________________
महावीर समाधान के वातायन में
कि हर इन्सान ईश्वर बन सकता है। प्रत्येक इन्सान अपना परम विकास कर सकता है। वीतरागता का विकास ही ईश्वरत्व का प्रकाश है । वह स्वयं ही अपना नियामक और संचालक है । अपना मित्र और अपना शत्रु वह स्वयं ही है। आत्म स्वतन्त्रता और 'आत्मा वै परमेश्वरः' के सम्बन्ध में महावीर का यह अद्भुत विज्ञान है ।
___ महावीर परम स्वाभिमानी और परम स्वावलम्बी थे, गज और आकाशवत् । स्वस्थ थे वे, यानी आत्मस्थित थे। यह महावीर के अहंकार की बात नहीं है, अपितु मानवजाति और आत्मा को महानता देने की बात है। दूसरे दार्शनिकों ने भी आत्मा का अस्तित्व माना । ईश्वरवादी परम्पराएँ भी आत्मवादी ही हैं। किन्तु वे आत्मा को मुख्यता न दे सके। महावीर ने आत्मा को मुख्यता दी। इसीलिये महावीर स्वतन्त्र और सबसे बड़े आत्मवादी हुए। परमात्मा तो इसी आत्मा का विकसित रूप है। अप्पा सो परमप्पा । आत्मा के स्वर हैं
मेरा ईश्वर मेरे अन्दर, मैं ही अपना ईश्वर हूं। कर्ता, धर्ता, हर्ता अपने जग का मैं लीलाधर हूं। शुद्ध, बुद्ध, निष्काम निरंजन कालातीत सनातन हूं।
एक रूप हूं सदा-सर्वदा, ना नूतन न पुरातन हूं॥ इसी तरह आत्म-तत्व या पदार्थ तत्व की ध्र वता एवं अध्र वता के सन्दर्भ में एक जटिल दार्शनिक समस्या थी। समस्या यह थी कि कुछ दार्शनिक प्रत्येक पदार्थ को ध्र व मानते थे, तो कुछ दार्शनिक क्षणभंगुर यानी अध्र व । महावीर स्वामी ने हल दिया और बड़ा मनोवैज्ञानिक । सभी मान्यताओं को एक रूप कर दिया। इसमें उनका स्याद्वादी याने अनेकान्तवादी रूप मुखरित हुआ। सब अपने अपने मत पर अड़े थे। फल यह हुआ कि ध्र वता का सिद्धांत अध्र व-सा होने लगा और अध्र वता का सिद्धांत तो अध्र व था ही।
भगवान महावीर ने समाधान दिया कि सृष्टि का हर पदार्थ अपने-अपने स्वभाव के अनुसार ही प्रवर्तमान है, किसी और के द्वारा नहीं। कोई भी पदार्थ, फिर चाहे जड़ हो या चेतन अपने स्वभाव से हट नहीं सकता। वे सब उत्पत्ति, स्थिति और विनाश से युक्त है । उत्पादट्ठिदिभंगा – इसी को त्रिपदी कहते हैं। महावीर के दर्शन का महल इन्हीं तीन खंभों पर खड़ा है।
मैंने सुना है : एक ग्वाला था। वह गाँव भर की गौओं को चराता और उससे जो आय होती, उससे अपनी आजीविका चलाता था। उसकी गायों में तीन कट्टर विद्वानों की गायें भी चरने जाती थी। वर्ष के अन्त में ग्वाला चराई के पैसे लेने गया। सबसे पहले वेदान्ती पण्डित के पास पहुँचा और पैसे मांगे तो उस वेदान्ती पण्डित ने कहा कि कौन से पैसे और किसके पैसे, जब सारी दुनिया ब्रह्मस्वरूप है। सब उसी के अंश हैं। मैं भी ब्रह्मरूप, तुम भी ब्रह्मरूप, गाय भी ब्रह्मरूप। जब सब
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org