द्वन्द्वों से मुक्ति पा लो । निसीहि का मतलब ही है तनाव से मुक्ति । आज के युग का सबसे भयंकर और असाध्य रोग है मानसिक तनाव । चिकित्सकों के द्वारा इस रोग की चिकित्सा कष्टकर है। महावीर दुनिया के महान् चिकित्सक हुए । उन्होंने इस रोग को दूर करने की यौगिक एवं प्राकृतिक चिकित्सा ढूंढ निकाली और वह है निसीहि । मानसिक तनाव से मुक्ति पाने की यह अचूक दवा है ।
आप लोग अन्त्येष्टि
मस्तिष्क को, चैतसिक जीवन को संस्कारित करने का तरीका है यह । जैसे साबुन के द्वारा बर्तन का संस्कार होता है, व्याकरण के द्वारा भाषा का संस्कार होता है, वैसे ही निसीहि के द्वारा मस्तिष्क और मन का संस्कार होता है । संस्कार करते हैं । यानि कि मुर्दे को जलाते हैं, शव को । बस, निसीहि में यही करना है कि मस्तिष्क में जो कूड़ा है, जो शव सड़ रहे हैं, उनका अन्त्येष्टि संस्कार करना है । यही धर्म है क्योंकि मन्दिर के गृह में मुर्दों का कोई काम नहीं है । ये तो विपर्याय दुर्गन्ध फैलाएँगे । मन्दिर में तो चाहिये जीवन तथा जीवन्तता ।
तो मन्दिर में जाओ, चाहे उपाश्रय स्थानक में जाओ या गुरु चरणों में जाओ, कहीं भी जाओ, निसीहि सबसे पहले जरूरी है ।
आदमी के अन्दर जो घास का ढेर है और उस ढेर में जो सूई खो गई है, बस उस सूई को बचा लो । घास के ढेर में सूई की खोज - यही साधना है । तो भस्म कर दो घास के ढेर को । मन्दिर में प्रवेश करते समय लक्ष्य केवल सूई की खोज का रहे । इसके अलावा जितने भी द्वन्द्वों, सांसारिक संयोगों के घास के पुलिन्दे हैं, सबसे मुक्ति पाकर मन्दिर में प्रवेश करो ।
जैनागम स्थानांगसूत्र में साधु के लिए श्रमण, भिक्षु मुंड, साधु, मुनि, यति आदि १० नाम प्रयुक्त हुए हैं, किन्तु उनमें मुनि शब्द का प्रचलन अधिक हुआ । बड़ा सोच-समझकर इस शब्द का प्रयोग हुआ । जैनियों के सबसे महत्वपूर्ण शब्दों में एक है यह । बड़ी अर्थवत्ता है इस शब्द की । मुनि यानि कि जिसका मन मौन हो गया है । भीतर में अब किसी तरह का द्वन्द्व नहीं है । कोलाहल रहित और द्वन्द्व से अतीत विचारों की उपज - - यही मुनित्व की अभिव्यक्ति है । जो परमात्मा के मन्दिर में जाता है, वह बिल्कुल मुनि के रूप का ही होना चाहिये ।
मन्दिर में प्रविष्ट हुए धर्म - साधना में उपस्थित होने के लिए । चरणों में समर्पित हो गये और कहा कि भगवान ! हम आपके चरणों में गये और आपने जो मार्ग बताया है, उसे हम अंगीकार करते हैं । और, कहते ही वह आवस्सहि कहता है और पुनः संसार में लौट आता है ।
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परमात्मा के समर्पित हो यह कहते
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