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पदयात्रा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में
उपयोग नहीं करते तो उनकी पद-यात्रायें अवरुद्ध हो जाती अतः नौका का उपयोग अनिवार्यता होने पर ही किया जाता था। मैंने भी किया है जियागञ्ज-अजीमगञ्ज दोनों के बीच में नदी है, किन्तु पुल नहीं है। अतः नौका का उपयोग हुआ। पहले जो मुनि आकाशचारी थे, वे आकाश में तभी उड़ते जबकि अत्यन्त ही आवश्यक हो जाता कि यदि हम इस सिद्धि का उपयोग नहीं करेंगे तो किसी बड़े कार्य से लाभान्वित न हो पाएंगे।
जैन आचार्य तो यहाँ तक कि भगवान की पूजा करने के लिए पुष्पलाने हेतु भी आकाश में उड़े और पुष्प लाये स्वयं अपने साथ में पुष्प लेकर आये, लेकिन वह एक परिस्थिति थी। उन आचार्यों के लिए जैन धर्म के गौरव की रक्षा करने के लिए उन्हें ऐसे कार्य भी करने पड़े जो उनके लिये अकरणीय हैं ।
प्रश्न ठीक है कि मनुष्य शब्द की गति से यात्रा करने की तैयारी कर रहा है।
वस्तुतः यात्रा मनुष्य का स्वभाव बन गया है। जैसे ही यात्रा रुकी वैसे ही मोक्ष हुआ। जब तक यात्रा है तभी तक उसका जीवन है उसका अस्तित्व है, उसकी गति है, प्रगति है। यात्रा रुकी कि उसका परिश्रम रुक गया। यात्रा की व्याकुलता, यात्रा कि विह्वलता, यात्रा का कष्ट और दुख सब कुछ समाप्त हो जाता है ।
चली आ रही है संसार की यात्रा पर दूर-सुदूर से निरन्तर गतिशील जीवन की नौका छ छ कर जन्म-मरण के जर्जरित तटों को। सुदीर्घ काल की यात्रा से यात्रा को विकलता से विह्वल, व्याकुल मुक्ति-बोध होगा इसी अन्तस-चेतना से प्राप्त होगा जिस क्षण
आत्मा का द्वीप। आज मनुष्य केवल शब्द की गति से यात्रा करने की तैयारी कर रहा है। वह केवल शब्द की गति से यात्रा करना ही नहीं चाहता उसकी तो इच्छा है कि वह
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