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आचार-व्यवहार हो देशकालानुरूप
वस्तुतः हम जिस युग पैदा हुए हैं हमारे लिए तो वही युग सबसे अच्छा है । महावीर स्वामी के लिए उनका अपना युग अच्छा था । हमारे लिए तो वही युग अच्छा है, जिस युग में हम जीते हैं । इसीलिए हम अपने युग पर लांछन नहीं लगा सकते हैं । ठीक है महावीर और ऋषभदेव के माता पिता बहुत उच्च थे लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हमारे माता-पिता नीच हैं । उनकी अपनी कोटि होती है हमारे माता पिता की अपनी कोटि है । अपने-अपने स्थान पर दोनों ही उच्च हैं । पुरातन भी अच्छा है, नवीन भी अच्छा है दोनों ही अच्छे हैं अपनी अपनी उपयोगिता के समय । अब जैसे कि राजेन्द्रसूरि ने एक परम्परा को तोड़ा । परम्परा चली आ रही थी चार थुई की । यानी चार स्तुति बोलते थे । राजेन्द्रसूरि की बात काफी तर्क पूर्ण है । लेकिन लोग स्वीकार नहीं कर सकते । उन्होंने तीन थुई का प्रचलन शुरू किया उनका कहना भी ठीक था एक सीमा तक कि सामायिक में प्रतिक्रमण में देवी-देवताओं का आह्वान करना और 'पुत्र कलत्र बहुवित्त' इत्यादि शब्दों का उच्चारण करना सामायिक जैसी आध्यात्मिक प्रक्रियाओं में अच्छी बात नहीं है ।
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सामायिक में देवी-देवताओं की स्तुति की परम्परा को उन्होंने तोड़ा । त्रिस्तुति - परम्परा बनी । लेकिन लोग चौथी स्तुति को क्यों पकड़े हुए हैं इसका भी अपना कारण है । यदि वह वास्तव में फालतू ही होती तो लोग उसे छोड़ भी देते । ऐसे क्रांतिकारी आचार्य कम होते हैं । आचार्य राजेन्द्रसूरि का कथन अपनी सीमा तक ठीक था । लेकिन दूसरे मूर्तिपूजक जैन लोग फिर भी चौथी थुई को क्यों बोलते हैं, इसे समझें । वस्तुतः श्रावक जब साधना में संलग्न होता है तो स्वाभाविक है कि जब वह आत्मरमण करेगा, आत्मसाधना और ध्यान योग में तल्लीन होगा तो कोई उपसर्ग, परिताप भी आ सकता है । कोई असुरीय- परीषह भी आ सकता है । इसलिए श्रावक चतुर्थ-स्तुति के द्वारा देवी-देवताओं का आह्वान करते हैं ताकि हम जो साधना कार्य कर रहे हैं, उसमें कोई तरह से विघ्न न आ जाय । यदि विघ्न आ जाता है तो हमने जो चतुर्थ स्तुति बोली है उसके द्वारा वह विघ्न दूर हो जाय । लक्ष्मण ने तो यही किया था । लक्ष्मण ने रेखा खींच दी थी । सीता रेखा से कहीं बाहर न निकल जाय इसलिए वह रेखा खींची गयी थी । जो रेखा खींचो जाती है उसका अपना उद्देश्य होता है । प्रत्येक रेखा किसी न किसी भावी शुभ के लिए खींची जाती है । कालकाचार्य ने पञ्चमी सवत्सरी की परम्परा को बदलकर चौथ की परम्परा चलायी । आज यदि उस परम्परा को कोई वापस पंचमी में बदलता है तो वह कार्य गलत नहीं माना जायेगा । वैसे तो संवत्सरी तीज की कीजिए चौथ को कीजिये और चाहे दूज को कीजिए और चाहे रोजाना कीजिए उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है । धर्म-ध्यान के लिए, साधना के लिए तो सारे दिन एक जैसे ही होते हैं । इसलिए यदि कोई उपयोगिता समझता है संवत्सरी की चौथ को वापस पञ्चमी में करने की तो वह कार्य भी अच्छा है ।
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