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मोक्ष : आज भी सम्भव
ईसा यद्यपि ईश्वर-पुत्र थे, किन्तु ईसाई तो ईसा को ही ईश्वर मानने लग गये हैं। वे ईश्वर को भूले जा रहे हैं और जिधर अपने को नया दार्शनिक कहे, तो लोग उसे सुख से जीने भी नहीं देंगे। रजनीश बड़ा जबर्दस्त व्यक्ति है, पर देखते हैं आप सभी कि लोगों ने रजनीश का जीना हराम कर रखा है। हाँ ! जैनी लोग रजनीश को कभी बुरा नहीं कहेंगे। क्यों कि रजनीश की जैन धर्म को अनुपम देन है। जन्म से वह जैन है पर वह निष्पक्ष आचार्य है। भगवान महावीर की भाषा में कहूं तो वह सच्चे अनेकान्तवादी हैं।
पर लोग नहीं मानते। कोई दूसरे महावीर हो सकते हैं, ईसा हो सकते हैं, राम हो सकते हैं - यह लोगों को जचता नहीं। दयानन्द, विवेकानन्द, रामकृष्ण, रामतीर्थ, राजचन्द्र , अरविन्द, आनन्द, वगैरह लोग ऐसे हैं, जिनके बारे में मोक्ष-प्राप्ति की सम्भावना की जा सकती है।
____ इसीलिए मैं तो कहता हूँ कि ठीक है, उस समय मोक्ष ज्यादा सुलभ था, लेकिन आज असम्भव है यह बात कहना तो अधिक संगति पूर्ण नहीं होगा। आज भी मोक्ष मिल सकता है। यदि कहा जाए कि मोक्ष आज दुर्लभ हो गया है, तो कोई विरोध नहीं है। पर असम्भव है, इसमें विरोध है। अन्तर इतना ही है कि एक समय ऐसा आता है कि जब मोक्ष आसान हो जाता है और एक समय ऐसा होता है कि जब मोक्ष कठिनाई से होता है। महावीर के युग में, गौतम बुद्ध के युग में मोक्ष को पाना बहुत सरल था। कृष्ण के समय ईश्वर को पाना थोड़ा सरल था। आज तो कृष्ण जैसे, महावीर जैसे, बुद्ध जैसे व्यक्ति कम हैं, जो कि सच्चे मोक्ष का मार्ग बता दें। साथ ही अर्जुन, गणधर गौतम, देखो, उधर ईसा का ही प्रचार-प्रसार हो रहा है। जैसे यहूदी कहते थे कि ईसा अपने को ईश्वर-पुत्र कहता है। इसीलिए यह अपराधी है और उन्होंने दण्ड भी दिया, कास पर चढ़ा दिया। वैसे ही यदि कोई आज अपने को ईश्वर-पुत्र कहता है, ईसा की तरह तो शायद ईसाई उसकी वह हालत कर देगा, जो ईसा की हुई थी।
वास्तविकता तो यह है कि आज यदि कोई दूसरा ईसा, यदि कोई दूसरा मुहम्मद अथवा दूसरा कोई परम ज्ञानी हो जाए तो वह अपना धर्म अपना मत नया बना लेगा। ईसा नये महापुरुष हुए। उन्होंने अपना धर्म अलग बनाया। जरथुस्त मे अपना मत चलाया। अरस्तु ने अपने गुरु से हटकर बातें बताई। पायथागोरस नये संशोधक हुए।
__मगर भारतीय मनीषियों में यह बात नहीं मिलेगी। ये लोग अपने पूर्वजों और बुजुर्ग लोगों से न तो आगे बढ़ना चाहते हैं और न उनके बराबर अपना सिंहासन लगाना उचित समझते हैं। यह भारतीय आदर्श है। यही कारण है कि भारत में अनेक महान् से महान् चिन्तक हुए, लेकिन फिर भी भारत में दर्शन कम हैं। दर्शनों की गणना में केवल षडदर्शन ही है। विदेशों में, पाश्चात्य में जितने दार्शनिक उतने
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