Book Title: Samasya aur Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 93
________________ निसीहि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया भगवान् महावीर ने ऐसे व्यक्तियों के लिए शब्द प्रयोग किया भक्त । यानि कि जो भगवत्ता को पाने के लिए प्रयासशील है, वह भक्त । लेकिन भगवत्ता उसे ही मिलेगी जिसके जीवन का पात्र मंजा - मंजाया साफ-सुथरा है । विरेचित जीवन के पात्र में ही परमात्मा का अमृत भर सकता है । 'अमीर' बन जायेगा वह । इसके अलावा और कोई आदमी भर नहीं सकता । भगवत्ता कोई भीख थोड़ी मांगो और मिल गई । भगवत्ता में रमण करने से भगवत्ता मिलती है । कहना भी ठीक नहीं, प्रकट होती है । तो मनुष्य अथवा जो कोई व्यक्ति मन्दिर में जाता है, परमात्मा के चरणों में जाता है, सबसे पहले निसोहि की प्रक्रिया को करें । योगशास्त्र की विरेचन को सबसे पहले कर लें 1 तभी वह आगे बढ़ पायेगा । उसका विकास — एवलूशन तत्पश्चात् ही सम्भव है । वरना मन में जो कूड़ा-कचरा होगा, मन्दिर में भी जायेंगे, तो मन्दिर में भी ध्यान में वही कूड़ा-कचरा आयेगा । मैंने सुना है कि एक आदमी अपनी पतंग उड़ा रहा था। इतने में ही आकाश में एक आदमी पहुंचा हेलिकॉप्टर लेकर । उस आदमी के हाथ में एक काँटेदार झाड़ था । उसने उस झाड़ को दे मारा पतंग की डोर पर । उसकी पतंग बिचारी बीच में ही कट गई । और, वह पतंग को झाड़ में लेकर अपने हेलिकॉप्टर को आगे रफ्तार से बढ़ा ले गया । इसी तरह जो व्यक्ति मन्दिर में जाता है, वह आदमी पतंग तो उड़ाता है मन्दिर में, किन्तु उसके भीतर जो दूसरे दूसरे प्रकार के द्वन्द्वमूलक जो-जो भी भाव हैं, वे हेलिकॉप्टर बनकर और अपने झाड़-झंखाड़ों के द्वारा या ढेरिया डालकर और जो परमात्मा के मन्दिर में पतंग उड़ रही है, वह टूट जाती है । केवल कहना तो मन्दिर में आदमी जाये, लेकिन बिल्कुल निसीहि रहकर । नहीं है अपितु निसीहिमय होना है । निसीहि हुआ नहीं और निसीहि कह दिया यह तो सब बकवास है । 'गुणविहीना बहु जल्पयन्ति' निसीहि आन्तरिक भावों से हो फिर तो 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी' । इसलिए भीतरतम में जितनी भी वृत्ति में आसक्ति और विचारों में आग्रह तथा संघर्ष है सब शान्त हो । मन में जितने भी द्वन्द्व हैं, सबका विरेचन हो । जीवन के पात्र को इतना निर्मल करके जायें कि भगवान् यदि उसमें दूध डाले तो वह दूध गंदगी के कारण फटे नहीं । पात्र ऐसा हो इतना पवित्र हो कि यदि उसमें अमृत भी उड़ेला जाये तो वह आदमी उसे पाकर अमर हो जाये । ८४ अंश भर विष हो; पात्र भर अमृत को भी विष कर देता है । शब्द-कोश में तो विष और अमृत दोनों का उत्पत्ति स्थान अलग-अलग बताया गया है । किन्तु जीवन - कोश में दोनों का उत्पत्ति स्थान एक ही है। जीवन में जहाँ विष पैदा होता है, Jain Education International ही है, कि मिलती है, For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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