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________________ महावीर समाधान के वातायन में उस युग में जहाँ एक ओर ईश्वरवादिता की धारणा का प्रभाव था, वहीं दूसरी ओर कालवादी और नीतिवादी धारणायें अपने चरम विकास पर थीं । मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता को खो बैठा था । उसके मन में एक ही विचार था कि जैसे-तैसे ईश्वर को खुश किया जाये । और ईश्वर को खुश करने के लिए आया यज्ञ-याग, ब्राह्मणवाद, पुरोहितवाद | आत्मा और परमात्मा के मिलन के लिये इन बीच के दलालों को खुश करना जरूरी हो गया । मनुष्य पराधीन और परतन्त्र हो गया । वह बाह्य आचरण जरूर करता था, लेकिन भीतर से बड़ा आक्रान्त था । बाहर से तो पशुओं की आहुति दी जाती थी यज्ञों में, लेकिन सचमुच स्वयं मनुष्य भी भीतर में पशु की तरह ही धधक रहा था । भगवान महावीर ने उसकी परतन्त्रता को समाप्त किया और उसे स्वतंत्रता दी | अग्निशामक बनकर उसकी आग को बुझाना | दूसरी प्रचलित धारणायें, दूसरे मत जो मनुष्य की स्वतन्त्रता का अपहरण कर रहे थे, जो उनके साथ, उनकी स्वतंत्रता के साथ अत्याचार हो रहा था, महावीर स्वामी ने उससे खुला विद्रोह किया और बड़े जमकर । जिस युग में ईश्वरवादिता, कालवादिता और नीतिवादिता अपने चरम रूप में हो, उस युग में ईश्वरवादिता कालवादिता और नीतिवादिता का खुला विद्रोह करना भगवान महावीर जैसे निर्भीक, बहादुरों और महावीरों के ही वश की बात है । उन्होंने सत्य को प्रकट किया, परतन्त्रता को समाप्त किया । मनुष्य की स्वतन्त्रता जो दूसरों ने छीन ली थी, विद्रोह करके उनको वापस दिलाई | इसीलिये महावीर स्वामी के प्रति लाखों लोग आकर्षित हुए, समर्पित हुए । भगवान महावीर अनीश्वरवादी थे । अनीश्वरवादी भी मात्र इस दृष्टिकोण से कि उन्होंने ईश्वर का वह रूप स्वीकार नहीं किया, जो सृष्टि संचालन का आधारभूत माना जाता है । सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता या नियामक कोई सर्वशक्तिमान ईश्वर है, इसे महावीर स्वीकार नहीं करते । उन्होंने षड्द्रव्यों के आधार पर यह लोक अनादि और अनन्त बताया । भला, उस तत्व को ईश्वर कहा भी कैसे जा सकता है, जो स्रष्टा और संहर्त्ता हो । माया से, राग द्व ेष से युक्त हो । इसीलिये महावीर गीता के श्री कृष्ण की तरह यह उद्घोषणा नहीं करते कि 'सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेक शरणं व्रज । अहंत्वां सर्व पापेभ्यो, मोक्षयिष्यामि मा शुचः । यानी कोई हो सब धर्म छोड़ तूं, आ बस मेरा शरण धरे । डर मत कौन पाप वह जिससे, मेरे हाथों तूं न तरे ॥ यानी मानवजाति ईश्वर की कठपुतली हुई । न स्वतन्त्र विचार-शक्ति, न स्वतन्त्र- संकल्प शक्ति - सब ईश्वराधीन । कर्मसिद्धांत धूमिल हो गया । ईश्वरत्व बपौती हो गई । यह राजतन्त्र हुआ । महावीर गणतन्त्रवादी थे । उनका कहना था Jain Education International ११ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003961
Book TitleSamasya aur Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1986
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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