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आदर्शवाद-यथार्थवाद
है। पैरों से पंगु हो गया है, हाथ की अंगुलियां सड़ रही हैं, मुंह से लार टपक रही है, बिस्तरों पर सोये पड़े रहते हैं, घर वालों के लिए केवल बोझ बने हैं लेकिन फिर भी आदमी दीर्घायू ही चाहता है।
नारी भयंकर से भयंकर वेदना प्रसव-वेदना सहती है कितनी भयंकर वेदना होती है प्रसव की, इसका अनुभव तो स्वयं नारी ही कर सकती है। हम लोग तो केवल सुनते हैं। परन्तु जब सुनते और पढ़ते हैं कि प्रसव के समय कितनी वेदना होती है । ओह ! उसे पढ़ते समय हम लोगों के भीतर एक चीख उठ जाती है, लेकिन इतना होते हुए भी हर स्त्री अपने जीवन में कम से कम एक बार तो गर्भवती होना ही चाहती है । किसी न किसी प्रयास से एक पुत्र को पैदा करना ही चाहती है। वह लालायित रहती है, बेटे को पाने के लिए भले ही सहनी पड़े उसे बड़ी-बड़ी वेदनाएँ। क्योंकि उसमें आशा का संचार है। आदमी रोग की शय्या पर पड़ा है, लेकिन फिर भी किसी आशा की सम्भावनायें लिये हुए हैं। गर्भवती है। प्रसव-वेदना सहती है स्त्री, आशा को लिये हुए ही सहती है। बस यह आशा का संचार ही आदर्शवाद है जीवन का ।
भले ही कोई भी पहल ले लें। भले ही काव्य साहित्य को ले लें। भारतीय जीवन में तो कम से कम, आदर्शवाद की ही झलक दिखाई देगी और इसीलिए भारतीय संस्कृति आदर्शवाद को ही यथार्थवाद कहती है । काव्य के जितने लक्षण बताये गये हैं वे सब के सब वस्तुतः आदर्शवादात्मक दृष्टिकोण को ही लिए हुए हैं। इसीलिए भारतीय काव्य, भारतीय महाप्रबन्ध, भारतीय नाटक, उनका अन्त कभी भी दुखान्त नहीं होता कोई भी नाटक, महाकाव्य या महाप्रबन्ध ऐसा नहीं मिलता, जिसका अन्त दुखान्त हुआ हो। हर नाटक का, हर उपन्यास का अन्त भारत में सुखान्त ही करते हैं। उसका मूल दृष्टिकोण आदर्शवाद ही हैं।
आजकल भारत में जो फिल्में चलती हैं उनमें भी हम देखते हैं कि उनका समापन भी अधिकांशतया सुखान्त ही होता है, दुखान्त नहीं होता। शुरूआत में दिखा देते हैं माँ के दो बेटे अलग-अलग हो गये, बीच की पूरी फिल्म में दोनों भाईयों के बीच में या तो युद्ध दिखायेंगे, लड़ाई दिखायेंगे, संघर्ष दिखायेंगे और जब फिल्म समाप्त होगी तो दोनों भाई एक दूसरे से गले मिलते हुए दिखाई देते हैं। इसीलिए भारतीय फिल्मों में किसी भी तरह की प्रेरणा नहीं है क्योंकि जब आदमी फिल्म-हाल से फिल्म देखकर निकलता है तो उसके मन में एक खुशियाली होती है कि दोनों भाई मिल गये । उसका मूल कारण यही होता है कि भारत हमेशा आदर्शवाद के दृष्टिकोण को ही केन्द्र बिन्दु रखता है। जबकि पाश्चात्य जगत में, विदेशों में जो भी फिल्में बनती हैं, जो भी नाटक होते हैं उनका समापन हमेशा दुखान्त ही होता है। आदमी जब फिल्म हाल से निकलता है तो पाश्चात्य लोग कहते हैं कि वह किसी न किसी प्रेरणा को लेकर बाहर आना चाहिए। पाश्चात्य फिल्म इस तरह की होती है कि जैसे एक आदमी दूसरे
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