Book Title: Samasya aur Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 85
________________ निसीहि : मानसिक विरेचन की प्रक्रिया भगवान महावीर का निसीहि और योगशास्त्र का विरेचन बिल्कुल एक ही हैं। 'मन एक, दुइ गात'। दोनों का अर्थ एक समान है, अन्तर शब्दों का है। शब्द दो हैं, किन्तु शब्दार्थ एक। यों समझिये कि ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। इसीलिए महावीर का निसीहि योगकुण्डलिनी उपनिषद तथा पतंजल-योगदर्शन के काफी साम्य है। महावीर के निसीहि दृष्टिकोण का प्रभाव परवती सभी योगशास्त्रियों पर रहा है। महावीर के सत्य को सभी ने सत्य रूप स्वीकार किया। ध्यान, साधना और योग में यात्रा करने का प्रस्थान-बिन्दु बना निसीहि । निसीहि और विरेचन दोनों को यदि तुलनात्मक अर्थ की दृष्टि से देखा जाये तो निसीहि विशेष अर्थ-गाम्भीर्य रखता है। विरेचन में तो मात्र अशुभ का निष्कासन होता है, जबकि निसीहि में न केवल अशुभ का विरेचन होता है, अपितु शुभ का प्ररूपण भी होता है। अशुभ के तुम्बे की लताओं को जड़ से उखाड़ कर फेंका जाता है और शुभ का मधुर बीजारोपण होता है। एक बाल्टी में वर्षा का पानी भरा है। उसमें मिट्टी आदि भी है। उसमें फिटकड़ी डालकर पानी को गोलाकार घमाओ। गन्दगी नीचे बैठ जायेगी, और पानी साफ दिखायी देने लगेगा। यह हुआ विरेचन । किन्तु इससे पानी पूर्णरूपेण स्वच्छ नहीं हुआ। निसीहि की क्रिया अभी समाप्त नहीं हुई। वास्तव में निसीहि की क्रिया अब शुरु होगी । और वह यह कि पानी को अलग वर्तन में निकाल लो और नीचे जमे कचरे को बाल्टी से बाहर फेंक दो। पुनः वह पानी बाल्टी में डाल दो अब पानी अच्छी तरह से निर्मल हो गया। तो योगशास्त्र में जो विरेचन की प्रक्रिया बतलाई गई, योग प्रारम्भ करने से पहले, वैसे ही महावीर बताते हैं निसीहि की प्रक्रिया, विरेचन की प्रक्रिया, कि तुम अपनी आत्मा में परमात्मा को प्रगट करना चाहते हो, निज में जिनत्व की शोध करना चाहते हो तो सबसे पहले निसीहि को घटित करो। संसार से जितने भी सम्बन्ध हैं, जितने भी बाह्य विकल्प हैं, सबके सब बाहर छोड़ आओ। निसीहि कहो और मन्दिर में प्रवेश करो। परमात्मा के मन्दिर में जाते हैं, तो केवल परमात्मा के प्रति भक्ति-भावना को ही लेकर जायें। रसमयता मात्र परमात्मा के प्रति हो। कामभोग का रसिक यदि मन्दिर में जाएगा, तो उसके मन में ईश-मन्दिर में भी कामभोग की बातें मंडराएगी। इसलिए मन्दिर में केवल परमात्म-रस हो, क्योंकि 'रसो वै सः' वह रस रूप है। इसके अलावा जिस भी चीज को ले जाएंगे, वह सब कूड़ा-कचरा ही होगा, मात्र पागलपन इकट्ठा करना है। मन्दिर में जाना और जाते समय दूसरे-दूसरे तरह के द्वन्द्वों और विकल्पों को साथ में ले जाना अपने को पागलखाने में ले जाना है। वह व्यक्ति एक पागल की तरह मात्र अपने ही विचारों में खोया है, परमात्मा के प्रति नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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