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पदयात्रा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में
का देखता है, उसे सागर खारा लगता है। भीतर-अन्दर की ओर झाँको, तो मोतीरत्नों की भी सम्भावना होती है। हम उपाध्याय अमरमुनि से मिले। परस्पर प्रभावित हुए। हमने उन्हें नमन किया और उन्होंने हमें गले से लगाया। कुछ लोगों को यह बात कम जची। उस समय वहाँ पर श्री गणेश ललवानी, श्रीमती राजकुमारी बेगानी वगैरह थे, उन्हें यह कार्य अच्छा लगा और उन्होंने हमें कहा कि आपने तो वास्तव में अपने गच्छ के अनुकूल और गौरवपूर्ण कार्य किया है। खैर ! यह तो अपना अपना दृष्टिकोण है। पर गुणग्राहकता होनी चाहिये।
गृहस्थ-श्रावक भी तो कई तरह के होते हैं, अच्छे बुरे परन्तु सबको परस्पर जय-जिनेन्द्र या प्रणाम करना चाहिए-यह एक व्यावहारिक संस्कृति है। तब फिर साधु लोग यदि एक दूसरे का अभिवादन नहीं करेंगे, तो फिर साधुता कहाँ ? आचरण और निश्चय में बाद में प्रवेश करो, पहले व्यवहार को देखो। कौन कैसा है, उससे हमें कोई प्रयोजन नहीं है, हमें तो अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व को पूरा कर देना चाहिये।
वाहन यात्रा के सम्बन्ध में जब और भी दूसरे मुनिगण कभी-कभी मुझे कुछ कहते हैं तो मैं उनसे यही कहता हूँ कि हमारी चाल भले ही कछआ-छाप हो लेकिन हम आपकी खरगोश-चाल से पीछे नहीं रहेंगे। विजय कछुए की होती है, जो जितेन्द्रिय, है और यतनापूर्वक चलता है।
यदि कोई यह पूछता है कि आज के विज्ञान के युग में आवागमन के द्रुतगामी साधन उपलब्ध हैं और मनुष्य शब्द की गति से यात्रा करने की तैयारी कर रहा है तो पद यात्रा के मार्ग का प्रतिपादन करना क्या युक्ति संगत है।
___ मैं कहता हूँ यह तो इतना युक्ति संगत है कि इसकी युक्ति को तो कोई काट ही नहीं सकता। रवीन्द्रनाथ टैगोर सम्पन्न व्यक्ति थे, लेकिन फिर भी वे जब भी यात्रा करने के लिए निकलते तो ऐसी ट्रेन में ऐसी रेल में बैठते जो पहुंचाने में अधिक से अधिक समय ले। जब उनसे पूछा गया कि आपका टिकट कटा है एक्सप्रेस गाड़ी की प्रथम श्रेणी का। आप उसमें क्यों नहीं जाते ? तो रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा कि मुझे एक्सप्रेस नहीं चाहिए, मुझे प्रथम श्रेणी नहीं चाहिए। मैं तो जनता रेल में जाऊँगा जनता ट्रेन में ही जाऊँगा। वह धीरे-धीरे जाती है। इससे प्रकृति के सौन्दर्य का पान होता है। सच तो यह है कि पदयात्री को जैसा प्रकृति के सौन्दर्य का भान होता है, वैसा वाहन यात्री को कहाँ हो सकता है। रेल में अथवा हवाई जहाज में बैठे और गंतव्य स्थल पहुँच गये। प्रकृति का आनन्द हम नहीं ले पाये। प्रकृति का आनन्द लेने के लिए हमें पैरों-पैरों ही चलना पड़ेगा। थोड़ी साधना करनी पड़ेगी। प्रकृति का आनन्द मुफ्त में नहीं मिलता। शारीरिक कीमत चुकानी पड़ती है। जाता है व्यक्ति स्वयं प्रकृति का आनन्द पाने के लिए। हम लोगों में तो बहुत बार बातचीत होती है कि देखो कितना बढ़िया है यह सीन। चारों तरफ कितनी अच्छी सीनरी दिखाई
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