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निसीहि : मानसिक विरेचना की प्रक्रिया
ब्रह्मानन्द अब भी शान्त थे। उन्होंने कहा कि जरा देखिये ! आपके आस पास कहीं छिपी मिल जाये किसी कोने में हो। थोड़ी सी होगी तो भी काम चल जायेगा। मात्र रत्ती भर । अच्छा केवल चिनगारी।
उस साधु के साथ ऐसा व्यवहार करनेवाला यह पहला आदमी था। बेवकूफी को भी हद हो गई। वह भी अव्वल दर्जे की। तो उस साधु ने कहा कि तूं मुझे क्या समझता है ? इतनी बार कह दिया कि मेरे पास आग नहीं है, लेकिन देख रहा हूं कि तूं बार-बार मुझसे आग ही आग मांग रहा है। अभी श्राप दे दिया तो तू खुद भाग बन जायेगा।
साधु आग बबूला हो गया । तो ब्रह्मानन्द सरस्वती ने कहा यदि आप किसी का भला नहीं कर सकते तो बुरा करने का अधिकार कहाँ से प्राप्त हुआ। यदि आपके पास आदमी को आग करने जैसी शक्ति है तो आप बर्फ के एक टुकड़े को आग में बदल दें और एक ठिठुरते इन्सान को बचाएं। इसमें आपकी साधुता है। बुरा करने के लिए तो सारी दुनिया है किन्तु जो हमेशा दूसरों का भला करता है, वही सन्त हैं। और, आप तो कहते हैं कि मेरे पास आग नहीं है तो फिर ये आग की लपटें कहाँ से आ रही हैं।
सन्त ने कहा कि क्या, आग की लपटें ? हाँ, ब्रह्मानन्द बोले कि आग की लपटें। आपके भीतर अभी तक क्रोध-कषाय है। जो कि भयंकर आग है। मैं गुरु की खोज में हूं, ऐसा गुरु जो यथार्थ में वीतराग हो, कषाय-मुक्त हो। शान्ति और प्रबुद्धता उसका लक्षण है। अच्छा मैं चला। वह साधु ब्रह्मानन्द को निहारता रहा।
तो लोग यही करते हैं। मन्दिर में भी जाते हैं, हिमालय में भी जाते हैं लेकिन विरेचन न हो पाने के कारण, निसीहि जीवन्त न हो पाने के कारण उनके भीतर क्रोध की लाल लपटें निकलती रहती हैं, अहंकार के गोल्ड मेडल रहते हैं, वासनाओं का कचरा रहता है । निसीहि के बिना जो लोग हिमालय में जाते हैं, मन्दिर में जाते हैं या गुरु-चरणों में जाते हैं वे लोग केवल पागलपन को एकत्रित कर रहे हैं। जब आदमी के विचारों पर एक ही विचार से सम्बन्धित अनेक विचार इकट्ठा होते हैं, सतह पर सतह जमते जाते हैं, प्रकट नहीं करते, वे ही विचार ज्वालामुखी की तरह मानसिकभूमि में भड़कते हैं। आदमी उसे सहन नहीं कर पाता। वह सुधबुध खो बैठता है । लोग उसे पागल कहने लगते हैं। जैसे पागल आदमी के लिये अपनी पगलाई जताने के लिए एकान्त और भीड़ दोनों समान है वैसे ही लोगों के लिए संसार और मन्दिर एक समान हो जाता है। वे मन्दिर में भी भगवान से धन, पुत्र, ऐश्वर्य की मांग करेंगे। वे यह भूल जाते हैं कि भगवान् न तो किसी का कुछ छीनते हैं और न किसी को कुछ देते हैं। और यदि छीना-झपटी और देने-लेने का सम्बन्ध मन्दिर से जोड़ रहे
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