Book Title: Samasya aur Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 90
________________ निसीहि : मानसिक विरेचना की प्रक्रिया ८१ मन्दिर में कभी-कभी तो यह भी देखा-सुना जाता है कि कुछेक लोग अपशब्द और गालियाँ तक भी प्रयोग कर लेते हैं। कभी-कभी तो नौबत यहाँ तक आ जाती है कि लोग लड़ाइयाँ भी कर बैठते हैं मन्दिर में। जबकि मन्दिर में तो किसी तरह की ध्वनि न हो, ऐसा प्रयास रखना चाहिये, ताकि अन्य लोगों को अड़चन न हो। अब बाजार में लड़े तो बाजार में लोग उसकी हड्डी पसली एक कर दें। इसलिए लड़ते हैं मन्दिर में ताकि कोई कुछ ज्यादा बोल न सके । मन्दिर में भले आदमी आने वालों की भी कमी नहीं है । अत: सामने वाला आदमी तो हाथ उठा ही नहीं पायेगा। तो लोग मन्दिर में लड़ाइयाँ शुरू करते हैं, गाली गलोच शुरू कर देते हैं मन्दिर में ही गुस्से के अंगार उगलते हैं। यानि समाज को वे यह साफ जाहिर कर देते हैं कि हमारे संस्कार कैसे हैं ? इस तरह पूजा-स्थल और साधना-स्थल यों समझो कि एक छोटा युद्धस्थल बन जाता है, घरेलू महाभारत । दो दिन पूर्व मैं महर्षि ब्रह्मानन्द सरस्वती के जीवन के बारे में पढ़ रहा था। ब्रह्मानन्द सरस्वती की एक घटना बड़ी अच्छी लगी। ब्रह्मानन्द जब युवक थे, तो गये हिमालय में । हिमालय में जाकर देखा कि बहुत-से लोग साधना कर रहे हैं। शान्त-मूर्तियाँ लग रही हैं वे। ब्रह्मानन्द किसी ब्रह्म-दर्शी की खोज में थे। आखिर उन्हें एक सन्त-योगी के बारे में जानकारी मिली, जो सर्वज्ञ वीतरागी सन्त माने जाते थे। ब्रह्मानन्द पहुंच गये उनके पास और कहा महाराज ! आपके योग-ध्यान एवं वीतरागता की चर्चा मैंने सुनी है। आप शान्त-मूर्ति हैं। भगवन् ! मैं बहुत दूर से आया हूं आपके पास। ठंड भी लग रही है। क्या थोड़ी-सी आग मिलेगी आपके पास ? तो महाराज ने कहा कि तुम नहीं जानते कि हम वे साधु हैं जो आग रखना तो दूर छूते भी नहीं ? ब्रह्मानन्द बोले कि ओह ! समझा परन्तु थोड़ी-सी तो होगी? थोड़ी-सी से काम चल जायेगा। मैं बर्फ हो रहा हूं। जैसे कलकत्ता के भिखारी लोग होते हैं न, मांगते हैं एक रुपया; तो सेठ कहते हैं कि जा भाई आगे जा कुछ नहीं है। तब भिखारी कहता है कि बाबू अठन्नी दे दो। वह कहता है कि कुछ नहीं है चला जा। तो भिखारी कहता है अरे बाबू ! चवन्नी दे दो।' अबे कहा न, इतनी बार कह दिया, कम सुनता है। तो भिखारी फिर कह देता है कि अच्छा बाबू रहने दो चवन्नी, अठन्नी, रुपया। प्यास बहुत तेज लगी है, पाँच पैसा ही दे दो। एक गिलास पानी खरीदकर पी लगा। वैसे ही ब्रह्मानन्द ने कहा कि थोड़ी-सी आग दे दें। देखिये, इत्ती सी। तो उस साधु ने कहा कि अरे ! मैंने कहा न कि हम साधु हैं और आग को साधु छू नहीं सकता। तब आग हम कहाँ से रखेंगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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