SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६९ आदर्शवाद-यथार्थवाद गत युग के बहु धर्म-रूढ़ि के ताज मनोहर, मानव के मोहान्ध हृदय में किये हुए घर । भूल गये हम जीवन का सन्देश अनश्वर मृतकों के हैं मृतक जीवितों का है ईश्वर ! यथार्थवाद और आदर्शवाद की यहीं पर टक्कर होती है। यथार्थवाद और आदर्शवाद दोनों का हमें सामंजस्य करना होगा। गरीब लोग ये नहीं कहते हैं कि हमें मोती दो। वे तो कहते हैं कि हमें रोटी दे दो। मोती तो हम तुम्हें देते हैं। कम से कम हमें रोटी तो दे दो। लेकिन वे लोग गरीब को रोटी भी नहीं दे पाते। लेकिन आज के राजनीतिक लोगों की नजरों में तो है लंगोटी और बड़ी बड़ी बातें करते हैं। गाँधी की लंगोटी का आदर्श दिखाते हैं। गाँधी ने जो एक एक घर में जाकर और आदर्शवाद की स्थापना की थी, वह आदर्शवाद उनमें नहीं है। राजनीति में यदि आदर्श हो तो वह राजनीति अमृत है। यथार्थ और आदर्शवाद एवं यथार्थवाद से रहित होकर भाषण तो दिये जा सकते हैं, नारे तो लगाये जा सकते हैं, किन्तु वह केवल, चीखना-चिल्लाना होगा। यथार्थवाद अकेला ही शिव और सुन्दरकर नहीं होता है। यथार्थवाद तभी कल्याणकारी और लोकमङ्गलकारी होता है जब वह आदर्शवाद से समन्वित होता है और इसी तरह आदर्श भी केवल सच्चा आदर्शवाद नहीं होता यदि वह आदर्शवाद से समन्वित नहीं है तो जैसे कैबरा डान्स, डिस्को डान्स में, स्ट्रीपिरीज डान्स में नग्नता का सौन्दर्य है। आजकल नग्नता को भी एक सौंदर्य माना जाता है। ठीक है, वह यथार्थ का ही प्रगटन है, क्योंकि भीतर से सभी आदमी नंगे हैं, लेकिन यह उनका नग्न सौंदर्य आदर्श पूर्ण नहीं है। कोई भी आदमी नग्न को देखेगा तो या घृणा के मारे अपनी आँखों को बन्द कर लेगा या फिर उसके भीतर मनोविकार पैदा हो जायेंगे। तो यह यथार्थवाद यथार्थ होते हुए भी लोगों के लिए अमङ्गलकारी है। नग्न सौन्दर्य को आदर्श का आवरण देना ही होगा। अन्यथा वह यथार्थवाद समाज के लिए घातक सिद्ध हो जाता है। इसीलिए आज पाश्चात्य-जगत में खाओ पीओ और मौज उड़ाओ की निम्न भौतिक भूमिका ही रह गयी है क्षुधा को शान्त कर लो, काम पिपासा को शान्त कर लो, बस इतना सा ही रह गया है वहाँ का जीवन-दर्शन, वहाँ की विचार धारा। अतः दोनों का सामञ्जस्य होना चाहिए। पुनरुद्धार होना चाहिये। ____ मैंने पढ़ा है, जब सिकन्दर भारत पर आक्रमण करने आया था उस समय की बात है कि सिकन्दर पोरस की राज्य-सभामें बैठा हुआ था। दोनों बातचीत कर रहे थे। इतने में ही दो प्रजाजन वहाँ पर पहुंचे और न्याय की माँग की। तो पोरस ने कहा कि मैंने इस आदमी से एक साल पहले १० एकड़ जमीन खरीदी थी। अब बरसात का मौसम आ गया तो मैंने हल जोतवाना शुरू किया। जब हल जुत रहा था तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003961
Book TitleSamasya aur Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1986
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy