Book Title: Samasya aur Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 75
________________ ६६ आदर्शवाद यथार्थवाद । और अहिंसा पर भाषण देने लगा । भाषण बड़ा जोशीला था । लोग बड़े ही प्रभावित हुए कि क्या कला है आदमी के पास बोलने की अहिंसा पर एक आदमी ने कितने नये-नये प्रकार की रहस्यों का उद्घाटन किया है। लोग बड़े प्रभावित हुए वह युवक करीब आधे घण्टे बोला होगा कि अचानक उसने देखा कि मेरी ललाट पर पसीना आ गया है । उसने पसीने को पोंछने के लिए जेब से रूमाल निकाला । जब रूमाल निकालकर पोंछने लगा तो उसे यह ध्यान नहीं रहा कि रूमाल में तो वह चीज थी जिसका मैं भाषण में विरोध कर रहा हूँ । वह चीज नीचे गिरी और फूट गयी । लोगों ने उसके ऊपर पत्थर मारे और कहा कि जो आदमी अण्डे का विरोध करता है, उसी आदमी के जेब से यदि अण्डा निकल जाये तो वह अहिंसा का आदर्श और अहिंसा का यथार्थ कहाँ रहा ? आज का आदर्शवाद और यथार्थवाद तो बड़ा ही छिछला हो गया है पहले जमाने का जो आदर्शवाद हम पढ़ते हैं वह वास्तव में यथार्थवाद से भरा हुआ था । आजकल लोग जिस साम्यभावना का विकास करवा रहे हैं आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व तो बिल्कुल ऐसी ही साम्यभावना थी । सैकड़ों वर्ष पूर्व एक भिक्षुक, एक साधु की बहु कद्र होती थी जितनी कि आज एक प्रधान मन्त्री की भी नहीं होती है । भिक्षुक, जिसके पास रहने के लिए झोंपड़ी नहीं, पहनने के लिए कपड़ा नहीं, खाने के लिए भोजन की व्यवस्था नहीं, लेकिन फिर भी उसके चरणों में स्वयं राजा आकर झुकता था यही तो भारत की आदर्शवादिता है । पाश्चात्य जगत् में भी यह आदर्शवादिता हमें दिखाई दे जाती है । जब रोम के नेता जिसका नाम कूरियस था. सेमाइट जाति के लोग उसके पास पहुँचे और कहा कूरियस ! यदि तुम हमारे पक्ष में आ जाओ तो हम तुम्हें उतना सोना देगें, जितना तुम्हारे शरीर का भार है । कूरियस उस समय खाना पका रहा था । कूरियस ने कहा कि तुम लोग कितने महामूर्ख आदमी हो कि जो कूरियस गाजर पका पका कर अपना जीवन चला सकता है वह तुम्हारे सोने से कभी भी आकर्षित नहीं होगा । उसके लिए सोना और अर्थ की कीमत ही नहीं है । उसके लिए तो आदर्श ही बहुमूल्यवान है । आज का जो आदर्शवाद और यथार्थवाद है वह प्राचीनकाल के आदर्शवाद और यथार्थवाद से बहुत ही विचित्र है । आज का जो यथार्थवाद है, ठीक है वह बहुत सीमा तक उचित है । और इस यथार्थवाद की आज अपेक्षा भी थी । क्योंकि लोग केवल आदर्शवाद को ही पकड़े हुए थे । यथार्थ क्या है लोग इससे अलग हो गये थे । लेकिन पाश्चात्य - जगत् की इस भावना को भी हम स्वीकार नहीं कर सकते कि भीष्म का ब्रह्मचर्य, राम की मर्यादा, महावीर और बुद्ध का त्याग – ये सब केवल कल्पनायें हैं ये भी सत्य हैं । ये भी यथार्थ से पूरित आदर्श हैं । 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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