________________
आदर्शवाद-यथार्थवाद
आदमी के पेट में छुरा घोंपता है तो छुरा घोंपने के कारण उसका कितना दुष्परिणाम उसे भोगना पड़ता है। बस वह दुष्परिणाम भोगते-भोगते ही फिल्म का समापन कर देते हैं। आदमी जब फिल्म देखकर बाहर निकलता है तो उसके भीतर एक विचित्र प्रकार की बेचैनी आ जाती है कि अरे यदि मैं भी किसी के पेट में छरा घोपूगा तो मेरी भी यही दशा होगी। अतः पाश्चात्य फिल्मों के द्वारा यथार्थवाद की झलक हमेशा दिखाई देगी और भारत हमेशा आदर्शवाद को मुख्यता देता है।
आदर्शवाद वास्तव में भारत की उपज है और यथार्थवाद पाश्चात्य की उपज है। भारत में आज से नहीं अपितु हजारों-हजारों वर्षों से हमेशा आदर्शवाद की ही परम्परा रही है और पाश्चात्य जगत में शुरू से ही हम चाहे जिसके नाटक, चाहें सेक्सपीयर के नाटक, चाहे जिस साहित्य को उठाकर पढ़ लें, लेकिन यथार्थवाद का दृष्टिकोण ही वहाँ मुख्य होगा। भारत में तो बड़ी महिमा गाते हैं आदर्शवाद की। शील का जैसा परिपाक भारतीय साहित्य में मिलता है वैसा परिपाक और कहीं नहीं मिलेगा लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पाश्चात्य-जगत् जो कि आदर्शवाद की उपेक्षा करता है वह सही नहीं है। जो वह भारत के आदर्शवाद को केवल एक कल्पना का कबूतर कहता है और यह कर भारतीय आदर्शवाद की खिल्ली उड़ाता है वह ज्यादा सही नहीं है। आदर्शवाद में कुछ कल्पना आ सकती है लेकिन आदर्शवाद असत्य से भरा हआ नहीं रहता, यथार्थवाद का विरोधी नहीं होता। शकुन्तला का प्रणय, राधा
और मीरा की प्रेम-भावना, सीता का त्याग, राम की मर्यादा, भीष्म का ब्रह्मचर्य यद्धस्थल में कृष्ण का उपदेश—ये सब जीवन की ठोस अनुभूतियों को व्यक्त करते हैं। इनको हम केवल कल्पना ही नहीं कह सकते। ऐसा कहने में पाश्चात्य-जगत् चाहे जो कहे क्योंकि पाश्चात्य-जगत् में तो मूलतः उमर खय्याम की 'खाओ पीओ और मौज उड़ाओ' की भूमिका है। इस खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ से ही राजनीति में मार्शदर्शन पैदा हआ और मनोविज्ञान में फ्रॉयडवाद का जन्म हुआ था। फ्रॉयड के सिद्धान्त
और मार्क्स दर्शन के सिद्धान्त काम और क्षुधा की शान्ति करने के लिए ही पनपे हैं। इसलिए मार्क्स के जितने भी सिद्धांत हैं और फ्रायड के जितने भी सिद्धान्त हैं सारे के सारे सिद्धान्तों में काम और क्षुधा की कैसे तृप्ति हो, यही बात मुख्यतः मिलेगी। ठीक है, काम और क्षधा से जीवन की एक महत्वपूर्ण प्रवृत्तियाँ है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि काम और क्षुधा से परे कोई आदर्श और यथार्थ होता ही नहीं है।
आजकल भारत में जो आदर्शवाद के लिए डींगे हाँकी जाती हैं, वह आदर्शवाद तो बिल्कुल असत्य से भरा हुआ है। आज का जो आदर्शवाद है, वह तो ऐसा बन गया है कि कहेंगे कुछ और करेंगे कुछ उसमें विकृति आ गई है।
मैंने पढ़ा है कि बड़ौदा में जहाँ सयाजीराव गायकवाड़ की अध्यक्षता में अहिंसा पर एक संगोष्ठी आयोजित की गई थी तो संगोष्ठी में एक युवक खड़ा हुआ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org