Book Title: Samasya aur Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 94
________________ निसोहि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया -५ वहीं अमृत पैदा होता है। वास्तव में अमृत का विकृत रूप ही विष है। और विष का सुकृत रूप ही अमृत है। इसलिए जीवन को अमृतमय बनाने के लिए विकृत विष का निसीहि और संस्कार होना आवश्यक है। पात्र की स्वच्छता ही अमृतमुखता है। अमृत-जिज्ञासु व्यक्ति मन्दिर में हाथ भी इतने पवित्र लेकर जाये, ताकि उन हाथों के द्वारा परमात्मा का चरण-स्पर्श कर सके। जिह्वा इतनी पवित्र बनाकर जायें ताकि उस जिह्वा के द्वारा परमात्मा के आदर्श गुणों का रसास्वादन कर सके । परमात्मा का जो आदर्श प्रकाश है, उसे वह प्राप्त कर सके। वह हाथ किस काम का जिसने भगवान् के चरणों में पुष्पांजलि अर्पित न की हो। वह जीभ भी अर्थहीन है, जिसने भगवत्ता के रस का आस्वादन न किया हो ! वह कदम भी बेकार है जो भगवान के मन्दिर की ओर न बढ़े हों। वह नेत्र ज्योतिहीन है, जिसने परमात्मा का पावन दर्शन न किया हो। 'अहं ब्रह्मास्मि' को प्रगट करने का यही सूत्र है। कबीर कितनी अलमस्ती में कहता है लाली मेरे लाल को, जित देखौं तित लाल । लाली देखन में गई, मैं भी ह गई लाल ॥ आज से अब हम मन्दिर जाएं, गुरु-चरणों में जाएं, साधना शुरु करें, नये ढंग से। योग्य और स्वच्छ पात्र बनकर जाएं तभी साधना के शिखर पर आरोहण होगा। एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचने के लिए निर्भार हो जाएं। साधना के पथ पर फिर से कदम बढ़ाइये। अपने को पहले बिल्कुल खाली बनाइये। कूप ऊपर का पानी लेना न चाहता, अन्दर के झरनों से ही वह भर जाता। शून्य करने का कुछ-कुछ श्रम तो उठाइये । अपने को बिल्कुल खाली बनाइये ॥ कितने भरे हैं अन्दर, कुछ न समाता, अद्भुत कुछ घटनेवाला, घटने न पाता। व्यर्थ के विकल्पों में गोते न खाइये । अपने को पहले बिल्कुल खाली बनाइये ॥ शक्कर भरी हो चाहे धूली भरी हो, सोना की सांकल हो या लोहा जड़ी हो। शुभाशुभ दोनों त्याज्य, शुद्ध बन जाइये। अपने को पहले बिल्कुल खाली बनाइये ॥ साधना के पथ पर फिर से कदम बढ़ाइये। अपने को पहले बिल्कुल खाली बनाइये । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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